’पगली’ की याद अभी मनस-पटल से उतरी नहीं थी, कि एक समाजिक संस्था द्वारा आयोजित वार्षिक सांस्कृतिक कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में जाना हुआ। यह संस्था ’स्ट्रीट चिल्ड्रेन’ के ऊपर कार्य कर रही है और रेलवे स्टेशन में सक्रिय रूप से कार्यरत होने के कारण सतत सम्बन्ध में है। अति विशिष्टों के कार्यक्रम की व्यस्ततावश, समय न होने के बाद भी अनुरोध अस्वीकार न कर पाया और कार्यक्रम से आने के बाद लगा कि समय का इससे अधिक सदुपयोग संभव भी नहीं था।
गरीबी अभिशाप है। कई बच्चे उनके माता पिता द्वारा इसलिये छोड़ दिये गये क्योंकि स्वयं को ही बचा पाना उनके लिये कठिन हो गया था। … छोड़ने के बाद भी वो भीड़ का हिस्सा बनकर यह देखते रहते हैं कि उनके बच्चों का क्या हुआ।
“स्लमडॉग” ने भारत को विश्व में इस तथ्य के साथ स्थापित कर दिया है कि भारत में “स्लम्स” भी हैं और “स्ट्रीट चिल्ड्रेन” भी।
अतः आश्चर्य इस बात पर नहीं होना चाहिये कि बंगलुरु जैसे बड़े और बढ़ते शहर में भी इनका अस्तित्व है, पर आप यह जानकर दुखी होंगे कि केवल बंगलुरु में पिछले 2 वर्षों में 4500 बच्चों को ऐसी संस्थाओं ने बचाया है। पर ऐसे कितने ही बच्चे जो बचाये नहीं जा पाते हैं, या तो अपराध तन्त्र में डूबते हैं या बाल मजदूर के रूप में देश की जीडीपी बढ़ाते हैं या मंदिर के बाहर भीख माँगते हुये दिखायी पड़ते हैं। समस्या को समग्र रूप में देखने में जो दूरगामी सामाजिक परिणाम दिखायी पड़ते हैं उसे सोचकर मन में सिहरन सी हो उठती है।
कार्यकर्ताओं से बात करने पर उन्होने बताया कि वे ’बच्चों के बचपन’ को बचाने का प्रयास कर रहे हैं। यदि उनके मन की कोमल भावनाओं को नहीं बचाया गया, उसका कुप्रभाव समाज के लिये बहुत हानिकारक होगा। परिवार के लोगों द्वारा त्यक्त आहतमना बच्चों को जब समाज का प्रश्रय नहीं मिलेगा, उनका मन कठोरतम होता जायेगा। यदि उनका शोषण हुआ तो वही मन विद्रोही बनकर समाज की हानि करेगा। ऐसे आहतमना बच्चों को ढूढ़ने के लिये प्रतिदिन कार्यकर्ताओं को सड़कों पर ८-१० किमी पैदल चलना पड़ता है।गरीबी अभिशाप है। कई बच्चे उनके माता पिता द्वारा इसलिये छोड़ दिये गये क्योंकि स्वयं को ही बचा पाना उनके लिये कठिन हो गया था। ऐसे बच्चों को लोग स्टेशन पर छोड़ देते हैं। छोड़ने के बाद भी वो भीड़ का हिस्सा बनकर यह देखते रहते हैं कि उनके बच्चों का क्या हुआ। झाँसी में पिछले दो वर्षों में ऐसे दस बच्चों को रेलवे कर्मचारियों ने अनाथालय में पहुँचाया है।
कुछ बच्चे माता पिता की आकस्मिक मृत्यु के बाद सम्बन्धियों द्वारा प्रताड़ित किये जाने पर घर छोड़कर भाग आये थे। कुछ विकलांग थे और उनका भार जीवनपर्यन्त न वहन कर सकने के कारण उनके माता पिता ने छोड़ दिया था। कुछ बच्चे बिछुड़ गये थे अपने परिवार से पर इस संस्था में होने के बाद भी उनके परिवार के लोग उन्हे नहीं ढूढ़ पाये।

निठारी काण्ड ने खोये हुये बच्चों को ढूढ़ने में पुलिस की निष्क्रियता की पोल खोल कर रख दी है। किसी गरीब का बच्चा खोता है तो वह इसे अपना दुर्भाग्य मान कर बैठ जाता है क्योंकि उसे किसी से भी कोई सहायता नहीं मिलती है। अमेरिका में खोये बच्चों को मिलाने का एक देशव्यापी कार्यक्रम चल रहा है और आधुनिक तकनीक की सहायता से उन्हे पहचानने में बहुत सहायता मिल रही है। ’एक नेटवर्क’, ’जेनेटिक फिंगर प्रिन्टिग’ और ’फेसियल फीचर एक्स्ट्रापोलेशन’ आदि विधियों से इस कार्यक्रम की सफलता दर ९९% तक पहुँच गयी है। कुछ लोगों को तो २० वर्ष बाद में मिलाया गया है। कोई भी केस वहाँ बन्द नहीं होता है जब तक सफलता न मिल जाये। हमारे यहाँ तो केस दर्ज़ ही नहीं किया जाता है। कहने को तो अभी सरकार ने १०९८ का हेल्पलाइन नम्बर प्रारम्भ किया है पर उसका कितना उपयोग हो पा रहा है, कहा नहीं जा सकता है।
कार्यक्रम में बच्चों का उत्साह दर्शनीय था। हर एक के मन में कुछ कर गुजरने का एक सपना व दृढ़निश्चय था। एक सहारा बच्चे की दिशा और दशा सँवार सकता है। एक देश व समाज के रूप में हम अपने बच्चों की कितना ध्यान रखते हैं, उस संस्था में जाकर मुझे आभास हो गया।

आनन फानन में इलाहाबादी के नाम से एक पोस्टरस पर ब्लॉग बना डाला उन्होने। आप जरा नजर मारें वहां। माइक्रोब्लॉगिंग की दो पोस्टें तो ठेल ही चुके हैं अपने मोबाइल से।
स्वागत हिमांशु!
चिंतन – मनन देने वाली पोस्ट है….रेलवे कर्मचारियों को साधुवाद…
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@ श्री अरविन्द मिश्र और @ श्री प्रवीण पाण्डेय –ब्लॉगर और लेखक में यह अन्तर है! लेखक आदर्शवाद ठेल कर कट लेता है। ब्लॉगर से पाठक लप्प से पूछ लेता है – आदर्श बूंकना तो ठीक गुरू, असल में बताओ तुमने क्या किया? और ब्लॉगर डिफेन्सिव बनने लगता है। एक तरीके से जिम्मेदार ब्लॉगर के लिये ठीक भी है। फिर वह आदर्श जीने का यत्न करने लगता है। उसका पर्सोना निखरने लगता है। हम सभी किसी न किसी सीमा तक आदर्श जीते हैं। ड्यूअल पर्सनालिटी होती तो बेनामी नहीं बने रहते? और अगर यथा है, तथा लिखें तो ब्लॉगिंग भी एक तरह की वीरता है। आप दोनो मुझे प्रिय हैं, इस गुण के कारण!
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सही पोस्ट उचीत चिंतन.
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गली और फुटपाथ के बच्चों के बारे में कुछ करना सराहनीय है। लेकिन उन वजहों के बारे में भी सोचा जाए जिन के कारण ये गली और सड़कों पर आते हैं।
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बहुत गंभीर विषय चिन्तन के लिए छोड़ा है..हिमांशु जी का स्वागत है! परिचय के लिए आपका आभार.
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@ Arvind Mishraबच्चों के उत्साह के सागर में उनका इतिहास मुँह छिपाये बैठा था । अतः उत्साहवर्धन ही किया, संवेदनायें अपने पास ही रखीं । अपने वाणिज्यिक कर्मचारियों के माध्यम से हम लोग ’यात्रियों में अपवादों’ को ढूढ़ते रहते हैं । कई घर से भागे हुये प्रेमी युगलों को भी समझा बुझा कर घर वापस भेजने का कार्य रेल कर्मचारियों ने किया है । अभिनेता बनने के लिये भागे कई युवाओं को भी झाँसी में चिन्हित कर वापस वास्तविक धरातल में लाकर वापस घर भेजा है । अवयस्कों के पाये जाने पर उनके परिवारजनों को सूचित करते हैं और यदि उनसे कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं होता है तो ऐसी संस्थाओं को सौंप देते हैं । मुझे गर्व है कि इन परिस्थितियों में रेल कर्म्चारियों की संवेदनायें अति परिपक्व हैं ।
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सामाजिक संस्था स्ट्रीट चिल्ड्रेन के बारे में जानकारी मिली …और सामजिक सरोकारों के प्रति आपकी संवेदनशीलता की भी …!!
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हिमांशु जी का स्वागत |
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सच है ''किसी गरीब का बच्चा खोता है तो वह इसे अपना दुर्भाग्य मान कर बैठ जाता है क्योंकि उसे किसी से भी कोई सहायता नहीं मिलती है।''गम्भीर विषय पर ध्यान आकर्षण.हिमांशु जी का स्वागत.
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सामने दिखती दुनिया में ही कितने अँधेरे कोने अतरे भी है और वहां तक प्रकाश न पहुंचा पाने की अपनी भी अकरयमन्यता और विवशता कभी कभी बहुत उद्विग्न कर जाती है -कुछ लोग तो हैं जो अच्छा करने में जुटे हैं उन्हें मेरा नमनआपको इस पहलू पर प्रकाश डालने के लिए बधाई मगर आपकी भी भूमिका महज मुख्य अतिथि के पद का विभूषण प्राप्त करना और उपरान्त इस ताई मुंह मोड़ लेना ही नहीं हो जाना चाहिएआप यह भी बताते कि आपका योगदान मुख्य अतिथि के अलावा क्या रहा तो यह पोस्ट अपनी सही निष्पत्ति पा जाती …..
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