वह लाल कमीज और लुंगी पहने आदमी अपना ऊंट एक खेत में खड़ा करता है। ऊंट की नकेल की नाइलॉन की रस्सी एक बेल की जड़ में बान्धता है। खेत का उपयोग अब कोन्हड़ा, लौकी की फसल लेने में नहीं हो रहा। वह ऊंट स्वच्छ्न्दता से चर सकता है बची हुयी बेलें।
ऊंट चरन-कर्म में न देरी करता है और न किसी प्रकार की दक्षता में कमी दिखाता है। मैं उससे उसका नाम पूछता हूं तो दातों में एक लता दबाये वह मुंह ऊपर करता है, पर शायद उसकी समझ में मेरा प्रश्न नहीं आता। वह फिर चरने में तल्लीन हो जाता है। अचानक उसके मुंह से एक डकार जैसी आवाज सुनता हूं – विचित्र है – ऊंट भी डकार लेता है।
लाल कमीज वाले से पूछता हूं – यह ऊंट आपका ही है। भला यह भी कोई सवाल है? यह तो जवाब हो नहीं सकता कि नहीं, यह मेरा नहीं ओसामा-बिन-लादेन का है। मरने के पहले उन्होने मुझे दान दिया था! पर वह लाल कमीज वाला सीधा जवाब देता है – जी हां। उस पार से सब्जी ढ़ोने के काम आता है। जब यह काम नहीं होता तो शहर में और कोई बोझा ढ़ोने का काम करता है ऊंट।
एक गंजा सा व्यक्ति किनारे लगी नाव का ताला खोलता है और लंगर उठा कर नाव में रख लेता है। फिर ये दोनो एक कोने में रखी पतवार उठा लाते हैं। अचानक मैं पाता हूं कि तीन चार और लोग इकठ्ठे हो गये हैं नाव पर चढ़ कर उस पार जाने को। उनमें से दो को मैं पहचानता हूं – चिरंजीलाल और विनोद। एक व्यक्ति के हाथ में लम्बी डांड़ भी है।
बिना समय गंवाये नाव उस पार के लिये रवाना हो जाती है। मेरा मन होता है कि मैं भी लपक कर सवार हो जाऊं नाव में। पर मुझे अपनी नित्य चर्या ध्यान आती है। यह नाव तो दो घण्टे में वापस आयेगी। मैरे पास तो आधे घण्टे का ही समय है घर पंहुचने में।
अपने हाथ क्यों नहीं होता समय? या फिर समय होता है तो प्रभुता झर चुकी होती है! 😦
उस पार चल मन!
ऊंट को अभी कुछ दिनों और जीना है, कुर्बान होने तक. प्रासंगिक नहीं है फिर भी निरीह ऊंट के कत्ल को देखने के बाद भड़ास निकल ही जाती है.
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अगर आप मन को पारदर्शी बना सके तो?
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हां – मन और व्यवहार की पारदर्शिता तो शायद इस जन्म के परे भी साथ देती है! जन्म के उस पार!
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अगर आप मन को पारदर्शी बना सके तो कौन के पार?
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पारदर्शिता तो सापेक्ष ही होगी। जितना स्वत्व की समझ होगी, उतनी पारदर्शी!
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ऊंट भी डकार लेता है।
समस्या तो डकार न लेने की है !
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आप शायद सियारों की बात कर रहे हैं! 🙂
आजकल बहुत चर्चा में हैं। तिहाड़ तक में!
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मेरे साजन हैं उस पार, मैं मन मार…
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🙂 ,
उस पार न जाने में आशंकायें भी रोल अदा करती हैं –
मेरा तो होता मन डगडग,
तट पर ही के हलकोरों से!
जब मैं एकाकी पहुँचूँगा
मँझधार, न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!
(हरिवंशराय बच्चन)
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अगली बार सारी आशंकायें धरी रह जायेंगी और उत्सुकता खींचकर ले जायेगी, ऐसा मुझे लगता है.
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गंगा उस पार के बारे में निश्चय ही औत्सुक्य भारी बैठेगा।
बच्चन जी तो शायद Fear of Change के फिनॉमिना की बात कर रहे हैं। जो बहुत से क्षेत्रों में लागू है और आधी जिन्दगी गुजारने के बाद ज्यादा प्रोनाउंस्ड हो जाता है।
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ऐसी ही ललक उठती न जाने कितनी बातों पर…मगर रोक लेना होता है खुद को…
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आप भोजपुरी मे भी लिखल कैइल जाय.
पढले मे अछ्छा लागी.
नदिया बहुत अछ्छी बढियां लागति बाय.
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धन्यवाद ज्ञानेन्द्र नाथ जी। मैं अवधी समझ-बोल लेता हूं – कामचलाऊ। भोजपुरी पर कमाण्ड नहीं है। मेरी पत्नीजी वाराणसी की हैं, और भोजपुरी में मेरी सहायता करती हैं।
आपका ब्लॉग देखा – पथ का राही। आपकी कविता विरह गीत में बहुत सुन्दर प्रतीक हैं – नयन, परदेश, सजन, चिरई, बादल/मेघ, अन्धियार — आप निश्चय ही माटी की समझ रखते हैं!
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मिट्टी का शरीर है.
जहाँ की मिट्टी है वहाँ कि खुश्बू .
सब ईश्वर की महिमा है.
और आपका आशीर्वाद.
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कुछ जगहें दैवीय होती हैं! गंगा के किनारे उनमें से हैं। भले ही मणिकर्णिका या हरिश्चन्द्र घाट हों!
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प्रभुता सांसारिक है और समय नैसर्गिक। एक का झड़ना तय है और एक का आगे बढ़ते जाना।
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समय होता है तो प्रभुता झर चुकी होती है-जी यही सच !
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