
जवाहिरलाल मुखारी करता जाता है और आस पास घूमती बकरियों, सुअरियों, कुत्तों से बात करता जाता है। आते जाते लोगों, पण्डा की जजमानी, मंत्रपाठ, घाट पर बैठे बुजुर्गों की शिलिर शिलिर बातचीत से उसको कुछ खास लेना देना नहीं है।
एक सूअरी पास आ रही है। जवाहिर बोलने लगता है – आउ, पण्डा के चौकी पर से चन्नन लगाई ले। सेन्हुरौ बा। लगाइले। (आ, पण्डा की चौकी पर से चन्दन और सिन्दूर लगाले।) सुअरी ध्यान नहीं देती। रास्ता सरसेटे चली जाती है। तब से टिक्कू (कुकुर) दीखता है तो उसके साथ वार्तालाप प्रारम्भ हो जाता है जवाहिर लाल का – आउ सार। तोहू के कछारे में जमीन दिलवाई देई। तुन्हूं खेती करु। हिरमाना होये त बेंचे मजेमें। (आओ साले, तुझे भी कछार में जमीन दिलवा दूं। तू भी खेती कर। तरबूज पैदा हो तो मजे में बेचना।)
टिक्कू ध्यान नहीं देता। उसे दूसरी गली का कुत्ता दीख जाता है तो उसे भगाने दौड जाता है। जाउ सार, तूं रहब्ये कुकुरइ! तोसे न होये खेती। (जाओ साले, तुम रहोगे कुकुर ही! तुमसे खेती नहीं हो सकती।)
बकरियां आती हैं तो उन्हे भी कछार में जमीन दिलाने की पेशकश करता है जवाहिर। बकरियों को दूब चरने में रुचि है, खेती करने में नहीं!
एक छोटा पिल्ला कई दिन से घाट पर चल फिर रहा है। बहुत चपल है। सरवाइवल की प्रक्रिया में बच गया है तो निश्चय ही अपनी गोल का उत्कृष्ट नमूना है। अपने से कहीं ज्यादा बड़ों से भिड़ जाता है। बकरियों को भूंक रहा है – भगाने को।
मैं जवाहिर से पूछता हूं – इसका कोई नाम नहीं रख्खा? जवाहिर की बजाय एक और सज्जन जवाब देते हैं – अभी नामकरण संस्कार नहीं हुआ है इस पिल्ले का!

दो दिन बाद जवाहिर मुझे देख खुद बोलता है – नाम धई देहे हई एकर, बुधवा। आउ रे बुधवा। (नाम रख दिया है इसका बुधवा। आ रे बुधवा।) बुधवा सुनता नहीं! जवाहिर मुझसे बहुत कम बात करता है पर आज शुरू हो गया – ऐसे भी मस्त बा एक और पिलवा। बन्ने मियां के घरे रह थ। पर सार माई क दूध पी क पड़ा रह थ। लई आवत रहे, आई नाहीं। … जब खाइके न पाये तब औबई करे! (इससे भी ज्यादा मस्त एक पिल्ला है। बन्ने मियां के घर में रहता है। पर साला मां का दूध पी कर पड़ा रहता है। मैं ला रहा था, पर आया नहीं। जब खाने को नहीं पायेगा, तब आयेगा।)
जवाहिर ऐसे बात करता है कि बन्ने मियां को जग जानता हो। पर मैं बन्ने मियां में दिलचस्पी नहीं दिखाता। फिर भी जवाहिर जोड़ता है – बहुत मस्त बा सार, बुधवा से ढ़ेर मस्त!
जवाहिर उस मस्त पिलवा के बारे में बात करने के मूड में है। पर मुझे घर लौटने की जल्दी है। मैं घाट की सीढ़ियां चढ़ने लगता हूं।
23 varsh pahle ka ‘gola’ yaad aa gaya………..jab darvaje pe ‘dadaji’ ke lakh virodh ke use
apne saath ‘chouki’ pe jagah dete the……….jahan bhi jata ‘gola’ saath hi hota tha………….
mukhtar ke tarah……..
pranam.
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वे आदमी और जानवर धन्य हैं जो आपके इर्द-गिर्द बसे हैं।
गंगा मइया की गोदी में बसा समाज आपको बहुत लुभा रहा है। हम भी इसे पढ़कर आनंदितहो रहे हैं।
जय हो।
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जवाहिर लाल के बारे मे कुछ ज्यादा जानकारी ले ओर उसे लिखे, किसी एक चरित्र पर विस्तार से लिखे, हमे भी जानकारी होगी कि यह लोग कैसे रहते हे, कैसे भाव हे इन के वगेरा वगेरा…
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भाटिया जी, जवाहिरलाल के बारे में पहले की पोस्टों में रोचक सामग्री है। यह समय के साथ परिवर्धित होती रहेगी। वह सामान्य व्यक्ति नहीं है, लिहाजा कौतूहल उपजाता है – बहुत!
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सुखद है आपकी पोस्ट बांचना! कहां आप हिन्दी लिखने में अटकते थे शुरुआत में और कहां अब अवधी धक्काड़े से लिखते हैं। जय हो आपकी। विजय हो! 🙂
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कोई खास फरक नहीं आया है – पहले पत्नीजी/पण्डाजी से पूछते थे कि जवाहिर लाल क्या कह रहा है। अब ज्यादा बैसाखी की जरूरत नहीं पड़ती! अवधी धाराप्रवाह बोलने का सपना अभी सपना है! 😦
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समझने /लिखने लगे हैं यह कम प्रगति नहीं है साहब जी! 🙂
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क्या करें? मान लें?! 🙂
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घाट के परिदृश्य का जिवंत चित्रण किया है आपने.
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मेरे घर के पास एक मादा और उसके तीन पिल्ले थे.. तीनों मर गये लेकिन मां का ममत्व नहीं गया. मरे हुये पिल्ले के सामने जीवित पिल्ले को दूध पिलाने की कोशिश करती थी कि मरा हुआ भी उसे देखकर उठ खड़ा हो. और एक हम हैं जो बम रख कर चीथड़े उड़ाते हैं रोज और उस पर अपने लिये ऊपर वाले का नेक बन्दा कहलाने में हिचकिचाते तक नहीं..
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मानव एक कोलॉज है देवता और दानव का!
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