मेरे दोनो अखबार – बिजनेस स्टेण्डर्ड और इण्डियन एक्स्प्रेस बड़ी हेडलाइन दे रहे हैं कि सरकार को 3जी की नीलामी में छप्परफाड (उनके शब्द – Windfall और Bonanza) कमाई हुई है।
तीन दशक पहले – जब मैं जूनियर अफसर था तो १५० लोगों के दफ्तर में पांच-सात फोन थे। उनमें से एक में एसटीडी थी। घर में फोन नहीं था। पीसीओ बूथ भी नहीं थे। अब मेरे घर में लैण्डलाइन और मोबाइल मिला कर सात-आठ फोन हैं। सभी लोकल और दूर-कॉल में सक्षम। हाल ही में रेलवे ने एक अतिरिक्त सिमकार्ड दिया है। इसके अलावा हमारे भृत्य के पास अलग से दो मोबाइल हैं।
संचार तकनीक में कितना जबरदस्त परिवर्तन है इन दशकों में! कितनी बेहतर हो गयी हैं कम्यूनिकेशन सुविधायें।
और एक स्पेक्ट्रम की संचार सेवा की नीलामी से ६७,००० करोड़ की कमाई! कितनी क्षमता है सर्विस सेक्टर की अन-वाइण्डिंग में। (वैसे यह भी लगता है कि जोश जोश में नीलामी में घणे पैसे दे दिये हैं कम्पनियों ने और ऐसा न हो कि मामला फिसड्डी हो जाये सेवा प्रदान करने में! नॉलेज ह्वार्टन का यह लेख पढ़ें।)
पर मैं बिजली की दशा देखता हूं। गीगाहर्ट्ज से पचास हर्ट्ज (संचार की फ्रीक्वेंसी से विद्युत की फ्रीक्वेंसी पर आने) में इतना परिवर्तन है कि जहां देखो वहां किल्लत। लूट और कंटिया फंसाऊ चोरी! यह शायद इस लिये कि कोई प्रतिस्पर्धा नहीं। आपके पास यह विकल्प नहीं है कि राज्य बिजली बोर्ड अगर ठीक से बिजली नहीं दे रहा तो टाटा या भारती या अ.ब.स. से बिजली ले पायें। लिहाजा आप सड़ल्ली सेवा पाने को अभिशप्त हैं। मैने पढ़ा नहीं है कि इलेक्ट्रिसिटी एक्ट एक मुक्त स्पर्धा की दशा का विजन रखता है या नहीं। पर अगर विद्युत सेवा में भी सरकार को कमाई करनी है और सेवायें बेहतर करनी हैं तो संचार क्षेत्र जैसा कुछ होना होगा।
आप कह सकते हैं कि वैसा रेल के बारे में भी होना चाहिये। शायद वह कहना सही हो – यद्यपि मेरा आकलन है कि रेल सेवा, बिजली की सेवा से कहीं बेहतर दशा में है फिलहाल!
यह पोस्ट कच्चे विचारों का सीधे पोस्ट में रूपान्तरण का परिणाम है। निश्चय ही उसमें हिन्दी के वाक्यों में अंग्रेजी के शब्द ज्यादा ही छिटके हैं। यदा कदा ऐसा होता है।
कदी कदी हिन्दी दी सेवा नहीं भी होन्दी!
चर्चायन – मसि-कागद के नाम से डा. चन्द्रकुमार जैन का ब्लॉग था/है, जिसमें साल भर से नई पोस्ट नहीं है। उसी नाम से नया ब्लॉग श्री दीपक “मशाल” जी का है। बहुत बढ़िया। अधिकतर लघु कथायें हैं। बहुत अच्छी। आप देखें। दीपक जी लिखते बहुत बढ़िया हैं, पर अपने चित्रों से भी आत्म-मुग्ध नजर आते हैं। हम भी होते अगर हमारा थोबड़ा उतना हैण्डसम होता! 🙂 ।
आपने 50 हर्त्ज की आज की सड़ेली बिजली सेवा के बारे में बात कर हमारी दुखती रग को जैसे दबा दिया.जब हमने विद्युत मंडल की नौकरी चुनी थी, तब यह सर्वोत्तम प्रबंधित और हाईली पेड सर्विस थी. इसके सरप्लस फंड का इस्तेमाल कई दफा राज्य सरकारों ने भी किया था, और अब हालात ये हैं कि पिछले महीने इसके पास हम जैसे पेंशनरों को पेंशन देने के लिए भी इसके पास पैसे नहीं थे.नब्बे के दशक के वोटों के गणित, मुफ़्त बिजली, बिल माफी, कंटिया फँसाऊ राजनीति के साथ भ्रष्ट अफ़सरशाही, अ-दूरदर्शी नीति और राजनीति की घनघोर घुसपैठ ने विद्युतमंडल को पंचर ही नहीं, पूरी तरह से बर्स्ट कर दिया.रहा सवाल संचार कंपनियों का तो यह तो आपको भी पता है कि एक मर्तबा इन्फ्रास्ट्रक्चर डाल लेने के बाद उनका इनपुट में कोई खर्चा नहीं है, बस फायदा उठाते जाओ. बिजली बनाने बेचने की निजी कंपनियों को इजाजत तो अब है, मगर इनपुट 'तेल-कोयला-पानी' कहाँ है?सार यह कि बिजली की स्थिति तो भारत में, सदा-सर्वदा किल्लत युक्त ही बनी रहनी है!
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@8326608788024950670.0निजीकरण लाभप्रद है जब कम्पनियां/स्पर्धा स्तरीय हो और लोकल माफिया की दखलन्दाजी न हो! 🙂
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ट्रेन कम से कम देर सबेर पहुंचा तो देती है और बिजली तो इतनी कम किमोबाइल भी चार्ज नहीं हो पाता कभी – कभी .. अक्सर पढ़ाई के समय गुल रहती है लाईट ! .. गाँव में मोटर वाले निराश रहते हैं और इंजन वालों से खेत सिंचवाते हैं .. रेलवे बेहतर !
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विद्युत का निजीकरण हो जाये तो सचमुच सारी समस्यायें हल हो जायें. ज्ञान जी, तीन दशक पहले की बात तो मुझे भी याद है, लेकिन उस वक्त एसटीडी सेवा कहां होती थी? मुझे याद है, फोन करना हो तो पोस्ट ऑफ़िस या किसी फोन धारक के घर जाना पड़ता था, और वहां से ट्रंक कॉल बुक की जाती थी, बाद में दूरसंचार वाले ही लाइन मिल जाने की सूचना देकर बात करवाते थे.
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रेल सेवा, बिजली की सेवा से कहीं बेहतर दशा में है फिलहाल!…. फ़िलहाल तो अंडमान में रेल सेवा का अस्तित्व ही नहीं है, बिजली जरुर है.____________________'शब्द-शिखर' पर ब्लागिंग का 'जलजला'..जरा सोचिये !!
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