यह प्रवीण पाण्डेय की बुधवासरीय अतिथि पोस्ट है। एक सामान्य घरेलू स्थिति से दर्शन में कैसे उतरा जाता है, वह प्रवीण से सीखने योग्य है:
बच्चों की परीक्षायें समाप्त हुयीं और घर के वातावरण का उत्सवीकरण हो गया। अब युद्धक्षेत्र से लौटे विजयी (लगता तो है) योद्धाओं को उपहार चाहिये। निश्चय हुआ कि पहले वसुधैव कुटुम्बकम् को चरित्रार्थ करते हुये डोमिनो(अमेरिकन) में पिज्जा(इटेलियन) बिना छुरी-काँटा(भारतीय) उड़ाया जायेगा। यहाँ पर छुरी-काँटे का जुझारु उपयोग देखकर या कॉस्ट कटिंग के चलते यह सुविधा डोमिनो ने हटा ली है।
बाबा रामदेव जी का समुचित सम्मान घर में है पर माह में एक दिन हमारी सोच वैश्विक स्तर की हो जाती है।
हमारे आधे से अधिक दुखों का कारण विकल्पों की उपस्थिति ही है। इस नहीं, उस नौकरी में होते, काश विवाह न करते या करते तो…..। अच्छे निर्णय लेने के लिये ज्ञान चाहिये, अनुभव चाहिये, समय काल की पहचान चाहिये, उचित परामर्श चाहिये, निष्कपट परामर्शदाता चाहिये, भले-बुरे की पहचान चाहिये। इतना सब हो तो हम देवत्व को प्राप्त हो जायेंगे।
तृप्तमना बच्चे जब बाहर निकले तो लगा कि अपने आने का प्राथमिक उद्देश्य भूल गये होंगे और हम घर की ओर चल दिये। पर हमारी आकलित प्रसन्नता 5 मिनटीय ही रही। "खिलौने" सहसा उठी बिटिया की चीख हमारी चतुरता और छलनात्मक प्रवृत्ति को तार तार करती हुयी हृदय में समा गयी और हम दशरथीय ग्लानि भाव से पीड़ित हो स्वयं को अब रामभरोसे मान कर चुपचाप खिलौनों की बड़ी सी दुकान पहुँच गये।
यह अच्छी बात थी कि बहुत दिनों से खिलौनों से दूर रहने से उनका सामान्य ज्ञान इस विषय में अपडेटेड नहीं था। यह समय पर्याप्त था सम्हलने के लिये और हम भी बिना माँगे ही इस विषय पर परामर्श देते हुये अपने रगड़ खाये इम्प्रेशन को सुधारने में लग गये। बिटिया साड़ी पहनी बार्बी से संतुष्ट हो गयी। बालक के लिये परामर्श प्रक्रिया की परणिति दो खिलौनों पर हुयी। जब भी विकल्प की स्थिति हो तो परामर्श में ज्ञान की अधिकता निष्कर्ष तक पहुँचने में सहायक होती है। यह सोच कर बालक के अनुभवजन्य ज्ञान को अपने पुस्तकीय ज्ञान से लाद दिये। बालक किंकर्तव्यविमूढ़ हो अन्ततः निर्णय का अधिकार हमें दे बैठा।
खिलौना घर आ गया, बालक प्रसन्न भी है पर विकल्प का यह रूप चिन्तन प्रक्रिया छेड़ गया।
विकल्प तोड़ता है। विकल्प की स्थिति में आप निर्णय लेने के लिये बाध्य होंगे। निर्णय यदि ठीक नहीं हुये तो मन में कहीं न कहीं गहरी टीस छोड़ जायेंगे। भविष्य किसने देखा है पर निर्णय तो वर्तमान में लेना होता है। कितना ही अच्छा होता कि जीवन में कहीं कोई विकल्प ही न होता। निर्णयों की पीड़ा आत्मा को कचोटती न रहती। हमारे आधे से अधिक दुखों का कारण विकल्पों की उपस्थिति ही है। इस नहीं, उस नौकरी में होते, काश विवाह न करते या करते तो…..। अच्छे निर्णय लेने के लिये ज्ञान चाहिये, अनुभव चाहिये, समय काल की पहचान चाहिये, उचित परामर्श चाहिये, निष्कपट परामर्शदाता चाहिये, भले-बुरे की पहचान चाहिये। इतना सब हो तो हम देवत्व को प्राप्त हो जायेंगे।
निर्णय की सुविधा मानवीय स्तर पर ईश्वरत्व का अंश है। पेड़ और पशुओं की यह सुविधा या तो नहीं दी गयी है या बहुत ही सीमित है। यह मानवीय विशेषाधिकार है। जहाँ ईश्वर ने निर्णय लेने का अधिकार दिया है वहीं दुनिया को ऐसे विकल्पों से भर दिया है जो आपके निर्णयों की समुचित परीक्षा लेते रहेंगे।
अतः ईश्वर रचित, विकल्पों से भरी दुनिया में निर्णय-निर्णय का खेल खेलिये । यदि खेल बिगड़ जाये तो खेल समझकर भूल जाइये। पर खेलते रहिये, खेलना सीखते रहिये और मानवीय अधिकारों का आनन्द उठाते रहिये।
इंद्र कुमार जी की ई-मेल से प्राप्त टिप्पणी – विकल्प के आते ही संकल्प एक बार तो हिल ही जाता है……. आपने बेटे को decision नहीं लेने दिया शायद अपनी पाकेट की वजह से. खैर घबराए नहीं अभी तो परीक्षा ख़त्म हुई है रिजल्ट के बाद के लिए भी तैयार रहिये :-))
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विकल्पों की अधिकता दुविधा और असुविधा ही अधिक देती है …ऐसे समय में जब कि ब्लॉगजगत लिव इन रिलेशनशिप पर विचारों का अखाडा बना हुआ है …एक बहुत ही सुलझा हुआ जवाब है …@ अमरेन्द्र की टिप्पणी भी गौर करने लायक है …
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मुझे तो लगता है विकल्पों की अधिकता दुविधा असुविधा ही अधिक देती है…
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विकल्प ही नियति या भाग्य के ऊपर कर्म को प्रधानता दिलाते हैं। विकल्प का चुनाव करने के लिए ही ज्ञान, विवेक, बुद्धि सब उपादान हैं परन्तु अन्तिम और प्रथम है आस्था। जैसी आस्था, जैसी निष्ठा, वैसी ही बात समझ में आती है,अन्य को हम चाहते हुए भी स्वीकारते नहीं, भले ही स्पष्ट नकार भी न हो।यह और बात है कि बहुत से छोटे-छोटे आज के विकल्प किन्हीं पहले चुने गए विकल्पों की स्वाभाविक तर्कपूर्ण परिणति मात्र लगते हैं।अच्छा है इस श्रृंखला का विकल्पों के रूप में स्वाधीन सोच बख़्शना…लगे रहिए…
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@ खिलौना घर आ गया, बालक प्रसन्न भी है पर विकल्प का यह रूप चिन्तन प्रक्रिया छेड़ गया।………….. यही बचपन ही बढियां है ..'' हमें दिमाग कहाँ हुस्न के तकाजे का '' ! बचपन ही बढियां …… क्यों न इसी को पसार दिया जाय ताउम्र !
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sochne ko bahut kuchh de gai aapki yah post,jaise ki pahle to yahi ki vivah kare ya nahi, isi mudde pe latke rahein…..;)
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विकल्प केवल व्याकरण में ही रह गए हैं। बाकी तो सब विकल्प का भ्रम ही है और सुखद जीवन जीने के लिए भ्रम आवश्यक है। भ्रम का कोई विकल्प नहीं।
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काश विवाह न करते या करते तो….. तो सोचते काश विवाह ही कर लेते…. बहुत सुंदर जी, पिज्जे के चक्कर मै हम तो चुप ही रहे… जेसे भी खाना खाओ
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जय हो -बढ़िया चल रहा है.
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आलेख संदेश देता है कि जीवन के विकल्प वाले मुद्दों पर जरा सी भूल जिंदगी भर की सजा का कारण बन सकती है । अतः विकल्पों पर सजग और गंभीर रहना बेहद जरूरी है ।
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