लम्बे समय से मैने टेलीवीजन देखना बन्द कर रखा है। मैं फिल्म या सीरियल की कमी महसूस नहीं करता। पर कुछ दिन पहले सवेरे जब मैं अपनी मालगाड़ियों की पोजीशन ले रहा था तो मुझे बताया गया कि दादरी के पास लोग ट्रैक पर आ गये हैं और दोनो ओर से ट्रेन यातायात ठप है। पूछने पर बताया कि समाजवादी पार्टी वाले मंहगाई के विरोध में भारत बन्द कर रहे हैं।
समाजवादी पार्टी वाले भारत बन्द? समझ नहीं आया। पर कुछ ही देर बाद समझ आ गया जब जगह जगह से ट्रेने रुकने के समाचार आने लगे। उस दिन हमारा लगभग १०-१५ प्रतिशत मालगाड़ी का यातायात अवरुद्ध रहा। मामला मात्र समाजवादी पार्टी का नहीं, वृहत विपक्ष के भारत बन्द का था। कुछ जगह तो प्रतीकात्मक रूप से फोटो खिंचा कर लोग ट्रैक से हट गये, पर कहीं कहीं अवरोध लम्बा चला।
खैर यह सब तो आपके संज्ञान में होगा। पर जो मेरे संज्ञान में नहीं था, वह यह कि भारत बन्द नाम की व्यापक कवायद होने जा रही थी। “ऐसे में हमारा कण्टिंजेंसी प्लान क्या होता है?” – हमारे महाप्रबन्धक महोदय ने पूछा, और हमने यही समझा था कि “इन्तजार करो” सबसे बेहतर कण्टिंजेंसी प्लान है। लोग ज्यादातर ट्रैक पर फोटो खिंचाने आते हैं और स्थानीय प्रशासन कोई सख्ती करता ही नहीं!
खैर, खबर की जागरूकता के लिये केवल इण्टरनेट पर निर्भर करना शायद सही नहीं था। मुझे लगता है कि टेलीवीजन नामक बुद्धू बक्से को सरासर नकार कर मैने अच्छा नहीं किया है।
वैसे भी यह देख रहा हूं कि इण्टरनेट पर निर्भरता से व्यक्तित्व एक पक्षीय होता जाता है। आपके बुकमार्क या फीडरीडर से वह गायब होने लगता है जो आपकी विचारधारा से मेल नहीं खाता। आप बहुत ज्यादा वही होने लगते हैं जो आप हैं। पता नहीं, आप इससे सहमत हैं, या नहीं। मेरे विचार से आपके असहमत होने के चांस तब ज्यादा हैं, जब आप इस माध्यम से अधिक हाल में प्रयोगधर्मी बने हों। अन्यथा पुस्तक-अखबार-पत्रिकाओं और टेलीवीजन की बजाय मात्र इण्टर्नेट पर लम्बे समय से निर्भरता आपको वैचारिक संकुचन और एकपक्षीय बनने की ओर अग्रसर करती है।
वैसे, एक बार पुनर्विचार करने पर लगता है कि एक पक्षीय व्यक्तित्व की सम्भावना टालने के लिये टेलीवीजन से भी बेहतर है रेडियो ब्रॉडकास्ट पर खबर के लिये निर्भरता बढ़ाना। एक सही मिक्स में आकाशवाणी और बीबीसी सुनना। — यूनुस जरूर अपने कॉलर ऊंचे कर रहे होंगे!
बुध्दू बक्सा तो खबर को या तो कबर बना कर या ऐसे रंगारंग बनाकर बेचता है कि हमें तो इन्टरनेट ही सही लगता है ।
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पञ्च लोग तो सब भाख गए अब हम का अलग बोलेंगे !
पर मुडवारी रेडियो रखने की गाँव वाली आदत आजौ
बदस्तूर बनाये हैं हम !
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चलो, शहर अच्छी आदतें लील नहीं पाया है!
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रीडर की फीड अपने जैसे लोगों पर कन्वर्ज हो जाती है इसमें कोई शक नहीं. पर जब लोग मुझसे पूछते हैं… ‘ये वाला लिंक पढ़ा कि नहीं?’ पढ़ा तो बताओ कैसा और क्या सोचते हो… नहीं तो वो उस लिंक के बारे में बताते हैं फिर पूछते हैं. वैसे तो ये कम ही होता है पर मैं मानता हूँ कि ऐसा भी होता है. अगर आपके जानने वाले नेट पर एक्टिव हैं तो फिर वो आपको अपडेट करते ही रहते हैं…. उनके पक्ष से भी. तो संगति का असर इन्टरनेट पर भी है !
वैसे तो कुछ लोगों के बज म्यूट करना चालु कर दिया है मैंने और फीड्स भी सबकी नहीं देखता. एक समय था जब रीडर में वही लोग थे जिनकी पोस्ट पढ़ी ही जाती. बज़ आने के बाद बहुत बकवास फीड्स भी आने लगी हैं रीडर में. किसी को अन्सब्स्क्राइब करने से बेहतर इग्नोर करना लगता है… खैर वो अलग कहानी है.
वैसे टीवी पर भी एक पक्षीय वाली बात दिखती है कभी-कभार देख लेता हूँ तो उसमें भी एक पैटर्न दिखता है… चैनल वाले भी अपना पक्ष ही रखते हैं. डिबेट में स्पष्ट दिखता है कौन क्या कहवाना चाह रहा है !
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इस लिंक पर जा कर पीडीएफ़ फाइल देखने योग्य है!
http://papers.ssrn.com/sol3/papers.cfm?abstract_id=1588920
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एक अनुरोध है कि अपने साइडबार में हाल की पोस्टों का लिंक शामिल कर दें, जिससे पिछले लेखों पर सीधे जाना संभव हो सके.
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ठीक है, करता हूं।
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मैं इस मामले में आप से सहमत नहीं हूँ. इंटरनेट पर सूचनाओं, जानकारियों का बेरोकटोक प्रवाह है, आप जो चाहें, चुन सकते हैं. ये आपके ऊपर है. मैंने देखा है कि जो लोग असल ज़िन्दगी में विपरीत विचारधारा के प्रति सहिष्णु नहीं होते, वे इंटरनेट पर भी यही करते हैं, सिर्फ़ अपनी पसन्द की चीज़ें पढ़ना और उसी पर टिप्पणी करना. लेकिन मैं ऐसा नहीं करती. मैं कभी-कभी यूँ भटकती रहती हूँ और उनलोगों को भी पढ़ती हूँ, जिनके विचार मुझसे बिल्कुल मेल नहीं खाते. ऐसी साइट पर भी जाती हूँ, जिनसे सिद्धांततः मेरी असहमति है. इससे सोचने और स्वीकार करने का दायरा बढ़ता है. मैं सीरियल भी देखती हूँ, जिससे पता चले कि आजकल कैसा ट्रेण्ड है इन सबका और समाचार चैनल भी देखती हूँ.
समाचारों के मामले में मेरी सीमित पसंद है. मैं बीबीसी, डी.डी. न्यूज़ और सी.एन.एन. देखती हूँ. पहले आकाशवाणी के पौने नौ बजे वाले समाचार नियमित सुनती थी, पर लगभग छः महीने से रेडियो खराब है.
मुझे लगता है कि मेरे जैसे और लोग भी हैं. बात यह है कि यदि हम वास्तविक जीवन में अपने से अलग विचारों के प्रति सहिष्णु होंगे तो अन्तर्जाल पर भी होंगे नहीं तो नहीं होंगे.
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Order.. Order !
My Commenting capabilities are sent from straight sensibility to
indefinite acceptibily remand !
Hence comments are adjourned for now !
Lot of pending posts, Proceed to next post, please !
Is there any provision of smiely ?
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Corrigendum
Please Read :
” straight sensibility ” as straight sensibility custody.
Thanks !
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Is there any provision of smiely ?
No one can put a smile on your face. It would be like putting words in your mouth! 🙂
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प्रत्येक माध्यम व उसके कंटेंट की अपनी-अपनी उवयोगिता/प्राथमिकता है, अलग-अलग लोगों के लिए.
मेरे लिए, घर पर कंप्यूटर पर काम करते समय, पीठ पीछे टी.वी. पर समाचार के अलावा कुछ भी चलते रहना ज़रूरी है (पहले इसकी जगह रेडियो था). यह शायद संगीतकार के लिए पार्श्व में बजने वाले सितार के रिश्ते का सा आभास है. जबकि आफ़िस में, टी.वी. की आवाज़ बंद रहती है और visual pollution न देने वाला कोई भी एक चैनल पूरा दिन चलता रहता है. अलबत्ता ख़बरें पढ़ने के लिए इंटरनेट ज़्यादा ठीक लगता है क्योंकि इसमें समय बर्बाद करने वाले उद् घोषकों व चिल्लाने वाले बेहूदे रिपोर्टरों से पीछा छूट जाता है. यात्रा में भी प्राथमिकता रेडियो (एफ. एम. के अतिरिक्त) की ही रहती है.
इस बात से सहमत हूं कि माध्यम के यूं सिलेक्शन से स्वांतसुखाय एकरसता का भय ज़रूर बना रहता है.
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इण्टरनेट एक औजार के रूप में नायाब है – कोई शक नहीं; पर औजार आपकी व्यक्तित्व की सीमायें समेटने लगे – वह मान्य नहीं। मेरा यही कहना है।
व्यक्ति के रूप में अपने को बनाने निखारने में सभी साधनो का स्वेच्छानुसार प्रयोग होना चाहिये और सामयिक समीक्षा के साथ।
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वैसे भी यह देख रहा हूं कि इण्टरनेट पर निर्भरता से व्यक्तित्व एक पक्षीय होता जाता है। आपके बुकमार्क या फीडरीडर से वह गायब होने लगता है जो आपकी विचारधारा से मेल नहीं खाता। आप बहुत ज्यादा वही होने लगते हैं जो आप हैं।
-मान इसलिए लेते है कि मैं खुद को बदलने की चाह भी नहीं पाले हूँ. मैं बदलने से ज्यादा सामन्जस्य बैठाने(इसमें नजर अंदाजी भी एक पैंतरा है विरोध के बदले) का पक्षधर रहा हूँ, जो कि बिना बदले भी आराम से हो जाता है. टीवी तो देखता नहीं मगर पत्नी देखती रहती हैं बाजी में बैठे तो उसके चलने को नकारता भी नहीं अतः जरुरी बातें, जो सुनना और देखना चाहता हूँ कान और आंख की मिचमिचाहट के बीच दर्ज हो ही जाती हैं.
विचारणीय आलेख है..अच्छा लगा पढ़कर.
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Aha! another contrarian comment!
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विचारणीय आलेख है..अच्छा लगा पढ़कर
contrarian comment?????
🙂
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The change is the key, you say it is सामन्जस्य! That is Contrarian!
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Internet has made the world worth living . Specially for females it’s a boon. Here she can keep her views honestly and fearlessly. Internet has opened many avenues for a common man. Getting information in any sphere has become easy. Everything is just a click away. Internet has helped boosting confidence in a person and also a person achieves a perfect balance in real and virtual world.
I am thankful to technology and glad for Internet.
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Aha! I was waiting for a contrarian comment!
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@ पुस्तक-अखबार-पत्रिकाओं और टेलीवीजन की बजाय मात्र इण्टर्नेट पर लम्बे समय से निर्भरता आपको वैचारिक संकुचन और एकपक्षीय बनने की ओर अग्रसर करती है।
— अपसे शत-प्रतिशत सहमत हूं। कुछ ऐसा ही महसूस कर रहा हूं।
— किचन में ट्रांजिस्टर है जिस पर एफ़.एम. बजता रहता है। गाड़ी में तो बजता ही है। बीच-बीच में न्यूज़ अपडेट भी मिलता रहता है। एक दिन दफ़्तर से घर आ रहा था तो एफ़.एम. से ही आइला की जानकारी मिली थी, तब पता लगा कि जाम में नहीं आइला में फंसे हैं।
हां, गांव में अब भी बड़े भाई बी.बी.सी. और प्रादेशिक समाचार पर निर्भर हैं।
— पर यदि ईंटरनेट न होता तो शायद आप ऐसा मित्र (मेरी तरफ़ से ही सही) नहीं पाता !
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शायद आप ऐसा मित्र (मेरी तरफ़ से ही सही) नहीं पाता !
नहीं-नहीं। मैत्री तो परस्पर होती है मनोज जी।
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तो चलिए, परस्पर आदान-प्रदान का माध्यम तो है ही .. इंटरनेट!
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