मेला फिर लगेगा। अभी तड़के देखा – तिकोनिया पार्क में झूला लगने लगा है। लगाने वाले अपने तम्बू में लम्बी ताने थे। कल से गहमागहमी होगी दो दिन। सालाना की गहमागहमी।
अनरसा, गुलगुला, नानखटाई, चाट, पिपिहरी, गुब्बारा, चौका, बेलन, चाकू से ले कर सस्तौआ आरती और फिल्मी गीतों की किताबें – सब मिलेगा। मन्दिर में नई चप्पलें गायब होंगी और भीड़ की चेंचामेची में जेबें कटेंगी।
जवान लोग मौका पा छोरियों को हल्के से धकिया-कोहनिया सकेंगे। थोड़ा रिक्स रहेगा पिटने का! पर क्या!? मेला तो है ही मेल की जगह। थोड़ा रिक्स तो लेना ही होगा!
majaa aa gaya padhkar, mela kahi ka bhi ho bas mela hi hota hai. apne shahar ke paas wale mele ka ullekh maine bapy wali post me kiya tha ki kaise us mele me bapy ki kya gat bani thi.sach kahu to post se jyada comments aur us par bhi aapki aur amarendra jee ki chuhalbaji me majaa aaya…
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लगभग दो महीनों के बाद ब्लॉग देखना/पढना शुरु किया।आपकी यह पोस्ट तो बहुत ही सरल-सहज है। एक बार पढने में ही समझ तें आ जाती है। लगता ही नहीं कि यह आपने ही लिखी है।ऐसी 'अभिधा पोस्ट' के लिए मुझ जैसे तमाम 'कमसमझ' लोगों की ओर से धन्यवाद।इसी प्रकार हम लोगों का ध्यान रखिएगा।
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@ हम त कहे रहे साहित्त से कि हमसे एक कोस दूर रह्यअ! ई कहां से चला आइ हम जैसे खर्बोटहा मनई के लग्गे!ऊ यक कबित्त कै यक लाइन है -''काजर की कोठरी में कैसहूँ सयानो जाय ,एक लीक काजर की लागिहैं पै लागिहैं ! '' — बांग्मय की किसन-कोठरिया में दाखिल केहू करिया हुवे से नाय बचा पावा , मनई चाहे खर्बोटहा हुवे चाहे उग्गर !
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पोस्ट पढ़कर मेले की याद आ रही है …फोटो बहुत सुन्दर लगाए है ….आभार
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मेले का यह सजीव सचित्र वर्णन बड़ा ही सुरुचिपूर्ण लगा…
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वाह मेले का क्या "सटीक" डिस्क्रिपसन दिए हैं आप! पढ़कर मजा आ गया 🙂
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