मार्च का महीना सबके लिये ही व्यस्तता की पराकाष्ठा है। वर्ष भर के सारे कार्य इन स्वधन्य 31 दिनों में अपनी निष्पत्ति पा जाते हैं। रेलवे के वाणिज्यिक लक्ष्यों की पूर्ति के लिये अपने सहयोगी अधिकारियों और कर्मचारियों का पूर्ण सहयोग मिल रहा है पर एक ऐसा कार्य है जिसमें मैं नितान्त अकेला खड़ा हूँ, वह है बच्चों की वार्षिक परीक्षायें। पढ़ाने का उत्तरदायित्व मेरा था अतः यह परीक्षायें भी मुझे ही पास करनी थीं।
परीक्षाओं का अपना अलग मनोविज्ञान है पर जो भी हो, बच्चों का न इसमें मन लगता है और न ही उनके लिये यह ज्ञानार्जन की वैज्ञानिक अभिव्यक्ति है। झेल इसलिये लेते हैं कि उसके बाद ग्रीष्मावकाश होगा और पुनः उस कक्षा में नहीं रगड़ना पड़ेगा|



रणभेरियाँ बज उठीं। आने वाले 18 दिन महाभारत से अधिक ऊष्ण और उन्मादयुक्त होने वाले थे।
द्वन्द था। मेरे लिये वर्ष भर को एक दिन में समेटने का और बच्चों का अपनी गति न बढ़ाने का। शीघ्र ही बच्चों की ओर से अघोषित असहयोग आन्दोलन प्रारम्भ हो गया। बच्चों से पढ़ाई करने को लेकर लुका छिपी चलने लगी।
उन्हें कभी असमय भूख लगती, कभी घंटे भर में 6 बार प्यास, कभी बाथरूम की याद, कभी पेंसिल छीलनी है, कभी रबड़ गिर/गिरा दी गयी, कभी पुस्तक नहीं मिल रही है, बाहर कोलाहल कैसा है आदि आदि।
उन सब पर विजय पायी तो पेट दर्द, पैर दर्द, सर दर्द, नींद आ रही है, 10 मिनट लेट लेते हैं। पता नहीं ज्ञान कान से घुसकर किन किन अंगों से होता हुआ मस्तिष्क में पहुँचता है।
उन उद्वेगों को काबू किया तो घंटे भर की संशयात्मक शान्ति बनी रही। तत्पश्चात। हाँ, अब सब पढ़ लिया, अब खेलने जायें। जब शीघ्रार्जित ज्ञान के बारे पूछना प्रारम्भ किया तो मुखमण्डल पर कोई विकार नहीं। मैम ने कहा है, शायद आयेगा नहीं, पाठ्यक्रम में नहीं है। पुनः पढ़ने के लिये कहा तो पूछते हैं कि क्या आपके पिताजी भी आपको इतना पढ़ाते थे या ऐसे पढ़ाते थे? हाँ बेटा। नहीं मैं नहीं मानता, मोबाइल से बात कराइये। फिर क्या, फोन पर करुणा रस का अविरल प्रवाह, सारे नेटवर्क गीले होने लगे। फोन के दूसरी ओर से बाबा-दादी का नातीबिगाड़ू संवेदन। जब बच्चों को बहुमत उनकी ओर आता दिखा तो सरकार को गिराने की तैयारी चालू हो गयी।
माताजी आपसे अच्छा पढ़ाती हैं, अब उनसे पढ़ेंगे। अब देखिये, यह तर्क उस समय आया जिस समय श्रीमती जी भोजन तैयार कर रही थी। श्रीमती जी पढ़ाने लगें तो कहीं भोजन बनाना भी न सीखना पड़ जाये, इस भय मात्र से मेरा सारा धैर्य ढह गया। थोड़ा डाँट दिये तो आँसू। बच्चों के आँसू कोई भी बदलाव ला सकते हैं। मन के एमएनसी प्रशासक का असमय अन्त हुआ और तब अन्दर का सरकारी पिता जाग उठा। चलो ठीक है, आधा घंटा खेल आओ। घंटे भर तक कोई आहट नहीं । बुला कर पूँछा गया तो बताते हैं कि ग्राउण्ड पर कोई घड़ी नहीं लगी थी।
ऐसी स्पिन, गुगली, बांउसर, बीमर के सामने तो सचिन तेण्डुलकर दहाई का अंक न पहुँच पायें। थक हार कर मोटीवेशनल तीर चलाये, मनुहार की, गुल्लक का भार बढ़ाया, मैगी बनवायी तब कहीं जाकर बच्चों के अन्दर स्वउत्प्रेरण जागा। बिना व्यवधान के मात्र घंटे भर में वह कर डाला जो मैं पिछले 6 घंटे से करने का असफल प्रयास कर रहा था।
कैसे भी हुयी, अन्ततः धर्म की विजय हुयी।
प्रवीण जी !मज़ा आ गया इन स्मार्ट बच्चों को पढ़ कर , यह जरूर अपने बाप पर गए हैं ! हा… हा … हा …..हा…..लगता है गैंग लीडर यह छुटकी है !आपको शुभकामनायें !!
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shandar, boss maja aa gaya padhkar, apne din yad ho aaye aur yeh bhi accha laga ki mai kuwara hi bhalaa;)baki ye alag baat hai ki kab tak khair manaa sakta hu…..dar-asal aise anubhav pichhale karib 15 sal se apne bhatijo ko padhate hue leta aa raha hu, ab to yah aalam hai ki jin 4 bhatijo ko aise maine padhaya hai vo khud ab 5vein ki aise hi class lete hain……;)
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हा हा हा हा…..अपने बचपन का और अपने बच्चे के बचपन का ……. बहुत कुछ याद दिला दिया आपके इस प्रविष्टि ने…आनंद आ गया सचमुच……इन सुखद स्मृतियों को समेत कर सहेज कर रख लीजियेगा…कुछ वर्षों बाद बड़े काम आयेंगे….प्यारे नन्हे मुन्ने शैतानों को देख मन सुख से भर गया…इन्हें आशीर्वाद…
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शुक्र है हमारे ये दिन कट गये। सच कहा आप ने बच्चों की परिक्षाएं मतलब माता पिता की परिक्षाएं। फ़िर भी आप बेहतर स्थिति में हैं। हमारे बेटे की नोटबुक्स परिक्षा से दो दिन पहले गुम हो जाती थीं और फ़िर परिक्षा होने के बाद ही पलंग के पीछे गिरी मिलती थीं। मतलब हर परिक्षा पर हमें उनकी पूरे साल की कॉपी फ़िर से बनानी होती थी जब कि वो मैदान में खेल रहे होते थे…:)
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🙂
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हम पति-पत्नी यह लड़ाई संयुक्त प्रयास से लड़ते हैं। वे क्लास-टीचर हैं और मैं हेडमास्टर। मेरे पास तक मामला गम्भीर स्थिति में पहुँचने के बाद आता है। ज्यादातर तनाव श्रीमती जी के मत्थे आता है। प्रायः हेडमास्टर के आने का डर दिखा कर भी काम निकालती हैं।
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P.N. Subramanian जी के बहुत दिनों बाद सुखद दर्शन हुए.
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बच्चों का कोई मुकाबला नहीं कर सकता किसी भी डिपार्टमेन्ट में.
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वाह जी, सभी घरो का ओर सभी बच्चो का यही हाल है,लेकिन यहां नही यहां महीने मै कई टेस्ट हो जाते है, ओर साल के अंत मै उसी के हिसाब से चलता है, लेकिन बचपन याद दिला दिया, क्योकि यह सब तो हम भी करते थे ना 🙂
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हम तो बचे हुए हैं जी शिक्षा विभाग श्रीमति जी को जबरन सौंप रखा है।छोटी कक्षाओं में हैं दोनों बच्चे, तो विद्यालय तो आजकल फेल करते नहीं हैं तो बच्चों की तरफदारी करके पूरा मजा करने देता हूं। वैसे सभी बच्चों के यही बहाने क्यूं होते हैं।प्रणाम
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