बाल पण्डितों का श्रम


शिवकुटी में गंगा तीर पर सिसोदिया की एक पुरानी कोठी है। उसमें चलता है एक संस्कृत विद्यालय। छोटे-बड़े सब तरह के बालक सिर घुटा कर लम्बी और मोटी शिखा रखे दीखते हैं वहां। यहां के सेमी-अर्बन/कस्बाई माहौल से कुछ अलग विशिष्टता लिये।

उनके विद्यालय से लगभग 100 मीटर दूर हनूमान जी के मन्दिर के पास ट्रैक्टर/ट्रक वाला बालू गिरा गया है। यह बालू तसले से उठा उठाकर अपने कम्पाउण्ड में ले जा रहे थे वे बालक। बहुत अच्छा लगा उन्हे यह काम करते देखना। उनके तसले स्टील के थे। शायद उनकी रसोई के बर्तनों का हिस्सा रहे हों।

मुझे लगा कि उन्हे अपनी उत्पादकता बढ़ाने के लिये सिर पर तसला उठाने की बजाय यातायात के साधन उपयोग में लाने चाहियें। और वही किया उन्होने। जल्दी ही  दो साइकलें ले कर आये वे। पर पहले दिन तो वे बहुत ज्यादा ट्रांसफर नहीं कर सके बालू।

उसके बाद अगले दिन तो एक साइकल-ठेला कबाड़ लाये वे। लाते समय पांच छ बच्चे उसमें खड़े थे और एक चला कर ला रहा था – उनकी प्रसन्नता संक्रामक थी!  फावड़े से वे रेत डालने लगे ठेले में।

एक बड़ा विद्यार्थी, जो फावड़े से बालू ठेले मेँ डाल रहा था, से मेरी पत्नी जी ने पूछना प्रारम्भ किया। पता चला कि गुरुकुल में रसोई घर बन रहा है। यह रेत उसके लिये ले जा रहे हैं वे। बड़े विद्यार्थी परीक्षा देने गये हैं, लिहाजा  छोटे बच्चों के जिम्मे आया है यह काम।

बालक पूर्वांचल-बिहार के हैं। असम से भी हैं। वह स्वयं नेपाल का है।

पत्नीजी ने कहा कि वे उनका विद्यालय देखने आना चाहती हैं। उस नेपाली विद्यार्थी ने कहा – आइयेगा, जरूर!

आपने सही अन्दाज लगाया – आगे एक आधी पोस्ट अब संस्कृत विद्यालय पर होगी, जरूर! यह बालू का स्थानांतरण उनके टीम-वर्क की एक महत्वपूर्ण एक्सरसाइज है। यह उनमें सामाजिक नेतृत्व के गुण भर सके तो क्या मजा हो!

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Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring village life. Past - managed train operations of IRlys in various senior posts. Spent idle time at River Ganges. Now reverse migrated to a village Vikrampur (Katka), Bhadohi, UP. Blog: https://gyandutt.com/ Facebook, Instagram and Twitter IDs: gyandutt Facebook Page: gyanfb

27 thoughts on “बाल पण्डितों का श्रम

  1. गांवों में आज भी अधिकांश विद्यालयों में चापरासी नहीं होते… विद्यालय की साफ़ सफाई का काम विद्यार्थी ही करते हैं.. मुझे याद है कि हम लोग हर गुरुवार को गाँव में बाल्टी में गोबर और मिट्टी लाने जाते थे और फिर स्कूल के सभी कमरों को लीपना होता था.. सबका काम बनता हुआ… झाडू देना.. पानी लाना… क्या उत्साह होता था.. और घर वाले भी कहते थे कि ये सब काम करने से विद्या बढ़ती है… गुरूजी का आशीर्वाद मिलता है… आजकल तो……..

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    1. सब जगह बदलाव है। न गुरु गुरु रहे। न पहले जैसे छात्र और न पहले जैसे अभिभावक! यह परिवर्तन गांव में भी है।

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  2. इस पोस्ट को मोबाइल पर पढ रहा हूं और पूरी पोस्ट लाइन दर लाइन काफी बेहतरीन तरीके से डिस्पले हो रहा है। साइडबार के कंटेंट नहीं दिख रहे। संभवत: मोबाइल संस्करण के कारण वैसा हो रहा हो। कुल मिलाकर नोकई सी थ्री आनंददायक अनुभव दे रहा है : )

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  3. अच्छा है कि अपना काम स्वयं करना भी सीख रहे हैं ये बच्चे. बस शिक्षा भी समग्र हो तो सोने पर सुहागा.

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  4. शायद इन्हे बटुक कहते है . गुरुकुल परम्परा के हिसाब से ही यह कार्य कर रहे है . संस्कृत अध्यन भी आवश्यक है हम कितने भी ऎड्वान्स हो जाये पैदा होने से मरने तक कर्मकाण्ड तो भी कराने है

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  5. हमारे स्कूल में एक बड़ा सा मैदान हुआ करता था, मुझे याद है पांचवी कक्षा में हमें उस मैदान से कंकड़ पत्थर बिनने के काम पर लगाया गया था, २-३ दिन हमने वह काम खुशी खुशी किया. फिर किसी अभिभावक की शिकायत पर वह काम बंद हो गया.

    आपकी अगली पोस्ट का इन्तेज़ार रहेगा.

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    1. बालश्रम और श्रमदान के अंतर की रेखा महीन है! और आजकल जब यह नहीं दीखती तो चाइल्ड-लेबर मानने का ही फैशन है! 🙂

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