वैसे घूमना सड़क पर कम होता है, मन में ज्यादा। गंगा आकर्षित करती हैं पर घाट पर उतरना वर्जित है मेरे लिये। यूं भी नदी के बारे में बहुत लिख चुका। कि नहीं?
लिख शब्द लिखते ही मन में जोर का ठहाका लगता है। तुम कब से लेखक बन गये पण्डित ज्ञानदत्त पांड़े! ऊबड़-खाबड़ शब्दों का असॉर्टमेण्ट और अपने को मिखाइल शोलोखोव से सटा रहे हो!
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मेरा परिवेश |
खैर मन में जो घूमना होता है, उसमें देखता हूं कि यहां शिवकुटी में मेरे घर के आस-पास संस्कृति और इतिहास बिखरा पड़ा है, धूल खा रहा है, विलुप्त हो रहा है। गांव से शहर बनने के परिवर्तन की भदेसी चाल का असुर लील ले जायेगा इसे दो-तीन दशकों में। मर जायेगा शिवकुटी। बचेंगे तबेले, बेतरतीब मकान, ऐंचाताना दुकानें और संस्कारहीन लोग।
मैं किताब लिख कर इस मृतप्राय इतिहास को स्मृतिबद्ध तो नहीं कर सकता, पर बतौर ब्लॉगर इसे ऊबड़खाबड़ दस्तावेज की शक्ल दे सकता हूं। बहुत आत्मविश्वास नहीं है – इतिहास कैसे उकेरा जा सकता है पोस्ट में? इतिहास या समाजशास्त्र का कखग भी नहीं जानता। सुब्रह्मण्यम जी का ब्लॉग मल्हार शायद सहायक हो। देखता हूं!
पहले खुद तो जान लूं शिवकुटी की संस्कृति और इतिहास। देखता हूं कौन मूल निवासी है शिवकुटी का जो बतायेगा।
ब्लॉग लेखन भी लेखन का ही हिस्सा है.
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आप भाग्यशाली हैं।आप गँगा तट पर शिवकुटी जैसी जगह पर रहते हैं, जिसका इतिहास से कोई संबन्ध है।हम यदि किसी जगह की इतिहास के बारे में लिखना भी चाहें तो हमें जगह चुनने में भी परेशानी होगी।हम तो कहीं के नहीं रहे, सिवाय भारत के।जिसके पुर्खे केरळ/तमिलनाडु के हैं, जिसका जन्म और बचपन मुम्बई में हुआ था, पढाई राजस्थान और यू पी में हुई और जिसकी नौकरी बेंगळूरु में लगी वह किस जगह के बारे में लिखेगा? अपने लिए regional identity ढूँढता फ़िर रहा हूँ।अब बंगळूरु में, जे पी नगर इलाके में बस गया हूँ।अब भला इस जगह के बारे में क्या लिखूँ समझ में नहीं आता।न कोई इतिहास, न कोई विशेष संस्कृति, बस केवल मकान, रास्ते, ट्रैफ़िक, भीड, दूकाने वगैरहकाश गंगा जैसी कोई नदी होती, या पहाड होता या स्मरण लायक इतिहास।लिखते रहिए। यहाँ साहित्य से किसे मतलब है। अजी यह तो एक तरह का सोशियल नेटवर्किन्ग है। शुभकामनाएंजी विश्वनाथ
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ऊबड-खाबड इतिहासकार को बधाई । खूब उडाइये मकाई शोला खोवापुरी [भारतीय मिखाइल शोलोखोव]:)
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ऊपर की साढे तीन टिप्पणियों से सहमत। कौन सी हैं वे टिप्पणियां हैं यह फ़िर कभी!
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प्रवीण जी से सहमत हूँ कि आप जहाँ भी जायेंगे , जिस भी परिस्थिति में होंगे , लिखने लायक कुछ न कुछ मिल ही जाएगा …मौलिकता इसी को कहते हैं शायद …आभार ..!
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विष्णु बैरागी जी की ई-मेल से टिप्पणी: ज्ञानजी,आपकी इस पोस्ट पर टिप्पणी लिखी, क्लिक भी की किन्तु हुआ कुछ भी नहीं। इसलिए आपको सीधे ही लिख रहा हँ।ईश्वर ने अहुत ही सुन्दर विचार आपके मन मे उपजाया है। शिवकुटी को लेकर आपके पास जो कुछ भी है – सूचनाऍं, तथ्य, विचार, वह सब अविलम्ब लिखना शुरु कर दीजिए। आप जो भी लिखेंगे वह सुन्द र और प्रभावी ही होगा और भविष्य के लिए उपयोगी भी होगा। ईश्वरेच्छा का पालन करने में देर बिलकुल मत कीजिए।आप पूर्ण स्वस्थ बनें रहें। शुभ-कामनाऍं।
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लेखक क्या होता है जी? एक चिट्ठी लिखने वाला या बाजार से सामान लाने की लिस्ट बनाने वाला हम तो इसे भी लिखना ही मानते हैं ! जो अपनी लिखावट खुद ही दुबारा ना पढ़ पाए उसे छोड़ सबकुछ लिखने वाले लेखक ही हुए 🙂 फिर आप तो लौकी, साग, ऊंट और बकरी में भी ज्ञान ढूंढ़ लाते है.
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सरसरी निगाह से देखा तो ’मल्हार’ एक मस्त ब्लॉग सा जान पडता है.. पढते हैं इसे फ़ुरसत से.. पहले आपको आभार व्यक्त कर देते हैं.. शुक्रिया..
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"लिख शब्द लिखते ही मन में जोर का ठहाका लगता है। तुम कब से लेखक बन गये पण्डित ज्ञानदत्त पांड़े!"आप इस पर हँस सकते हैं लेकिन आपको पढने वाले आपको लेखक ही मानते हैं… मुझे आपकी पोस्ट्स से साहित्य जैसा ही कुछ मिलता है.. हरदम एक नया रस जो मस्तिष्क में कुछ हलचलें मचाकर उसे जीवन्त सा कर देता है..उम्मीद करता हूँ कि शिवकुटी का इतिहास आप अपने ब्लॉग के माध्यम से लिखें..कुछ वैसा ही जैसा ’बना रहे बनारस’ या ’द मैक्सिमम सिटी’ सरीखा… वैसे इतिहास नहीं भी सही, तो आप वर्तमान के बारे में बताते ही रहते हैं..साहित्य में भी कुछ लेखकों ने कुछ स्थानों को अमर बना दिया है/था.. मुझे याद है जब लखनऊ के कॉफ़ी हाउस में जाता था(जिसकी जगह अभी CCD ने ले ली है) तो कुछ कहानियों में उसका किया गया जिक्र जेहन में रहता था और जैसे पहले से ही एक जोडी आँखें सब कुछ दिखाती रहती थीं…कैफ़ी साहेब की दो लाईन भी थी जो अक्सर जुबान पर चढ जाती थीं"अजाओं में बहते थे आंसू, यहाँ लहू तो नहींये कोई और जगह होगी, लखनऊ तो नहीं।"अभी भी जब कभी कहीं से बॉम्बे वापस आना होता है तो ’द मिडनाईट्स चिल्ड्रेन’ में सलीम द्वारा कई बार कहा गया वाक्य ’बैक टु बोम’ ऑटोमैटिकली निकलता है… न जाने कितनी कविताओं/कहानियों ने कितने ही स्थानों को काल में हमेशा के लिये ही दर्ज करवा दिया है.. ज्यादा ब्लॉग्स के बारे में नहीं पता है लेकिन आपकी ’मानसिक हलचल’ को पढने वाला शिवकुटी की एक इमेज बना सकता है जैसे फ़ुरसतिया जी के कलक्टरगंज की बनी हुयी है.. p.s. ज्यादा बोल गया हूँ तो इगनोर करियेगा :-).. आज कुछ मूड बना हुआ है..
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ऐसा ना कहें, हम जिसे भी अपने समय में अपने आसपास जीते हैं वो भविष्य के लिए हमरे समय का इतिहास ही तो है न… और रही बात शिवकुटी के इतिहास की तो पकडिये और बुजुर्गों को…….वैसे भी ज्ञान दद्दा आपको कौनो किताब लिखने की जरुरत नाही, उ का है की आप इतना कुछ ब्लॉग पे जो लिख चुके हो ना…. 😉 सो बस ब्लॉग पे लिखते जाओ, भविष्य में वही किताब के रूप में खुद बा खुद छपेगा, लगा लो जी शर्त ……..
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