हिन्दी ब्लॉगिंग के बारे में एक जुमला उछला था कि यह खाये-पिये-अघाये लोगों का मनोविनोद है। सुनने में खराब लगता था, पर सच भी लगता था।
फिर मुझे सारा शहरी मध्यवर्ग़ खाया-पिया-अघाया लगने लगा। और बाकी जनता सदा संतोषी!
लोकभारती के दिनेश ग्रोवर जी ने एक बार कहा था कि यहां दस हजार लोग दंगे में मर सकते हैं, क्रांति करते नहीं मर सकते। उनका कहना भारतीय की संतोषी वृत्ति को ले कर था – जो रूखी सूखी खाय के ठण्डा पानी पीव की मेण्टालिटी पर चलती है। देख परायी चूपड़ी मत ललचावे जीव। माने, ए.बी.सी.डी राजा जो पैसा बना रहे हैं राइट-लेफ्ट-सेण्टर, उसपर वह भारतीय जीव अपना हक नहीं मानता। उसे उसका कोई लालच नहीं। लिहाजा वह उसके लिये जान नहीं देता/दे सकता। वह सिर्फ सबरीमाला या कुम्भ की भगदड़ में जान दे सकता है या आई.टी.बी.पी. की रंगरूटी के चक्कर में ट्रेन से टपक कर।
सटायर लिखने वाले सटायरिकल एंगल से चलते होंगे; पर यह लिखने में मेरे मन में कोई व्यंग नहीं है। भारतीय मानस क्रांति-फ्रांति नहीं करता। मिस्र में हो रहा है यह सब पर भारत में नहीं हो सकता। भारत को आक्रांताओं ने लूटा बारम्बार। भारत अन्दर से लुटेगा बारम्बार। पर कोई अपराइजिंग नहीं होने वाली।
मिस्र में कहते हैं कि सोशल मीडिया – फेसबुक और ट्विटर का बड़ा योगदान है मुबारक के खिलाफ उठने वाली आवाज को संगठित करने में। भारत में वह नहीं सम्भव है। भारत में सोशल मीडिया ब्लॉगर मीट के समाचार-फोटो का संवहक है। या फिर छद्म व्यक्तित्व को प्रोमोट करने वाला है, जो व्यक्ति रीयल लाइफ में नहीं जी रहा, मगर नेट पर ठेल रहा है।
यह देश एक दूसरे प्रकार का है जी!
रोचक विमर्श, लेकिन यह दुनिया अलग है, इसके रस्मो-रिवाज़ अलग हैं, इसे दूसरे चश्मों से डिफ़ाइन नहीं किया जा सकता।
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भारत में जब भी परिवर्तन की आँधी चलेगी तो इंटरनेट और आईटी कर्मियों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होगी। जनता पर विश्वास करें, मुझे तो है।
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मन जब निराशा के गर्त में डूबता है तो ऐसा ही कुछ लगता है…पर पिछले अनुभव तो यही बताते हैं कि अपने देश के आमजन हद दर्जे के सहनशील क्यों न हों जब जागते हैं,तो काम पूरा कर के ही बैठते हैं…
हाँ यह नहीं कह सकते कि क्रान्ति की अगुआई ब्लोगर ही करेगा,पर इतना है कि ब्लोगर की बातें,क्रांति की उद्दीपक अवश्य बनेंगी…
चिपलूनकर जी की पोस्ट जब भी पढ़ती हूँ तो लगता है कितना कुछ नहीं जानते हम..क्या ऐसे सत्य और तथ्य रोष के उद्दीपक नहीं बनेंगे ???
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क्रांति नहीं, हम तो बेहतरी के परिवर्तनों से ही मगन हो जायेंगे। पर नैराश्य दूर होने का कोई बहाना तो दीखे! 😦
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“हिन्दी ब्लॉगिंग के बारे में एक जुमला उछला था कि यह खाये-पिये-अघाये लोगों का मनोविनोद है”
Opening sentence से सहमत नहीं, बाकी सब सही कहा, लेकिन एक टिप्पणी के जवाब में आप ने कहा लिटरेट लोग क्या कर रहे हैं?
मेरा अनुभव ये कहता है कि लिटरेट लोग सबसे ज्यादा दब्बु और स्वार्थी होते हैं क्युं कि वो दिमाग से सोचते हैं जब कि अनपढ़ दिल से सोचता है , नहीं कहना चाहिए महसूस करता है और फ़िर ज्यादा नफ़ा नुकसान सोचे बिना अपने सपनों के पीछे भाग चलता है । यही जज्बा युवा वर्ग में देखा जाता है
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दिल को मार कर सोचना भी कोई सोचना है! मेरे ख्याल से सोचा दिमाग से जाये, पर जब लगे कि अनिर्णय की हालत लग रही है, या दब्बूपना हावी हो रहा है, तब दिल की मानी जाये! ऐसा कई बार किया है। पर कई बार चूक भी गये हैं हम!
और आपने यह दिल-दिमाग की बहुत सही कही!
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ha ha ha ….I have seen a lot of change in your personality in last three years……If I can sense it just on the basis of your interaction on net, I am sure people around you also must have felt it and I wonder how they are reacting to this change. How about writing a post on that…How does the “Mansik Halchal” interpret this change….Do you still think you are an introvert?
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Yes, I feel I am more of an introvert specially after my illness.
मेरे स्वास्थ्य ने मेरा नेट पर पढ़ पाना कम कर दिया है। पहले मैं लोगों की पोस्टें अधिक पढ़ और टिप्पणी कर पाता था, अब वह अपने ब्लॉग पर टिप्पणियों पर प्रतिक्रिया भर में सीमित हो रहा है। मुझे मालुम है कि बहुत से लोग चाहते हैं कि मैं उनकी पोस्टें पढ़ कर प्रतिक्रियायें दूं। पर वह हो नहीं पा रहा।
मैं अधिक ट्रैप्ड और अधिक एकाकी महसूस करता हूं। 😦
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जहां आज क्रांतियों की बयार बह रही है, उनमें और भारत में एक और अंतर है और वह ये, कि वहां के लोग महज वह भी नहीं कह सकते जो हम हर रोज़ सार्वजनिक बस या ट्रेन के हैंडल से लटके बोलते रहते हैं…भड़ास का घड़ा भरने से पहले ही उसमें हजारों ढेरों छेद हुए मिलते हैं हमारे यहां 🙂
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पढ़ने-लिखने-बोलने-बूंकने की आजादी यथास्थितिवादी बनाती है! 🙂
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इसीलिये तो पढ़ाया नहीं कि पढ़ जायेंगे तो इनकी बातों में कैसे आयेंगे और इसीलिये जीना इतना मंहगा कर दिया है, यदि पेट भर गया हर रोज, तो फिर इधर उधर की नहीं सोचने लगेंगे..
मिस्र में हो रहा है यह सब पर भारत में नहीं हो सकता। भारत को आक्रांताओं ने लूटा बारम्बार। भारत अन्दर से लुटेगा बारम्बार। पर कोई अपराइजिंग नहीं होने वाली।
बिल्कुल ठीक. सहमत..
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सर ,
शायद आपके सवालों का जवाब हमारी हज़ारों वर्ष पुरानी संस्कृति में छिपे हैं !
सब्जेक्टिविस्म में ओब्जेक्टिविस्म ढूँढने को प्रेरित करती है शायद हमारी संस्कृति ! ब्रह्म हम में ही हैं ! स्वयं को सही कर पायें , इतना काफी है शायद ! ( मैं संस्कृति पर कोई ऑथोरिटी नहीं हूँ , गलती होने पर माफ़ करें )
और शायद इसलिए ही कभी दूसरी देशों पर कब्ज़ा नहीं किया जाकर !
PS: कथन थोड़े अनरियलिस्टिक हो सकते हैं 😀
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हां, अंशुल जी। मूल में संस्कृति अवश्य है।
पर हमारे ही धर्म में महाकाली की परिकल्पना है। वे अपने पदाघात से क्षण में उतना कर देती हैं, जो युगों में नहीं होता। महाकाली के संहार के बाद महालक्ष्मी और महासरस्वती का श्रृजन कार्य चलता है।
क्रांति की बात भी धर्म-संस्कृति में है जरूर। पर शायद दैवी शक्तियां ही करती हैं वह!
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देखिये सर !, कुछ तो हो रह है ! 🙂
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हां! वाकई!
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