घर से बाहर निकलते ही उष्ट्रराज पांड़े मिल गये। हनुमान मन्दिर के संहजन की पत्तियां खा रहे थे। उनका फोटो लेते समय एक राह चलते ने नसीहत दी – जरा संभल कर। ऊंट बिगड़ता है तो सीधे गरदन पकड़ता है।
बाद में यही उष्ट्रराज गंगाजी की धारा पैदल चल कर पार करते दीखे। बड़ी तेजी से नदी पर उग आये द्वीपों को पार करते गये। टापुओं पर लौकी खूब उतरने लगी है। उसका परिवहन करने में इनका उपयोग हो रहा है।
गंगा की धारा में पैदल आते-जाते लोग
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किनारे नाव लगा लौकी उतारता परिवार
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लौकिंयां उतर चुकीं।
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लड़के के पीछे नदी पार करता कलुआ कुकुर
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धारा इतनी नीची हो गयी है गंगामाई की कि दो लोगों को जांघों तक पानी में हिल कर पूरी चौड़ाई पार करते देखा। एक कुत्ता भी लड़के के पीछे पीछे उस पार से इस पार आ गया। पास आया तो देखा कि शिव मन्दिर के पुजारी लोगों का कलुआ था।
शंकर-हनुमान और शिवकुटी के लोगों के लिये गंगामाई घर का अहाता सरीखी हैं। कोई भी वहां पंहुच गया, कोई वापस आ गया!
लोग आरपार पैदल आ जा ले रहे हैं पर सब्जी-भाजी लाने और खाद आदि ले जाने के लिये नाव या ऊंट ही काम आ रहे हैं। एक आदमी का पूरा परिवार नाव से लौकी लाद कर इस किनारे लौटा। आदमी-औरत और पांच बच्चे। मेरी पत्नीजी का कहना है कि सारे बच्चे उन दोनो के नहीं रहे होंगे। लग भी सब हम उम्र रहे थे। सब अलग अलग संबोधन दे रहे थे उन वयस्कों को।
किनारे पर बोरियां बिछा कर उन सबने लौकियां उतारीं। उसके बाद आदमी ने बीड़ी सुलगाई। फिर जाने किस बात पर अपनी पत्नी को पारिवारिक भाषा में गरियाने लगा!
आदमी शायद एक ट्रिप और लगा कर बाकी लौकियां लाना और नहाना चाहता था, पर पत्नी का विचार कुछ अलग था। स्थानीय बोली में दक्ष न होने का घाटा यह है कि आप पूरी बात समझ नहीं पाते!
औरत पतली छरहरी और सुन्दर थी। लाल रंग की साड़ी पहने थी। आदमी भी उसकी उम्र का होगा पर शायद मेहनत, दारू और तंबाकू के व्यसन ने उसे समय से पहले खलियाना शुरू कर दिया था। वह बनियान और नेकर पहने था। उनकी फोटो हम ले चुके थे। वहां से सटक लेने का समय हो गया था।
कुछ शरारती बच्चों ने किसी पेड़ का लठ्ठा गंगा में गिराया। जब वह तैरने लगा तो उनमें से एक प्रसन्न हो कर हाथ नचाने लगा – टैरट बा हो (तैर रहा है जी)! मेरी पत्नी जी लठ्ठे को सम्बोधन कर कहने लगीं – जा, दारागंज जा!
गंगाजी की धारा सचमुच में इतनी पतली हो गई। जानकर अच्छा नहीं लगा।आपके चित्र अत्यन्त आकर्षक होते हैं।
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शंकर-हनुमान और शिवकुटी के लोगों के लिये गंगामाई घर का अहाता सरीखी हैं। कोई भी वहां पंहुच गया, कोई वापस आ गया!धन्य हैं शंकर-हनुमान और शिवकुटी के लोग!
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आपकी इस पोस्ट में कुछ अन्य पुरानी पोस्टों की तरह गंगामाई की चिंता तो है ही,साथ ही लौकी और 'पतली छरहरी और सुन्दर' औरत के प्रति रुझान भी झलकता है.
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गंगाजी और हरी ताजी लौकी…ओह्ह्ह,मन प्रसन्न हो गया…बहुत सुन्दर पोस्ट…
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Hello sir…i did my education from MNNIT allahabad….ur blog reminded me of those magical days of teliarganj, ganga kinara…. :)..do more right about allahabad
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बहुत रोचक वर्णन है यह ।
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लौकी की तो अपने को दो ही चीज़ें पसंद हैं – बर्फ़ी और कोफ़्ते! 🙂
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अब सभी लोकी लोकी लिख रहे है तो मुझे लगा मुझे तरसा रहे है, अरे बाबा चार साल मै एक बार कभी लोकी मिल जाये तो हम धन्य समझते है अपने को, ओर आप ने तो लोकियो का ढेर ही दिखा दिया, ओर हां फ़ोटू बहुत छोटे है,हो सके तो द्स बारह लोकियां हमे भेज दे…:) गंगा किनारे वालीजा, दारागंज जा! लठ्ठ दारा गंज पहुचा कि नही???
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हमारे यहा तो पालेज अभी तैयार ही नही हुयी . किसानो ने जब लगाई थी तब रामगंगा मे जल बड गया और मेहनत डूब गयी दुबारा फ़िर लगायी है .
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उसके बाद आदमी ने बीड़ी सुलगाई। फिर जाने किस बात पर अपनी पत्नी को पारिवारिक भाषा में गरियाने लगा!आपके रिपोर्टिंग का अन्दाज निराला है.
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