संजीव तिवारी कहते हैं कि उनके बनिया ऑर्गेनाइजेशन में अगर
“हम अपनी गर्दन खुद काटकर मालिक के सामने तश्तरी में पेश करें तो मालिक कहेगा, यार … थोड़ा तिरछा कटा है, तुम्हें गर्दन सीधा काटना नहीं आता क्या ???”
बनिया (प्रोप्राइटरी) ओर्गेनाइजेशन, बावजूद इसके कि उनके सीईओ ढ़ेरों मैनेजमेण्ट की पुस्तकें फ्लेश करते हैं अपने दफ्तर में, चलते पुराने ढर्रे पर ही हैं। एक सरकारी अफसर के रूप में इनसे वास्ता पड़ा है। इनके मालिक व्यवहार कुशल होते हैं। वे डिनर टेबल पर आपको अपनी वाक-पटुता से प्रभावित करते हैं। पर उनके कर्मचारियों के साथ उनका व्यवहार वही दीखता है – ऑटोक्रेटिक। उनका वेलफेयर शायद धर्मादे खर्च में दर्ज होता होगा बही-खाते में।
सरकारी अफसर अंग्रेजों के जमाने की विरासत के रूप में डेमी-गॉड की तरह व्यवहार करता रहा है। पर पिछले एक दशक में मायावती जैसे राजनेताओं के सत्ता में आने से उनमें से यह डेमी-गॉडपना बहुत कुछ जाता रहा है। बहुत हवा निकल गई है।
ब्यूरोक्रेसी-पॉलिटीशियन-बिजनेसमेन नेक्सस का फलना-फूलना सुनने में आता है। कर्मचारियों और कर्मचारी यूनियनों के वर्चस्व में वृद्धि हुई हो, ऐसा नहीं लगता। दत्ता सामंत जैसों के दिन बहुरते नहीं लगते। आठ-नौ परसेण्ट की ग्रोथ रेट कर्मचारियों को असंतुष्ट भले बना रही हो – पर वह असंतोष कूलर से एयर कण्डीशनर और मोबाइक से कार में अपग्रेड न हो पाने का ज्यादा है।
बनिया ऑर्गेनाइजेशंस का भविष्य क्या है जी? उनका ग्राहक, सरकार, निवेशक, कर्मचारी, मीडिया या पर्यावरणीय हल्लाबोलक एन.जी.ओ. आदि से क्या सम्बंध रहने जा रहा है।
बनिया ऑर्गेनाइजेशन डायनासोर तो नहीं बनने जा रहे – ऐसा मुझे जरूर लगता है।
बहुत सारे व्यक्तित्व एकाएक याद आ गए यह पढ़कर…
अपने क्लाइंट या बड़े लोगों से बात करते वक़्त शहद चुआते और अधीनस्थ को सड़क के कुत्तों से भी बदतर दुरदुराते देखा है लोगों को…
मैं उनका सम्मान किसी कर नहीं कर पाती जो अपने अधीनस्थ को सम्मान नहीं देते…
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हां, बहुत से ऐसे गोजर देखे हैं!
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….. क्या हुआ अगर इस बीच १०-५ हत्याये करनी पड़ी.सभी कारोबारी करते हैं…..
ये एक पोस्ट पर कमेन्ट का हिस्सा है लिंक ये है : http://akoham.blogspot.com/2011/03/blog-post.html?showComment=1299562329148#c3375169067197581148
कोई कारोबारियों को सांप कहता है तो कोई हत्यारा !!!
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😦
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लालच का फुल स्पेक्ट्रम हमेशा रहेगा – शून्य से अनंत तक, दान से पराक्रमण तक। जो समाज/राष्ट्र जिस समय इसे बहुजन हिताय संतुलित/नियंत्रित कर सकेगा वह उन समयों में सामाजिक प्रगति करेगा लेकिन जिस समय में भी इस नियंत्रण में कमी रह जायेगी, कुछ न कुछ संस्थायें इसका दुरुपयोग अवश्य करेंगी जिसकी परिणति बोफोर्स, 2जी, और भोपाल काण्ड जैसे कलुषित कारनामों में देखने को मिलती है।
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Absolutely!
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ब्यूरोक्रेसी-पॉलिटीशियन-बिजनेसमेन
इन सब की क्या बिसात है? ये सब तो वित्तीय पूंजी के काबू में हैं। आज दुनिया को वित्तीय पूंजी चला रही है।
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निश्चय ही यह वित्त/धन का युग है। और उसमें कोई गलती भी नहीं। बाजार बहुत से अवरोध अपने पदाघात से सीधे कर दे रहा है! 🙂
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विचार जाग्रत करती पोस्ट। आभार !
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कारपरेट हो या कारपोरेशन तरक्की तो बनिया स्वभाव से ही होगी . इसलिये बनिये … बिगडिये नही
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शब्दों का विलक्षण अलंकारिक प्रयोग!
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बनिया ऑरगेनाइझेशन का हमें तो खूब अनुबव है इंजीनियर हो या चपरासी उनके लिये एक बराबर है ।
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मजा तो तब है जब खुद=इंजीनियर=चपरासी हो!
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“तुम्हारी यह पोस्ट तो लटक गई जी.डी.!”
हा हा हा
मुझे आपका यह आत्मालाप बहुत भाया 🙂
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मैं सोचता था कि भारत की कॉर्पोरेट कल्चर के बारे में लोग टिप्पणी करेंगे। प्राइवेट और पब्लिक सेक्टर – दोनो में एम्प्लायर-एम्प्लाई रिलेशन में खामियां हैं।
पर, जैसा मैं देख रहा हूं, चर्चा (जितनी भी है) “बनिया” शब्द के ऊपर डी-रेल हो गई है।
तुम्हारी यह पोस्ट तो लटक गई जी.डी.! 😦
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हरी साढू यही हैं.
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मुझे तो गूगल सर्च और फिर यू-ट्यूब का वीडियो देखना पड़ा समझने को! टीवी न देखने का नतीजा – पूअर जी.के.!
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ओह 🙂
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