
तरुण जी ने पिछली पोस्ट (डिसऑनेस्टतम समय) पर टिप्पणी मेँ कहा था:
Edmund Burke का एक अंग्रेजी quote दूंगा:
“The only thing necessary for the triumph of evil is
for good people to do nothing.”
समाज की इस दशा के लिए कोई और नहीं हम खुद ही जिम्मेदार है
खासकर पिछली पीढ़िया।
इसे ठीक भी हमें ही करना होगा!
क्यों नहीं आप इस तरह के सुझाव आमंत्रित करने के लिए एक पोस्ट लिखे |
मेरे सुझाव:
१. इसकी शुरुआत अपने आसपास अपने सहकर्मियों द्वारा किये जा रहे भ्रष्टाचार का विरोध कर के शुरू कर सकते हैं ।
२. ट्रैफिक पोलीस के द्वारा पकडे जाने पर पैसा देने की जगह फाइन भरें।
पाठक कह सकते हैं कि “इन जरा जरा से प्रयत्नों से क्या बनेगा, जब लोग देश लूटे जा रहे हैं!” “जरूरत तो इन बदमाशों को फांसी चढ़ाने की है।” “यह देश रहने लायक नहीं है।” “गलती तो तभी हुई जब हमें इस देश में जन्म मिला।” आदि आदि!
पर मेरे विचार से तरुण जी बहुत सही कह रहे हैं। अगर बहुत मूलभूत बदलाव लाने हैं तो पहल व्यक्ति के स्तर पर ही करनी होगी। एक लम्बी यात्रा की शुरुआत एक छोटे से पहले कदम से होती है। हम रोज रात सोने के पहले मनन करें कि आज कौन सा ईमानदार काम हमने किया।
मैं यहां थियरी ऑफ ऑनेस्टॉलॉजी पर प्रवचन नहीं करने जा रहा। और शायद मैं उसके लिये सक्षम भी नहीं हूं। पर मैं जो कुछ कर सकता या कर रहा हूं; उसपर कह सकता हूं।
1. सरकार (पढ़ें एम्प्लॉयर) मुझे तनख्वाह देती है। मैं सोचता हूं कि वह मेरी योग्यता के अनुपात में बहुत ज्यादा नहीं है। पर मैं उसे ईमानदार कॉण्ट्रेक्ट के रूप में स्वीकार करता हूं और करता आया हूं। अत: यह मेरे उस कॉण्ट्रेक्ट का अंग है कि मैं जो भी काम करूं, उससे सरकार को मेरी तनख्वाह और मुझे दिये पर्क्स से कहीं ज्यादा लाभ मिले और मैं किसी व्यक्ति/सरकार से अनुचित लाभ (पढ़ें रिश्वत) न लूं।
2. मैं “ईमानदारी की नौटंकी” करने से परहेज करूं। ईमानदारी व्यक्तित्व नहीं, चरित्र का अंग बनना चाहिये।
3. मेरे प्रभावक्षेत्र में कुछ लोग हैं। कुछ युवा और बच्चे मुझसे प्रेरणा ले सकते हैं। उनके समक्ष मेरे व्यवहार या बोलचाल से यह न लगे कि मैं अनैतिकता को सहता/सही समझता हूं। अन्यथा उन्हे ऐसा करने का एक बहाना मिल सकेगा।
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आप क्या जोड़ेंगे अपने बिन्दु; मित्रवर?
जब तक हम “काम निकालने ” की प्रवर्ति से निजात नहीं पाते तब तक सुधार असंभव है . रिश्वत लेने वाले हाथ १० तो देने वाले १०० हैं .
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काम निकालने तक तो शायद चल भी जाये, पर जब इमारतें और पुल घटिया बनते हैं, दवायें नकली होती हैं, यातायात रुक जाता है, ट्रेने समय पर नहीं चलतीं, डीजल में केरोसीन मिलता है, सही आदमी को रोजगार नहीं मिलता और युद्धक तैयारी में दीमक लगती है; तब दिक्कत होती है! 🙂
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लेकिन हाथ पर हाथ रखकर आशा लगाये बैठे रहने से कुछ ठीक नहीं होगा |
इससे तो स्थिति ख़राब ही होगी | बल्कि इसी वजह से तो आज ये स्थिति बनी है |
हम लोगों को कुछ तो करना ही होगा |
और शायद हम सब को अपनी ऊर्जा उसे सोचने में लाकर अमल लाने में लगानी चाहिए |
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अगर इतिहास देखें तो भारत के चरित्र में सेल्फ-करेक्टिव एलीमेण्ट तो है। वह इसे बनाना-रिपब्लिक बनने नहीं देगा। अगर लोगों में कसमसाहट है, तो वह इसका प्रमाण है। लोग सोच तो रहे ही हैं अपने अपने प्रकार से।
दिक्कत यह है कि यह देश चीता नहीं, हाथी जैसा है। अपना समय लेता है क्रिया करने में। 🙂
कुल मिला कर मेरे पास समाधान नहीं है; पर नैराश्य में भी आशा है!
और हाँ, अनुराग शर्मा जी की टिप्पणी बहुत काम की लगती है!
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अनुराग जी के सुझाव वाकई बहुत अच्छे हैं,
हमें इमानदार लोगों की networking करनी ही चाहिए,
जिससे की बेईमानी और बेईमान लोगों से मिलकर निपटा जा सके |
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हम हमारा काम एन केन प्रकारेण हो जाये ये चाहते है इसके लिए छोटी मोटी रिश्वत देने के लिए तैयार होते हैं पर जब लेने वाले बड़ा भ्रष्टाचार करते है तो गिरियाने में कोई पीछे नहीं होता. कोई ये नहीं मानता कि कि हमारे किये हुए छोटे भ्रष्टाचार का ये रिजल्ट है.
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वास्तव में यही बात है। बिल्कुल!
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भारत में या दुनिया में कहीं भी अगर ईमानदारी की कोई इकाई बने तो शायद वह एक मिली हरिश्चन्द्र होगी …हरिश्चन्द्र तो क्या होंगें हम जिन्होंने इमानदारी के चलते घोर दुःख सहे ,श्मशान में नौकरी की और विपन्न पत्नी से खुद के ही बेटे के दाह संस्कार के लिए निर्धारित शुल्क माँगा ….ह्रदय विदीर्ण कर देने वाले इस आख्यान को ही ईमानदारी के संदर्भ में जाना जाता है -हमारे लिए एक मिली हरिश्चन्द्र का भी पैमाना हो तो ठीक ..
ईमानदारी कहने में आसान है अनुपालन में मुश्किल -और निश्चय ही यह प्रदर्शन की मुहताज नहीं है मगर सरकारी सेवाओं में बार बार कहा जाता है की इमानदार होना ही पर्याप्त नहीं है यह प्रदर्शित भी होनी चाहिए …
आज के इस तंत्र में अगर हम खुद इमानदार होने की बात करते हैं तो अमूमन यह एक पाखंड ही है …पूरी व्यवस्था -समाज घर परिवार भ्रष्ट हो चुका है ….बेटा बाप पत्नी पति सभी भ्रष्ट हैं -भ्रष्टाचार के नगारखाने में आपकी यह शहनाई कर्णप्रिय तो है मगर सुनने वाले कब तक टिकेगें ?
मैं ईमानदार होने का ख्वाहिशमंद जरुर रहा हूँ मगर दुर्भाग्य से आज खुद को ईमानदार नहीं कह पा रहा ..
इसलिए इस चर्चा में देर तक टिकने का साहस भी नहीं है … 🙂
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ईमानदारी के मानक के रूप में चाणक्य का दृष्टान्त आता है कि उन्होने एक अतिथि से मिलने के समय सरकारी दिया (जो वे काम करते समय जलाये थे) बुझा कर अपना व्यक्तिगत दिया जलाया। यह एक्स्ट्रीम माना जायेगा। इसी से प्रेरित हो मैने “ईमानदारी की नौटंकी” करने से परहेज की बात पोस्ट में लिखी है।
आचार्य विष्णुगुप्त का क्लोन बनने की जरूरत नहीं!
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कौन कहता है आसमां में हो नहीं सकता सुराख
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो
– दुष्यंत कुमार
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ये पंक्तियां बहुत प्रेरणास्पद हैं।
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मेरे पिताजी एक सरकारी नौकरी से रिटाएर हुए हैं |
वो हमेशा कहते हैं की ईमान दार वो नहीं जिसने कभी रिश्वत नहीं ली क्योंकि कभी मौका नहीं मिला
बल्कि वो है जिसने सामने रखी रिश्वत को ठुकरा दिया |
मेरा मानना है की असली इमानदार वो है जिसने इसके साथ साथ बेईमानी करने वाले को टोका और मना किया |
उनके आस पास के लोग रिश्वत लेते थे लेकिन उन्होंने कभी दोस्ती या कभी कुछ की वजह से कभी उन्हें कुछ नहीं कहा
शिकायत करना तो दूर की बात है |
मुझे लगता है की ये सभी लोगों की इमानदारी की कहानी है |
हम कभी अपने आसपास हो रहे गलत को लेकर कुछ नहीं बोलते चुपचाप देखते हैं, जैसे की गन्दगी से बच कर निकलते हैं |
हम सब को बुरे को वहीँ टोकना होगा जहाँ हम उसे होते हुए देखते हैं, तभी कुछ हो सकता है |
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मैं आपके जैसा सोचता था। अब अधिकाधिक आपके पिताजी जैसा सोचता हूं। यह परिवर्तन एक दो साल का नहीं, लगभग एक दशक का है। मेरे लड़के की ट्रेन दुर्घटना के बाद से व्यक्तित्व कुछ शांत सा रहने लगा!
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शायद पिताजी का अनुभव भी आपकी तरह ही दशकों में बना हो |
पर कहीं तो कुछ शुरुवात करनी ही चाहिए |
जब बेईमान लोगों को लगेगा की समाज में लोग उन्हें टोकते हैं
उनका बहिष्कार करते हैं, उनका विरोध करते हैं तभी शायद वो रुकेंगे
नहीं तो उन्हे क्या पड़ी है रुकने की |
वैसे भी समाज में ऐसे लोगों की संख्या अब criticla mass पार कर गयी है
तभी हम देखते हैं की जो रिश्वत पहले चोरी छुपे मांगी जाती थी अब सीना थोक कर सबके सामने मांगी जाती है
और ना देने पर काम होता ही नहीं है |
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यह कछुये की प्रवृत्ति – जिसमें सज्जनता अंतर्मुखी बनती गयी है, कई दशकों का परिणाम है।
आपकी क्रिटिकल मास की एनेलॉजी सटीक है।
पिछले साल हमने लोगों को टोकने, विरोध करने का सिलसिला प्रारम्भ किया था। यह यहां और यहां है। पर वह ज्यादा चला नहीं। वह ऊर्जा भी बहुत लेता है। और कभी कभी प्रश्न उठने लगता है – Is it worth?
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आपके बेटे के बारे में जानकार दुःख हुआ |
अब वो कैसा है?
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जी, बेहतर है।
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ज्ञान जी,
आज इस दिये गये लिंक वाली पोस्ट को पढ़ा और जाना कि आप किस तरह की मानसिक पीड़ा से उस दौर में गुजरे होंगे। बहुत तकलीफ होती है ऐसे समय।
इस तरह की तकलीफों को मैं भी कुछ कुछ झेल चुका हूं । एक बार तब, जब मेरे बेटे के सिर के पिछले हिस्से में चोट लग गई थी और रविवार का दिन होने से कोई क्लिनिक भी नहीं खुला था । एक दो अस्पतालों में बदहवास अवस्था में दौड़ लगाई गई तिस पर भी जवाब दे दिया गया कि रविवार होने से बड़े डॉक्टर नहीं हैं टांका नहीं लगेगा, सरकारी अस्पताल जाओ औऱ फिर दौड़ा दौड़ी हुई। वहां जाने पर वही जवाब कि डॉक्टर नहीं हैं……मजबूरन एक अदने से कर्मचारी ने खी खी करते हुए टांका लगाया……उपर से टांका लगाने के बाद चाय पानी हेतु कुछ रूपये भी मांगे…..अपनी खुशी से दे दो कहते हुए……ऐसी हालत में समझ सकते हैं कि इंसान किस मानसिक अवस्था में होता है और तिस पर चाय पानी की मांग की जाय तो क्या होता है। चूंकि उस वक्त मेरे बेटे के लिये वही भगवान था, सो कुछ दे दिया गया।
आज सोचता हूं तो लगता है कि इस तरह की तकलीफें इंसान के धैर्य की परीक्षा ही लेती हैं……कि एक ओर तो परिजन चोट से जूझ रहा हो औऱ उससे उपजे मानसिक संत्रास को झेल ही रहे हो कि तब तक उसी त्रासदी को एन्कैश करता इंसानी जोंक आ जुटता है ।
कभी कभी बहुत त्रासद हो जाती हैं परिस्थितियां…..बहुत त्रासद।
आपके बेटे के भविष्य के लिये मंगल कामना करता हूँ, कि फिर से जल्द अच्छे हो जांय।
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धन्यवाद बन्धुवर।
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बदलाव हमेशा ऊपर से ही सम्भव है, कम से कम इस व्यवस्था में. स्टैण्ड पर निर्धारित पार्किंग फीस २ रुपये है, ठेकेदार चार लेता है. दो रुपये की शिकायत के लिये पच्चीस-तीस खर्च करो, नतीजा सिफर. ठेकेदार जरूर लाखों के वारे-न्यारे कर लेता है. सम्भव ही नहीं है बदलाव. भगत सिंह पड़ोसी के घर में हो तो क्या होगा. हम सब व्यापारी बन गये हैं. आजादी इसलिये मिल सकी कि लोग कम पढ़े-लिखे थे, एक आवाज पर निकल पड़ते थे. आज सब पढ़ गये हैं, सबने अपने स्वार्थमय लक्ष्य निर्धारित कर लिये हैं.
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सोचने की बात है कि पढ़ाई ने लोगों को स्वार्थी बना दिया है!
यह तो है कि साक्षर लोग अपने हक की बातें ज्यादा करते हैं।
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