पिछली पोस्ट पर प्रशान्त प्रियदर्शी और अन्तर सोहिल ने प्रवीण पाण्डेय की प्रतिक्रिया की अपेक्षा की थी। प्रवीण का पत्र मेरी पत्नीजी के नाम संलग्न है:
आदरणीया भाभीजी,
पहले आपके प्रश्न का उत्तर और उसके बाद ही ट्रैफिक सर्विस की टीस व्यक्त करूँगा।

यह स्वीकार कर के कि सम्प्रति बच्चों को मैं पढ़ा रहा हूँ, मैं अब तक श्रीमती जी द्वारा बच्चों की पढ़ाई पर दिये हुये योगदान के प्रति अपनी कृतज्ञता को छिपाना नहीं चाहता हूँ। पिछले 4 महीनों में स्वयं इस साधारण से समझे जाने काम में पिस कर मेरी कृतज्ञता और भी अभिभूत हो चली है। श्रीमती जी भी घर के कार्य में समुचित ध्यान दे पा रही हैं, बच्चों को भी नयापन भा रहा है और मेरे लिये बालमन से संवाद स्थापित कर पाना उनके प्रति मेरे अनुराग का बहु प्रतीक्षित प्रसाद है।
बच्चों को पढ़ाने बैठता हूँ तो यादों में पिताजी का सुबह सुबह 5 बजे उठा कर पढ़ाने बैठा देना याद आ जाता है। पहले पहाड़े, अंग्रेजी मीनिंग और उसके बाद प्रश्नोत्तर । स्वयं बैठाकर भले ही अधिक न पढ़ाया हो जितना भी ध्यान दिया वह मेरे अस्तित्व की पूर्ण अभिव्यक्ति है। कई बार पिताओं का प्रेम मूर्त रूप में व्यक्त नहीं हो पाता है पर मन में बच्चों के भविष्य का चिन्तन रह रह हिलोरें लेता है।
प्रसन्न हूँ कि समय निकाल पा रहा हूँ और पढ़ा पा रहा हूँ। हो सकता है भविष्य में इतना नियमित न हो पाऊँ या बच्चों की मेधा पिता की शैक्षणिक उपलब्धियों से ऊपर निकल जाये।
8 वर्ष के परिचालन प्रबन्धक के कार्यकाल में मेरी स्थिति, श्रीमती जी के शब्दों में, जुते हुये बैल जैसी रही। आकड़ों को जीत लेने का उन्माद। उन्माद में क्रोध। क्रोध में विवेकहीनता। घर पर ध्यान देने की सुध नहीं। आपका पत्र पढ़कर श्रीमती जी को सन्तोष हुआ कि इस पागलपन की वह अकेली गवाह नहीं हैं।
पद्धति के गुणदोष समझने या समझाने की न मेरी क्षमता है और न मेरा अधिकार। यह दायित्व बुजुर्गों के हाथों सौंप कर हम उस विरासत का अंग बन गये हैं जिसने अपने परिश्रम, लगन और उन्माद से भारतीय रेल को कभी निराश नहीं किया और निर्धारित लक्ष्यों को अनवरत प्राप्त किया।
नयी पीढ़ी को कम्प्यूटरीकरण का लाभ मिला है और उन्हें उतना समय नहीं देना पड़ता है जो आदरणीय ज्ञानदत्तजी के समय में दिया जाता था।
मुझे लगता है नत्तू पांडे जी को तो नाना से पढ़ना ही पड़ेगा।
हाँ, आदरणीय ज्ञानदत्तजी 13 वर्ष पहले, उदयपुर में प्रशिक्षण के समय मेरे प्राध्यापक थे। मुझ बच्चे को तो बहुत अच्छे से पढ़ाया है।
सादर
प्रवीण
Blogger in Draft में The Blogger Template Designer नामक सेवा बड़ी झक्कास है!
प्रवीण जी, पड़ कर मज़ा आ गया और अपने बचपन की बात याद गई. मेरे पापा रेलवे की engineering services में थे और गणित उनका प्रिय विषय था. मेरी गणित मज़बूत करने के चक्कर में मेरी नीव ही हिला दी और मैंने हाई स्कूल के बाद साइंस ही छोड़ दिया. जब वो महीने में एक आध बार मेरी पढाई ख़ास कर गणित की progress देखते और दो चार थप्पड़ रसीद कर देते थे तो मेरे पास केवल एक ही option बचता था कि मैं मन ही मन ये मनाता था कि हे भगवान् कहीं कोई de-railment या accident हो जाए और पापा को वहाँ जाना पड़े. यकीन मानिए कई बार भगवान् ने instant प्रार्थना सुनी थी. retirement के २० साल बाद भी अपनी कई बीमारियों से जूझते हुए आज भी पापा किसी पड़ने वाले बच्चे को देख कर सबसे पहले गणित के बारे में ही पूछते हैं.
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सभी जिम्मेदारियां अपनी जगह. पर अपने राम तो….गंगा गए तो गंगाराम, जमुना गए तो जमुनादास. भले ही सभी परिस्थितियों में यह बात अपवादस्वरूप कड़ाई से लागू न होती हो पर, एक बात जो मैं हमेशा याद रखने की कोशिश करता हूं वह है " I work to live, I'm not living to work.":)बहुत से लोग मुझसे असहमत रहते आए हैं (तो हुआ करें). अपना फंडा क्लीयर रहा है इस बारे में 🙂
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@ पद्धति के गुणदोष समझने या समझाने की न मेरी क्षमता है और न मेरा अधिकार। यह दायित्व बुजुर्गों के हाथों सौंप कर हम उस विरासत का अंग बन गये हैं जिसने अपने परिश्रम, लगन और उन्माद से भारतीय रेल को कभी निराश नहीं किया और निर्धारित लक्ष्यों को अनवरत प्राप्त किया।————— पीढी से सौंपी यह इस अमानत ने तो आजादी ही छीन लिया है ! रेल विभाग हो या कोई अन्यफंसाव ! बछड़े को नाथ तो पहना ही दी जाती है , फिर भला जुतेगा कैसे नहीं ! पढ़ कर सुन्दर लगा ! आभार !
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पिता की कठोरता बड़े होकर ही समझ आती है 🙂
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यह याद आया :……..घर से बहुत दूर है मस्जिद चलो किसी रोते बच्चे को हँसाया जाय क़मबख्त शायर को भी मालूम था कि कठिन काम है यह नहीं तो लिखता:चलो किसी बच्चे को पढ़ाया जाय।
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क्या किया जाए? हमने तो जजों को पढ़ाने का काम चुना वह भी अपनी इच्छा से। इधर मुवक्किलो को ज्यादा समझाना पड़ता है।
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पिता के प्यार की चर्चा करके अपनी संवेदनशीलता जाहिर करदी ! बहुत अच्छा लगा, आपके पिता खुशकिस्मत हैं उन्हें आप जैसा पुत्र मिला अक्सर पिता पुत्र में वास्तविक स्नेह अभिव्यक्ति स्वभावानुसार बेहद कम होती है, भले ही उनमें प्यार कितना ही क्यों न हो !
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हम भी समीर जी की तरह ही चुपचाप आपका वार्तालाप सुन रहे है बिना कुछ कहने की कोशिश के |वैसे ये बच्चो को पढ़ाने वाला कार्य बहुत कठिन है मेरे जैसों के लिए इसलिए कभी कोशिश ही नहीं की | अब बच्चे बड़े हो गए इसलिए मौका मिला तो पोत्रों को पढ़ाने के लिए कोशिश जरुर करूँगा |
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चुपचाप आप लोगों का वार्तालाप सुन रहे हैं…इसमें कुछ भी कहना उचित न होगा.
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हम अनुभवहीन क्या बताएं? हाँ पढ़ाने में आनंद बहुत आता है… बिल्कुल घरेलु उदाहरण देकर. मैं तो किसी को बैठाकर घंटो लेक्चर दे सकता हूँ. आज रात भर यही किया है (आज बच्चे नहीं हमउम्र लोग थे). एक तरीके से पढ़ाया जाय तो बहुत मुश्किल काम नहीं है और सामने वाले को भी इंटरेस्ट आ ही जाएगा. हाँ समय चाहिए. (ये कमेन्ट पिछली पोस्ट पढने के बाद दिमाग में आया था). जुते हुए बैल के बारे में क्या कहें ! क्या मौका मिलते ही तुड़ा कर भागने का मन नहीं करता? आज मेरे दोस्त ने पूछा 'तुम कभी सोचते नहीं हो ये क्या कर रहे हो? जीवन में क्या करना है?' मैंने पूछा तुम? बोले 'चलो दरोगा बनते हैं, बुलेट से चलेंगे ! ये कम्पूटर और सिमुलेशन सब मोह माया है कब तक लगे रहोगे इसमें ! ' ऐसे दो चार दोस्त और पोस्ट मिली तो तुड़ा कर भाग जाऊँगा किसी दिन 🙂 भले दरोगा बनूँ या नहीं.
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