ज्ञानदत्त पाण्डेय का ब्लॉग। भदोही (पूर्वी उत्तर प्रदेश, भारत) में ग्रामीण जीवन। रेलवे के मुख्य परिचालन प्रबंधक पद से रिटायर अफसर। रेल के सैलून से उतर गांव की पगडंडी पर साइकिल से चलता व्यक्ति।
हिन्दी ‘सेवा’ की बात ब्लॉगजगत में लोग करें तो आप भुनभुना सकते हैं। पर आपके सपोर्ट में कोई आता नहीं। पता नहीं, इतने सारे लोग हिन्दी की सेवा करना चाहते हैं। हिन्दी ब्लॉगजगत में सभी स्वार्थी/निस्वार्थी हिन्दी को चमकाने में रत हैं और हिन्दी है कि चमक ही नहीं रही। निश्चय ही हिन्दी सेवा पाखण्ड है। यह पाखण्ड चलता चला जा रहा है।
पर जब अज्ञेय जैसे महापण्डित ‘हिन्दी हितैषी’ की बात करते हैं तो मामला रोचक हो जाता है। आप उनका लिखा पढ़ें –
अज्ञेय के व्यक्तित्व और कृतित्व को समझने के लिए ‘आत्मनेपद’ उपयोगी ही नहीं, अनिवार्य है
क्या आप हिन्दी के हितैषी हैं?
हिन्दी के हितैषियों को बार बार प्रणाम, जिनकी हितैषणा कुछ कम होती तो हिन्दी की उन्नति कुछ अधिक हो पाई होती! हितैषीगण हिन्दी की रक्षा के नाम पर उसके चारों ओर ऐसी दीवार खड़ी कर के बैठे हैं कि वह न हिलडुल सके न बढ़ सके, न सांस ले सके, और बाहर से कुछ ग्रहण करने की बात ही दूर! बिना रास्ता देखे चला नहीं जाता तो बिना समीक्षा के साहित्य निर्माण भी नहीं हो सकता; लेकिन हितैषियों के कारण समीक्षा असम्भव हो रही है, क्योंकि जो ‘सम’ देखना चाहता है वह तो हिन्दी-द्वेषी है, विश्वास्य समर्थक नहीं है। हम ने गोरक्षा के नाम पर सारे भारतवर्ष को एक विराट पिंजरापोल बना डाला। जिसका गो धन सारे संसार में निकृष्ट कोटि का है। क्या हम हिन्दी रक्षा के नाम पर अपने साहित्य को भी एक पिंजरापोल बना डालेंगे, जिसमें उत्पादक तो असंख्य होंगे, लेकिन सभी अधभूखे, अधमरे, निस्तेज; जिसकी प्रतिभा अनुर्वर होगी और उत्पादन उपहासास्पद (यद्यपि उसपर हंसने की अनुमति किसी को न होगी!) और जिसमें हम साहित्य-नवनीत के बदले कारखानों का ‘बिना हाथ के स्पर्श से’ तैयार किया गया वनस्पति ही पाने को बाध्य होंगे।
[आत्मनेपद, अज्ञेय, लेख – हिन्दी पाठक के नाम। भारतीय ज्ञानपीठ।]
अज्ञेय को पढ़ना थोड़ा मेहनत का काम है – उसके लिये जो हिन्दी का ‘हितैषी’ नहीं है। लेकिन थोड़ा पढ़ने पर स्पष्ट हो जाता है कि वे हिन्दी की कोई महंतई नहीं कर रहे। बेबाक कह रहे हैं। उनका कहा जमता हो या न जमता हो, दरकिनार तो कतई नहीं किया जा सकता।
आप हिन्दी के ब्लॉगजगतीय (या वैसे भी) महंतगण की सादर अवहेलना कर सकते हैं – और मैने तो वैसा ही सोचा है। आप हिन्दी हितैषियों का कुटिल या मूर्खतापूर्ण खेल नजरअन्दाज कर भी हिन्दी के प्रति संवेदनयुक्त हो सकते हैं।
हिन्दी ब्लॉगजगत हिन्दी का पिंजरापोल ही है! जर्सी गायें कितनी हैं भाई?!
[टोटके की बात पूछी थी प्रवीण शाह ने। यह पोस्ट एक टोटका है। आप हिन्दी सेवा/हिन्दीहितैषणा की बात करें। तथाकथित महंतगण और उनके चेलों को अज्ञेय जैसे तर्कसंगत और बौद्धिकता के शिखर पर अवस्थित महापण्डित से सटा दें। हिन्दी हित का चोंचला आप अपनी सामर्थ्य में टेकल नहीं कर सकते। बेहतर है अज्ञेय का आह्वान करें! 😆
बस एक दिक्कत है। हिन्दी के हितैषी पत्र-पत्रिका छाप हिन्दी पसन्द करते हैं। अज्ञेय गरिष्ठ हो जाते हैं। अत: यह भी हो सकता है कि यह पोस्ट नजरअन्दाज हो जाये! ]
Exploring village life.
Past - managed train operations of IRlys in various senior posts. Spent idle time at River Ganges.
Now reverse migrated to a village Vikrampur (Katka), Bhadohi, UP.
Blog: https://gyandutt.com/
Facebook, Instagram and Twitter IDs: gyandutt Facebook Page: gyanfb
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सतीश जी,
ठीक ही है। हम बहस में उलझ कर करेंगे क्या? बस कितनी अच्छी बात है कि अंग्रेजी के शब्द हमारी भाषा में घुस रहे हैं। औसत हम अगर ये मान लें कि एक शिक्षित कहे जाने वाले आदमी पाँच हजार शब्द प्रयोग में लाता है तो बस देख लें कि इनमें से कितने प्रतिशत शब्द अंग्रेजी के हैं? सूची भी दे रहा हूँ जो अब तक निकाला है।
हिन्दी में लिखने भर से कोई हिन्दी को मिशन नहीं बना सकता। मैं आपसे सहमत हूँ कि लोग पढ़ाते तो अंग्रेजी माध्यम से हैं अपने बच्चों को लेकिन शोर खूब मचाते हैं। लेकिन आपने नया कुछ नहीं कहा। मेरी बहन एम ए(हिन्दी) में थी तब मुझसे कहा था कि कॉलेज में हिन्दी दिवस पर कुछ कहना है। मैंने कहा था कि मंच पर जाना और सीधे पूछना कि किस प्रोफ़ेसर के बच्चे किस माध्यम से पढ़ते हैं और क्या करते हैं। उसके बाद बस पूछकर, निष्कर्ष निकाल कर बता देना। और मंच से चले आना। और कुछ कहने की जरूरत नहीं लेकिन उसने यह नहीं किया।
Ability
Able
Abnormal
Abortion
Absence
Absent
Abuse
Accept
Acceptance
Accident
—
{यह एक बहुत लम्बी लिस्ट टिप्पणीकर्ता ने कहीं से कट-पेस्ट कर ठेल दी है, जिसे यहां ब्लॉग पर लगाना मैं उपयुक्त नहीं मानता। यह ट्रंकेटेड लिस्ट आशय स्पष्ट करने को पर्याप्त है| टिप्पणी की जगह की अपनी मर्यादा है, अच्छा होता मिश्र जी उसका ख्याल करते। – ज्ञानदत्त पाण्डेय।}
—
Year
Yearly
Yellow
Yes
You
Young
Youth
Zoology
अभी तो और बहुत हैं। यानि 5000 में 2000 से अधिक शब्द। हम भी अब नहीं कहेंगे। यहाँ कहने से कोई फायदा तो है नहीं।
मैंने कट-पेस्ट किया है? क्या किया है? 2000 शब्दों को चुन-चुनकर लिखा है। ऐसा नहीं कि कहीं से उठाकर लिख दिया था। अभी भी वह काम मैं कर ही रहा हूँ लेकिन आपने कट-पेस्ट की बात कहकर ठीक नहीं की है।
मजबूरन मुझे यहाँ फिर कुछ कहना पड़ा। माफ़ी चाहूंगा इसके लिए।
सच में ‘हिन्दी के हितैषियों की हितैषणा कुछ कम होती तो हिन्दी की उन्नति कुछ अधिक हो पाई होती’. हिंदीसेवियों ने जम कर सेवन किया है हिंदी का . हिंदी गरीब है पर हिंदी के मठाधीश और हिंदी की संस्थाएं अमीर हैं. हिंदी नाम की गाय का मुंह गरीब हिंदीभाषियों के हिस्से आया है ताकि चारा खिलाते रहें . और उस गाय के थन हितैषियों उर्फ सेवियों के हिस्से आए हैं ताकि वे दूध पी-पीकर चिंतातुर रह सकें.
आपने समझदारी की जो अज्ञेय का सहारे अपनी बात कही. वरना हितैषी लोग अभी आपके अभिनंदनार्थ जमा हो जाते. हिंदी हित का चोंचला अब अंतरराष्ट्रीय चोंचला है. “हिन्दी हित का चोंचला आप अपनी सामर्थ्य में टेकल नहीं कर सकते।”
मुझे अज्ञेय तो गलती से हिन्दी में आ गए लगते हैं। उनकी शेखर एक जीवनी को मैं पसन्द करता हूँ लेकिन उसे पढ़ना सामान्य पाठक जैसा कि मैं हूँ, के वश की बात नहीं है। अंग्रेजी की कितनी कविताएँ हैं उसमें! लगता है अज्ञेय ने सोच लिया था कि यह उपन्यास पढ़ते समय पाठक को अंग्रेजी भी पढ़नी होगी।
अमरेन्द्रनाथ त्रिपाठी जी,
यह सौ प्रतिशत झूठ है कि हिन्दी सिनेमा ने हिन्दी को फैलाया। बस थोड़ा इन्तजार कीजिए तो इस पर बहुत कुछ लिखा है, प्रस्तुत करूंगा।
अज्ञेय खुद लिखते हैं कि लोग कहते हैं, किसी ने अंग्रेजी कविता न पढ़ी हो तो उसकी समझ के लिये अज्ञेय को पढ़ ले! 🙂
बाकी, हिन्दी सिनेमा के प्रति आपके लेख की प्रतीक्षा होगी।
मैं इन चित्रों को नहीं समझ पाता क्योंकि इनसे मेरा कोई वास्ता नहीं रहा है। चित्र मतलब यह चैट वाला मुस्कुराता पीले रंग का चित्र।
अब अज्ञेय पर। अज्ञेय की उपर वाली बाय अगर सही है तो क्या हम अंग्रेजी साहित्य के लिए अज्ञेय को जानते हैं? हिन्दी साहित्य पढ़नेवाले को अंग्रेजी कविता पढ़ाना सही तो नहीं लग रहा है। किसी आम पाठक को अज्ञेय की किताब दे दी जाय तो वह उसे फेंक देगा। यह बात शेखर के लिए है, जैसा मैं समझता हूँ। क्योंकि अज्ञेय ने क्लिष्टता की सीमा पार करके संस्कृत ग्रन्थों को भी मात दे दी है, आम पाठक ऐसा ही सोचेगा। हिन्दी शब्द भी उन्होंने अधिकतर वैसे ही लिखे हैं। हाँ उपन्यास मुझे अच्छा लगा था और शेखर भी।
इस स्माइली के अलावा भी जो आप समझना चाह रहे हैं, या समझ रहे हैं – पर्याप्त है। स्माइली तो मात्र लिखने वाले के मनोभाव दर्शाती है, जिसके लिये शब्द बनाने में उसको बहुत मशक्कत करनी पड़ती। 😆
अज्ञेय या उनका साहित्य मेरा सगा नहीं है, आप जो भी विचार रखते हों, स्वागत है। पर ऊपर उनका जो उद्धरण है कि हिन्दी वालों ने हिन्दी की दुर्गति कर दी है; वह सोलह आना सही है!
अमरेन्द्र जी की इस बात से मेरी काफी हद तक सहमति है कि हिन्दी सिनेमा द्वारा हिन्दी की अघोषित सेवा की गई है। हिन्दी सिनेमा वाले उन चपड़गंजू जुगाड़ियों की तरह ललकारते नहीं कि हम हिन्दी की सेवा कर रहे हैं। वो फिल्मों के जरिये हिन्दी का इस्तेमाल कर भले ही लाभ कमायें लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से ये हिन्दी के प्रसार में बहुत बड़ी भूमिका निभा रहे हैं।
यदि कभी हिन्दी की जमीनी हकीकत देखनी हो तो अपने नजरिये को थोड़ा सा बदल कर देखें। केवल किताबी क्लिष्ट हिन्दी बोलना लिखना ही सेवा कहलायेगा ये धारणा जितनी जल्दी हो मन से निकाल देना अच्छा रहेगा।
एक उदाहरण के जरिये बताना चाहूँगा कि अपने कॉलेजीय जीवन के दौर में हम लोगों को सोशल सर्विस के तौर पर कुछ घंटे देने पड़ते थे। इस दौरान किसी को सरकारी अस्पताल में किसी को ट्रैफिक सिग्नल पर तो किसी को कुछ समय शिक्षा के प्रसार आदि के लिये देना पड़ता था।
ऐसे में एक कालेज की एक लड़की ने किसी को शिक्षित करने का कार्य चुना। उसने अपनी काम वाली बाई जो कि मराठीभाषी थी, उसे हिन्दी सिखाने की ठानी। शुरू में किताब में जब शुष्क हिन्दी के शब्द उस महिला में रूचि न जगा पाये तो उसने अनोखे रास्ते के तौर पर अखबार में फिल्मों के विज्ञापन पढ़ने को दिया जिसमें उस कामवाली ने फिल्मों के नाम हिरो हिरोइनों के चित्र के साथ बड़ी जल्दी पढ़ना सीख लिया। धीरे धीरे उसने फिल्म के नाम के साथ नीचे छोटे छोटे अक्षरों में लिखे फिल्म स्टारों के नाम पढ़ना सीखा और ऋषि कपूर, जूही चावला, अमितान बच्चन (अमिताभ नहीं : ) कहना सीखा । छह महीने जाते जाते वह अनपढ़ मराठी भाषी महिला हिन्दी पढ़ने लगी।
कुछ मेरे दक्षिण भारतीय कलीग्स जब नये नये मुम्बई आये तो वे भी हिन्दी सीखने के लिये हिन्दी फिल्में देखते थे। हिन्दी के असर को उसके कार्यप्रणाली को जमीनी तौर पर ऐसे लोगों से मिलने, उन्हें जानने से पता चलता है कि हिन्दी के प्रसार प्रचार में हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री की क्या भूमिका है। केवल टिपिर टिपिर टिपियाने से और फीसद गिनने से असलियत नहीं पता चलती 🙂
मैंने लिखा था कि हिन्दी सिनेमा पर और हिन्दी के प्रचार पर मैंने लिखा है और कुछ मिलाकर प्रस्तुत करूंगा। आपने इन्तजार नहीं किया। मुझे आपकी बातों में व्यंग्य दिखाई पड़ता है और मैं भी अब इसी क्रम में कुछ कह देता हूँ।
हिन्दी सिनेमा हिन्दी को डुबाने में भी योगदान दिया है। आपकी इस बात से मेरी सहमति है कि हिन्दी के सरकारी संस्थानों ने हिन्दी के नाम पर सिर्फ़ झूठ बोला है और नकली प्रचार किया है। लेकिन हिन्दी का बढ़ना आप कहते किसे हैं? आप इन्तजार तो करें, किताब लगभग 90 प्रतिशत लिख चुका हूँ। आप सादर आमंत्रित हैं किताब के तर्कों और तथ्यों की आलोचना करने के लिए।
आपकी मराठीभाषी महिला वाली बात में कुछ खास नहीं दिखता। मराठी की लिपि भी देवनागरी ही है। यह आप जानते हैं। फिर हिन्दी क्यों? मराठी की बात हो।
आपने मुझे बिना जाने यह कह दिया है कि -‘यदि कभी हिन्दी की जमीनी हकीकत देखनी हो तो अपने नजरिये को थोड़ा सा बदल कर देखें। केवल किताबी क्लिष्ट हिन्दी बोलना लिखना ही सेवा कहलायेगा ये धारणा जितनी जल्दी हो मन से निकाल देना अच्छा रहेगा।’
हमारे यहाँ तो हर आदमी सब कुछ जानता है, दिक्कत यही है। केवल हिन्दी क्लिष्ट है, क्या बात है? हिन्दी का प्रचार हिन्दी सिनेमा वाले कितना करते हैं, इस पर यहाँ लिखने का इरादा नहीं है। क्योंकि अपने ब्लाग पर कुछ दिन में प्रस्तुत करूंगा। फिर आपके तर्कों का स्वागत होगा।
यह शुष्क हिन्दी क्या है? शुष्क कुछ नहीं है, साहब! शुष्क लोग हो सकते हैं। मैं अपने ब्लाग पर लिखता हूँ। क्या शुष्क लिखा है? बताइए। कौन से जटिल शब्द लिखे हैं मैंने? मैंने अपनी किताब में इस बात को भी लिया है कि जटिल क्या है?
‘केवल टिपिर टिपिर टिपियाने से और फीसद गिनने से असलियत नहीं पता चलती ‘
यह क्या है, साहब! मैं इन बातों को लेकर 200 से ज्यादा पृष्ठ की किताब में लिख चुका हूँ और इस पर अब फिर लिखना आसान नहीं है। प्रचार का आधार संख्या नहीं तो और क्या है?
धैर्य रखें। हाँ, भागूंगा नहीं जवाब दिए बिना।
आवश्यक काम से लिख नहीं पाया। फिर थोड़ा लिख दे रहा हूँ। मराठीभाषी महिला के हिन्दी सीखने में फिल्म का कोई योगदान है तो वह सीखाने के चलते आया है न कि फिल्म के चलते। सबूत भी है। सुनिए। आपने एक महिला का उदाहरण दिया है। आप जानते होंगे कि शिक्षा में शुरु में भाषा के आसान शब्द बताए जाते हैं, यह कैसे उस महिला को शुष्क लग सकता है? बिहार में हर साल लाखों बच्चे विद्यालय में आते हैं और हिन्दी लिखना सीखते हैं। और हिन्दी पढ़ना भी सीखते हैं। मैं तो वहाँ फिल्मों का कोई योगदान नहीं देखता। बस मनोहर पोथी छाप किताब से सीख लेते हैं। यही हाल हिन्दी सिनेमा से पहले का है। मेरे पास एक किताब है- हिन्दी के यूरोपीय विद्वान। बड़ी किताब है। उसमें से सभी अंग्रेज या अभारतीय विद्वानों ने हिन्दी सीखने के लिए सिनेमा की कोई मदद लिए बिना हिन्दी सीखी है।
आप बताइए कि मैं एक महिला का उदाहरण देखूँ कि बिहार और अन्य हिन्दी भाषी राज्यों के करोड़ों छात्रों का।
हिन्दी की दुर्गति करनेवाले हिन्दी के लोग अधिक हैं, इससे सहमत हूँ। लेकिन अंग्रेजी शब्दों को कितना आवश्यक बनाकर घुसा दिया है, यह भी तो देखिए। मैंने अपने किताब में एक पूरी सूची दी है जो बताती है कि हिन्दी के साथ क्या किया है अंग्रेजीमोही हिन्दी वालों ने। अरविन्द कुमार पर एक आलेख है। वहाँ भी देखिए।
ये सारे प्रौढ़ शिक्षा के लफ़्ज अपने आप में बेहद सरल ढंग से लिखे गये हैं लेकिन जब इन्हें प्रौढ़ों को पढ़ाना होता है तो रोचकता होना बहुत जरूरी है। तब तो और भी ज्यादा जब प्रौढ़ उम्र वाले लोगों में पढ़ने-सीखने की इच्छा न के बराबर हो।
यहां जो उद्देश्य था वह अनपढ़ महिला को शिक्षित करना था। चूंकि सिखाने वाली लड़की हिन्दीभाषी थी तो उसने हिन्दी ही सिखाया, ये अलग बात है कि हिन्दी और मराठी देवनागरी ही है।
मैंने कई प्रौढ़ों को किताब थामते और अरूचिकर देख पढ़ाई से हटते देखा है। कइयों को बाकायदा आगे आगे पढ़ते भी देखा है। लेकिन यहां इस मायने में फिल्मी हिन्दी खास हो उठी क्योंकि उसने किसी के पढ़ने में रूचि जगाई, उसकी पढ़ाई में सहायता प्रदान की।
मैं यहां पर दो चार स्माइली लगाकर फिल्मों के नाम स्पेशल अंदाज में लिखने वाला था, लेकिन आप को तो स्माइली समझ नहीं आती ( जैसा कि आपने लिखा है) सो ऐंवे ही रैण देता हूँ।
फिल्मी हिन्दी से कितना लाभ होता है यह जानना हो तो किसी दक्षिण भारतीय से मिलिये जो कि नया नया किसी शहर में आया हो, मेरे ख्याल से उससे बेहतर कोई नहीं बता सकता इस अप्रत्यक्ष लाभ के बारे में।
भाई चंदन जी,
आपका ई-मेल मुझे मिला कल सुबह ही, आपका उत्साह सराहनीय है, किताब लिखिये, अच्छा काम है पर किसी पूर्वनियोजित निष्कर्ष के साथ या एकतर्फिया होकर मत लिखिये, तो सोने में सुहागा होगा।
मेरी सिनेमाई हिंदही मेहरबानी की बात को सौ फीसदी झूठ कहकर आपने तो मेरा मुह ही मूद दिया, १-२ % भी मुझे सही कह देते प्रभु 🙂
बाकी इस संदर्भ में सतीश जी की बात का समर्थन करता हूं, उसे ही मेरा कथन मानिये।
हिन्दी के निर्माणकर्ताओं/विका(ना)स कर्ताओं/विद्वानों/हित-चिंतकों की बड़ी बड़ी घोषणाओं से अलग हिन्दी फैलाने में बंबइया सलीमा की बहुतै भूमिका थी, मानो चाहे न मानो, मुल सच्चाई को जानो। क्योंकि इसने संपर्क भाषा के लिहाज से हिन्दी को चुना था, न कि कठोरी करण के लिये, सो इस उपयोगिताबाद के सिनेमाई हिंदही मेहरबानी सराहनीय है।
बाकी हिन्दी को हिन्दी के निर्माणकर्ताओं/विका(ना)स कर्ताओं/विद्वानों/हित-चिंतकों ने जनता से दूर रखने का कार्य बहुत पहले से शुरू किया जहां, “बोलियों के नजदीक जाने” के जुमले को उछाल-उछाल के बड़ा बंटाधार किया गया, बोलियों का विशेष करके और ‘राजभाषा’ हिन्दी तो बंटाधार हुई ही! इस संदर्भ में ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को रखते हुये मेरे मित्र रवि कुमार यादव के विचार को यहां रख रहा हूं, जिसे उनहोंने आज ही चर्चा के दौरान मेरी फेसबुकीय वाल पर रखा था, यह इस प्रकार है(इससे हिन्दी के जन-कटाव वाले संस्कार को आप समझें कि बात कहाँ से आती है)::
“ बोलियों के सन्दर्भ में ..बोलियाँ भाषा को उर्जा देती है तो फिर क्यों कर बोलियों को छोड़ कर के संस्कृत का दामन थाम लिया गया. कहना यह चाहता हूँ की बोलियों का राग अलापने के लिए अलापा जाता रहा है ताकि इन बोलियों के बोलने वालों के बीच हिंदी की स्वीकृति पैदा की जा सके .संस्कृत कोई बोली तो थी नही तो श्रेष्ठ सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने के नाम पर हिंदी के उपर थोप दिया गया .संस्कृत को हिंदी में घोल देने का काम हिंदी आन्दोलनकारियों की कोई मौलिक खोज नही थी .यह काम हिंदी वालों से पहले बंगला में राजा राम मोहन राय,विद्यासागर ,बंकिम चन्द्र कर चुके थे और जाहिर है इस से जो नुकसान बंगला का होना चाहिए था साफ तौर पर हुआ भी .बंगला जो जन भाषा थी उन्नीसवीं शताब्दी में संस्कृत के घाल मेल से अभिजन भाषा बना दी गयी .इसके पीछे के कारणों का पता लगाने का प्रयास करने पर पता चलता है कि राजा राम मोहन राय जैसे विद्वान लोगों की शिक्षा औपनिवेशिक काल के पूर्व भारत में विद्यमान शिक्षा प्रणाली में हुई थी .इस प्रणाली में संस्कृत,अरबी, फारसी भाषाएँ शिक्षा का माध्यम थीं.बंगला लिखते वक़्त संस्कृत का सुविधा जनक चुनाव कर लिया गया और तथाकथित विदेशी भाषाओं को छोड़ दिया गया .हिंदी के पिछलग्गू आन्दोलनकारियों ने बंगला भाषा के इसी मॉडल को अपना लिया .कहने को भारतेंदु जी हिंदी [भारतेंदु जी स्ववं इसे तब तक “नई भाषा “कहते थे ]को बोलचाल की भाषा के करीब लाने की वकालत करते थे लेकिन हिंदी में कविता के क्षेत्र में छायावाद जैसा काव्य आन्दोलन चला जिसकी भाषा कृत्रिम भाषा थी .इस में कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए लेकिन हिंदी की परम्परा से अनभिज्ञ लोगों को आश्चर्य होता है.उन्नीसवीं शताब्दी के हिंदी के विकास से पता चलता है की किस प्रकार से हिंदी को गढ़ा गया.छायावादियों की कृत्रिमता हिंदी की प्रकृति से बिलकुल संगत बैठती थी .सैमुअल हेनरी केलाग[१८७६] हिंदी का व्याकरण तो लिख् मारेलेकिन हिंदी खड़ी बोली नाम कि कोई बोली नही खोज पाए और मजबूर होकर उनको कहना पड़ा कि जो बोली इस क्षेत में समझी जाती है उसका कोई अपना क्षेत्र नही है .ग्रियर्सन साहिब[१८८९] तो कहते ही थे कि हिंदी किसी कि मादरी जुबान नहीं है और इसी वजह से गद्य और पद्य कि भाषा में फर्क पैदा हुआ .भारतेंदु जी के काल में कविता कि भाषा ब्रज बनी रही ,गढ़ने कि प्रक्रिया जारी थी और छायावाद में पूरी हो गयी [कृपया केलाग और ग्रियर्सन के विचारों को साम्राज्यवादियों के विचार कह करके ख़ारिज करने कि भूल न की जाये क्यों की अभी तक यही किया जाता रहा है ,इस सन्दर्भ में कुछ “कुंठा ग्रस्त” भारतीयों का भी उल्लेख कर सकता हूँ लेकिन अभी नहीं करूँगा ]. इनमे से कोई बात मेरी मौलिक उद्भावना नही बल्कि हिंदी भाषा के विकास पर शोध करने वाले विद्वानों ने इस बात को रेखांकित किया है ” [ ~ मित्र रवि कुमार यादव की बात ]
उम्मीद है आपको काफी बातें क्लीयर होंगी, नहीं तो मुझे गलत मानकर किनारे डाल दीजियेगा, क्योंकि ब्लोगबुड में अब ज्यादा बहसियाने की ताब मुझमें नहीं रही, बूढ़ा हो लिया ! थकोहम्!!
मैंने कल सतीश जी को मेल किया था क्योंकि रिप्लाई का विकल्प यहाँ नहीं दिखा। पहले वह मेल पढ़वाते हैं। फिर सोचा जाएगा। हाँ, यह गलती हमसे हो गई कि हम 100 प्रतिशत कह बैठे। कहना चाहिए था कुछ प्रतिशत। इसके लिए माफ़ी चाहता हूँ। आइए मेल पढ़िए।
________________
सतीश जी,
अगर आपका तात्पर्य आजकल की फिल्मों से है तब तो कुछ भी कहना ठीक नहीं
होगा। क्योंकि आज की फिल्मों में सहायक क्रियाओं और एकदम सीधे-सादे
शब्दों को छोड़कर शायद ही कोई शब्द या वाक्य हिन्दी में बोले जाते हैं।
अगर आपका तात्पर्य पुरानी फिल्मों से है तब ठीक है। पूरा तो नहीं लेकिन कुछ हद तक।
बात प्रौढों की है तब तो दो बातें सम्भव हैं।
पहली कि हिन्दी सिनेमा मुश्किल से साठ साल पुराना है। अगर और अधिक सही
कहें तब मात्र 30-40 साल पुराना क्योंकि प्रसार बाद में हुआ। शुरु में तो
बस शहर के लोग ही देखते होंगे। यानि साठ साल पहले प्रौढ शिक्षा का काम आज
से सम्भवत: ज्यादा होने के बावजूद बिना फिल्म के चलता था।
दूसरी बात कि अगर प्रौढ शिक्षा में छात्रों की संख्या देखें तो कितनी है?
कुछ लाख ही हो सकती है। वह भी शायद ही। उसमें से कितने लोग फिल्म की मदद
से शिक्षा ले रहे हैं? शायद कुछ हजार ही। अब बताइए कि इस संख्या को
पर्याप्त माना जाय?
दक्षिण के दस-बीस लोग अगर हिन्दी सीख भी गए तो कोई बड़ी बात नहीं हो गई।
आप गाँधी जी की एक किताब है -‘मेरे सपनों का भारत’, उसके आँकड़ें देखें।
नवजीवन से छपी है। आप देखेंगे कि आज से शायद कई गुना अधिक लोग हिन्दी
सीखते थे वह भी बिना फिल्म के। सेवा का अर्थ भी अलग अलग तरीके से देखा जा
सकता है। अंग्रेजों ने रेल का प्रसार किया अपने फायदे के लिए तो उसे
विकास की नजर से नहीं देखकर भारत के आर्थिक पक्ष की तरफ़ नजर रखकर देखना
और सोचना सही जगह ले जाएगा। क्योंकि आलोचना और संदेह सत्य की तरफ़ ले
जाते हैं।
अगर मान लें कि फिल्मों की मदद से हिन्दी सीखने वाले ऐसे दक्षिणी लोगों
की संख्या एक-दो लाख है तो यह संख्या 121 करोड़ में कुछ नहीं है और इसके
लिए हम सिनेमाई नौटंकीबाजों का समर्थन या उनका पक्षपात नहीं कर सकते।
कितना सही माना जाय कि साल में दस हजार करोड़ खर्चकर के फिल्में बनें और
वह भी चालीस-पचास प्रतिशत अंग्रेजी में, और उसके दम पर देश के एक प्रतिशत
भी नहीं मात्रा .02 या अधिक से अधिक .03 प्रतिशत लोग हिन्दी बोलें? मैं
तो इन बातों पर हँसूंगा।
लेकिन आप आँकड़ों को सत्य नहीं मानते हों या इन बातों को प्रचार का आधार
नहीं मानते हों तब क्या कहें? हिन्दी के नाम पर चलने वाले लूट-संस्थानों
ने निश्चय ही नगण्य काम किया है, इसमें मैं आपसे सहमत हूँ।
देखिये चंदन जी, इस मसले पर मुझे आगे बहस की इच्छा नहीं हो रही क्योंकि वैसे भी हिन्दी के नाम पर बोलबचनों का भण्डार है। जो लोग रात दिन रात दिन हिन्दी-हिन्दी करते हैं तो करते रहें मुझे उनकी हिन्दी प्रियता से कोई स्नेह नहीं है। वैसे भी कुछ बीमारियों को यूं ही छोड़ दिया जाता है कि समय आने पर खुद ब खुद ठीक हो जाएंगी, ये हिन्दी सेवा की ‘रट लगाये रहना’ भी एक तरह की बीमारी ही है।
अपनी बात कहूं तो मैं हिन्दी में इसलिये लिखता हूं क्योंकि हिन्दी पढ़ना और लिखना मुझे अच्छा लगता है। मैं किसी मिशन के तौर पर नहीं लिख रहा हूँ कि हिन्दी बढ़े, पल्लवित हो। नेट पर जो भी हिन्दी में लिखा जा रहा है ज्यादातर शौकिया लिखा जा रहा है न कि मिशनरी बेसिस पर। मुझे यदि कोई कहे कि हिन्दी का प्रचार करने की मुहिम से जुड़िये तो मैं कत्तई न शामिल होउंगा। जो लोग ऐसा कहने को करते हैं जरा उनसे पूछिये कि आप के बच्चे किस मिडियम से पढ़ाई कर रहे हैं, अंग्रेजी या हिन्दी। हें हें करते कहेंगे कि वो तो बच्चों के लिये करना पड़ता है। तब सारी हिन्दीयत गदहे के फलाने जगह घुसुर जाएगी।
मैं खुद अंग्रेजी मिडियम से अपने बच्चों को पढ़ा रहा हूँ, किस मुँह से हिन्दी सेवी अभियान में शामिल होउं और क्यों ? हिन्दी जैसी है, अच्छी है। लड़खड़ा कर बढ़े चाहे उछल कर, चाहे घिसट कर लेकिन वो बढ़ने के लिये किसी हिन्दीसेवी की मुहताज नहीं है। वह बढ़ रही है लोगों के शौक से वो बढ़ रही है लोगों द्वारा अपनाने योग्य उसकी सहजता से। उसमें यदि अंग्रेजी के शब्द घुल मिल रहे हैं तो क्यों बिदकना, यही तो हिन्दी की खूबी है कि वो मल्टीलिन्गुअल बनते हुए सबको अपने आप में समाहित कर रही है। जिन्हें हिन्दी सेवा के नाम पर अंग्रेजियत आने से एलर्जी हो उनकी वो जाने। फिलहाल मैं इस विषय पर और बहस करने के लिये उत्सुक नहीं हूँ।
पिंजरापोल का अगर यह विस्तार है कि पूरे विश्व को बांधे है तो कोई बुरा नहीं…चिन्ता न करें, मुरझायेगी नहीं कोई फसल ऐसे पिंजरापोल में..आप तो सींच ही रहे हैं.
हिन्दी की गत बनाने में हिन्दी हित-चिंतकों का खास योगदान है, अंततः सब कुछ ढाक के तीन पात की तरह स्वार्थ-मूल से ही जुड़ जाता है। अपनी ब्रांड, दुकान, विक्रेता, ग्राहक तक सीमित रह जाता है मामला!
किसी हित-चिंतक से ज्यादा हिन्दी को बंबइया सिनेमा ने फैलाया, जिसने कभी हित-चिंतक का उद्घोष नहीं किया, दूसरी तरफ विश्व-विद्यालय रिसर्च कराते रहे जिन्हें कोई नहीं पूछता, कुछ समय बाद सब को घुन चाट लेंगे।
कृपया – ये हिन्दी सेवा भी एक तरह की बीमारी ही है….की जगह
ये हिन्दी सेवा की ‘रट लगाये रहना’ भी एक तरह की बीमारी ही है – पढ़ें.
मैने उक्त संशोधन कर दिया है! – ज्ञानदत्त
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ज्ञान जी,
ये टिप्पणियों में बदलाव वाला वर्डप्रेस फीचर तो जोरदार रहा 🙂
संभवत: मुश्किल तब आएगी जब गलत हाथों में, गलत नीयत से यह बदलाव वाला फीचर इस्तेमाल होगा।
बहुत बहुत धन्यवाद।
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सतीश जी,
ठीक ही है। हम बहस में उलझ कर करेंगे क्या? बस कितनी अच्छी बात है कि अंग्रेजी के शब्द हमारी भाषा में घुस रहे हैं। औसत हम अगर ये मान लें कि एक शिक्षित कहे जाने वाले आदमी पाँच हजार शब्द प्रयोग में लाता है तो बस देख लें कि इनमें से कितने प्रतिशत शब्द अंग्रेजी के हैं? सूची भी दे रहा हूँ जो अब तक निकाला है।
हिन्दी में लिखने भर से कोई हिन्दी को मिशन नहीं बना सकता। मैं आपसे सहमत हूँ कि लोग पढ़ाते तो अंग्रेजी माध्यम से हैं अपने बच्चों को लेकिन शोर खूब मचाते हैं। लेकिन आपने नया कुछ नहीं कहा। मेरी बहन एम ए(हिन्दी) में थी तब मुझसे कहा था कि कॉलेज में हिन्दी दिवस पर कुछ कहना है। मैंने कहा था कि मंच पर जाना और सीधे पूछना कि किस प्रोफ़ेसर के बच्चे किस माध्यम से पढ़ते हैं और क्या करते हैं। उसके बाद बस पूछकर, निष्कर्ष निकाल कर बता देना। और मंच से चले आना। और कुछ कहने की जरूरत नहीं लेकिन उसने यह नहीं किया।
Ability
Able
Abnormal
Abortion
Absence
Absent
Abuse
Accept
Acceptance
Accident
—
{यह एक बहुत लम्बी लिस्ट टिप्पणीकर्ता ने कहीं से कट-पेस्ट कर ठेल दी है, जिसे यहां ब्लॉग पर लगाना मैं उपयुक्त नहीं मानता। यह ट्रंकेटेड लिस्ट आशय स्पष्ट करने को पर्याप्त है| टिप्पणी की जगह की अपनी मर्यादा है, अच्छा होता मिश्र जी उसका ख्याल करते। – ज्ञानदत्त पाण्डेय।}
—
Year
Yearly
Yellow
Yes
You
Young
Youth
Zoology
अभी तो और बहुत हैं। यानि 5000 में 2000 से अधिक शब्द। हम भी अब नहीं कहेंगे। यहाँ कहने से कोई फायदा तो है नहीं।
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टिप्पणियों का सम्पादन करने का फीचर तो है, और इसका प्रयोग ब्लॉग मालिक की इण्टीग्रिटी को तो ले कर ही चलता है!
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ज्ञानदत्त जी,
मैंने कट-पेस्ट किया है? क्या किया है? 2000 शब्दों को चुन-चुनकर लिखा है। ऐसा नहीं कि कहीं से उठाकर लिख दिया था। अभी भी वह काम मैं कर ही रहा हूँ लेकिन आपने कट-पेस्ट की बात कहकर ठीक नहीं की है।
मजबूरन मुझे यहाँ फिर कुछ कहना पड़ा। माफ़ी चाहूंगा इसके लिए।
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आपने कट-पेस्ट नहीं किया, धन्यवाद। पर पूरा लेक्सिकॉन टिप्पणी में ठेलने के औचित्य पर कृपया विचार करें! 😆
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सच में ‘हिन्दी के हितैषियों की हितैषणा कुछ कम होती तो हिन्दी की उन्नति कुछ अधिक हो पाई होती’. हिंदीसेवियों ने जम कर सेवन किया है हिंदी का . हिंदी गरीब है पर हिंदी के मठाधीश और हिंदी की संस्थाएं अमीर हैं. हिंदी नाम की गाय का मुंह गरीब हिंदीभाषियों के हिस्से आया है ताकि चारा खिलाते रहें . और उस गाय के थन हितैषियों उर्फ सेवियों के हिस्से आए हैं ताकि वे दूध पी-पीकर चिंतातुर रह सकें.
आपने समझदारी की जो अज्ञेय का सहारे अपनी बात कही. वरना हितैषी लोग अभी आपके अभिनंदनार्थ जमा हो जाते. हिंदी हित का चोंचला अब अंतरराष्ट्रीय चोंचला है. “हिन्दी हित का चोंचला आप अपनी सामर्थ्य में टेकल नहीं कर सकते।”
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प्रियंकर जी यह तो समझ हो गयी है कि कहां अपना लिखा सटाना है और कहां किसी विद्वान का! 😆
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शुभकामनायें! 😉
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आदरणीय ज्ञानदत्त जी,
मुझे अज्ञेय तो गलती से हिन्दी में आ गए लगते हैं। उनकी शेखर एक जीवनी को मैं पसन्द करता हूँ लेकिन उसे पढ़ना सामान्य पाठक जैसा कि मैं हूँ, के वश की बात नहीं है। अंग्रेजी की कितनी कविताएँ हैं उसमें! लगता है अज्ञेय ने सोच लिया था कि यह उपन्यास पढ़ते समय पाठक को अंग्रेजी भी पढ़नी होगी।
अमरेन्द्रनाथ त्रिपाठी जी,
यह सौ प्रतिशत झूठ है कि हिन्दी सिनेमा ने हिन्दी को फैलाया। बस थोड़ा इन्तजार कीजिए तो इस पर बहुत कुछ लिखा है, प्रस्तुत करूंगा।
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अज्ञेय खुद लिखते हैं कि लोग कहते हैं, किसी ने अंग्रेजी कविता न पढ़ी हो तो उसकी समझ के लिये अज्ञेय को पढ़ ले! 🙂
बाकी, हिन्दी सिनेमा के प्रति आपके लेख की प्रतीक्षा होगी।
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मैं इन चित्रों को नहीं समझ पाता क्योंकि इनसे मेरा कोई वास्ता नहीं रहा है। चित्र मतलब यह चैट वाला मुस्कुराता पीले रंग का चित्र।
अब अज्ञेय पर। अज्ञेय की उपर वाली बाय अगर सही है तो क्या हम अंग्रेजी साहित्य के लिए अज्ञेय को जानते हैं? हिन्दी साहित्य पढ़नेवाले को अंग्रेजी कविता पढ़ाना सही तो नहीं लग रहा है। किसी आम पाठक को अज्ञेय की किताब दे दी जाय तो वह उसे फेंक देगा। यह बात शेखर के लिए है, जैसा मैं समझता हूँ। क्योंकि अज्ञेय ने क्लिष्टता की सीमा पार करके संस्कृत ग्रन्थों को भी मात दे दी है, आम पाठक ऐसा ही सोचेगा। हिन्दी शब्द भी उन्होंने अधिकतर वैसे ही लिखे हैं। हाँ उपन्यास मुझे अच्छा लगा था और शेखर भी।
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इस स्माइली के अलावा भी जो आप समझना चाह रहे हैं, या समझ रहे हैं – पर्याप्त है। स्माइली तो मात्र लिखने वाले के मनोभाव दर्शाती है, जिसके लिये शब्द बनाने में उसको बहुत मशक्कत करनी पड़ती। 😆
अज्ञेय या उनका साहित्य मेरा सगा नहीं है, आप जो भी विचार रखते हों, स्वागत है। पर ऊपर उनका जो उद्धरण है कि हिन्दी वालों ने हिन्दी की दुर्गति कर दी है; वह सोलह आना सही है!
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सतीश पंचम जी की ई-मेल से प्राप्त टिप्पणी –
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सतीश जी,
मैंने लिखा था कि हिन्दी सिनेमा पर और हिन्दी के प्रचार पर मैंने लिखा है और कुछ मिलाकर प्रस्तुत करूंगा। आपने इन्तजार नहीं किया। मुझे आपकी बातों में व्यंग्य दिखाई पड़ता है और मैं भी अब इसी क्रम में कुछ कह देता हूँ।
हिन्दी सिनेमा हिन्दी को डुबाने में भी योगदान दिया है। आपकी इस बात से मेरी सहमति है कि हिन्दी के सरकारी संस्थानों ने हिन्दी के नाम पर सिर्फ़ झूठ बोला है और नकली प्रचार किया है। लेकिन हिन्दी का बढ़ना आप कहते किसे हैं? आप इन्तजार तो करें, किताब लगभग 90 प्रतिशत लिख चुका हूँ। आप सादर आमंत्रित हैं किताब के तर्कों और तथ्यों की आलोचना करने के लिए।
आपकी मराठीभाषी महिला वाली बात में कुछ खास नहीं दिखता। मराठी की लिपि भी देवनागरी ही है। यह आप जानते हैं। फिर हिन्दी क्यों? मराठी की बात हो।
आपने मुझे बिना जाने यह कह दिया है कि -‘यदि कभी हिन्दी की जमीनी हकीकत देखनी हो तो अपने नजरिये को थोड़ा सा बदल कर देखें। केवल किताबी क्लिष्ट हिन्दी बोलना लिखना ही सेवा कहलायेगा ये धारणा जितनी जल्दी हो मन से निकाल देना अच्छा रहेगा।’
हमारे यहाँ तो हर आदमी सब कुछ जानता है, दिक्कत यही है। केवल हिन्दी क्लिष्ट है, क्या बात है? हिन्दी का प्रचार हिन्दी सिनेमा वाले कितना करते हैं, इस पर यहाँ लिखने का इरादा नहीं है। क्योंकि अपने ब्लाग पर कुछ दिन में प्रस्तुत करूंगा। फिर आपके तर्कों का स्वागत होगा।
यह शुष्क हिन्दी क्या है? शुष्क कुछ नहीं है, साहब! शुष्क लोग हो सकते हैं। मैं अपने ब्लाग पर लिखता हूँ। क्या शुष्क लिखा है? बताइए। कौन से जटिल शब्द लिखे हैं मैंने? मैंने अपनी किताब में इस बात को भी लिया है कि जटिल क्या है?
‘केवल टिपिर टिपिर टिपियाने से और फीसद गिनने से असलियत नहीं पता चलती ‘
यह क्या है, साहब! मैं इन बातों को लेकर 200 से ज्यादा पृष्ठ की किताब में लिख चुका हूँ और इस पर अब फिर लिखना आसान नहीं है। प्रचार का आधार संख्या नहीं तो और क्या है?
धैर्य रखें। हाँ, भागूंगा नहीं जवाब दिए बिना।
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सतीश जी,
आवश्यक काम से लिख नहीं पाया। फिर थोड़ा लिख दे रहा हूँ। मराठीभाषी महिला के हिन्दी सीखने में फिल्म का कोई योगदान है तो वह सीखाने के चलते आया है न कि फिल्म के चलते। सबूत भी है। सुनिए। आपने एक महिला का उदाहरण दिया है। आप जानते होंगे कि शिक्षा में शुरु में भाषा के आसान शब्द बताए जाते हैं, यह कैसे उस महिला को शुष्क लग सकता है? बिहार में हर साल लाखों बच्चे विद्यालय में आते हैं और हिन्दी लिखना सीखते हैं। और हिन्दी पढ़ना भी सीखते हैं। मैं तो वहाँ फिल्मों का कोई योगदान नहीं देखता। बस मनोहर पोथी छाप किताब से सीख लेते हैं। यही हाल हिन्दी सिनेमा से पहले का है। मेरे पास एक किताब है- हिन्दी के यूरोपीय विद्वान। बड़ी किताब है। उसमें से सभी अंग्रेज या अभारतीय विद्वानों ने हिन्दी सीखने के लिए सिनेमा की कोई मदद लिए बिना हिन्दी सीखी है।
आप बताइए कि मैं एक महिला का उदाहरण देखूँ कि बिहार और अन्य हिन्दी भाषी राज्यों के करोड़ों छात्रों का।
हिन्दी की दुर्गति करनेवाले हिन्दी के लोग अधिक हैं, इससे सहमत हूँ। लेकिन अंग्रेजी शब्दों को कितना आवश्यक बनाकर घुसा दिया है, यह भी तो देखिए। मैंने अपने किताब में एक पूरी सूची दी है जो बताती है कि हिन्दी के साथ क्या किया है अंग्रेजीमोही हिन्दी वालों ने। अरविन्द कुमार पर एक आलेख है। वहाँ भी देखिए।
http://lekhakmanch.com/?p=2417
बाकी बाद में……
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@ शुष्क हिन्दी …..
अमर घर चल…..
रमन खाना खा
अजय घूमने जा…..
ये सारे प्रौढ़ शिक्षा के लफ़्ज अपने आप में बेहद सरल ढंग से लिखे गये हैं लेकिन जब इन्हें प्रौढ़ों को पढ़ाना होता है तो रोचकता होना बहुत जरूरी है। तब तो और भी ज्यादा जब प्रौढ़ उम्र वाले लोगों में पढ़ने-सीखने की इच्छा न के बराबर हो।
यहां जो उद्देश्य था वह अनपढ़ महिला को शिक्षित करना था। चूंकि सिखाने वाली लड़की हिन्दीभाषी थी तो उसने हिन्दी ही सिखाया, ये अलग बात है कि हिन्दी और मराठी देवनागरी ही है।
मैंने कई प्रौढ़ों को किताब थामते और अरूचिकर देख पढ़ाई से हटते देखा है। कइयों को बाकायदा आगे आगे पढ़ते भी देखा है। लेकिन यहां इस मायने में फिल्मी हिन्दी खास हो उठी क्योंकि उसने किसी के पढ़ने में रूचि जगाई, उसकी पढ़ाई में सहायता प्रदान की।
मैं यहां पर दो चार स्माइली लगाकर फिल्मों के नाम स्पेशल अंदाज में लिखने वाला था, लेकिन आप को तो स्माइली समझ नहीं आती ( जैसा कि आपने लिखा है) सो ऐंवे ही रैण देता हूँ।
फिल्मी हिन्दी से कितना लाभ होता है यह जानना हो तो किसी दक्षिण भारतीय से मिलिये जो कि नया नया किसी शहर में आया हो, मेरे ख्याल से उससे बेहतर कोई नहीं बता सकता इस अप्रत्यक्ष लाभ के बारे में।
हां, इंतजार है आपकी किताब और पोस्ट का।
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भाई चंदन जी,
आपका ई-मेल मुझे मिला कल सुबह ही, आपका उत्साह सराहनीय है, किताब लिखिये, अच्छा काम है पर किसी पूर्वनियोजित निष्कर्ष के साथ या एकतर्फिया होकर मत लिखिये, तो सोने में सुहागा होगा।
मेरी सिनेमाई हिंदही मेहरबानी की बात को सौ फीसदी झूठ कहकर आपने तो मेरा मुह ही मूद दिया, १-२ % भी मुझे सही कह देते प्रभु 🙂
बाकी इस संदर्भ में सतीश जी की बात का समर्थन करता हूं, उसे ही मेरा कथन मानिये।
हिन्दी के निर्माणकर्ताओं/विका(ना)स कर्ताओं/विद्वानों/हित-चिंतकों की बड़ी बड़ी घोषणाओं से अलग हिन्दी फैलाने में बंबइया सलीमा की बहुतै भूमिका थी, मानो चाहे न मानो, मुल सच्चाई को जानो। क्योंकि इसने संपर्क भाषा के लिहाज से हिन्दी को चुना था, न कि कठोरी करण के लिये, सो इस उपयोगिताबाद के सिनेमाई हिंदही मेहरबानी सराहनीय है।
बाकी हिन्दी को हिन्दी के निर्माणकर्ताओं/विका(ना)स कर्ताओं/विद्वानों/हित-चिंतकों ने जनता से दूर रखने का कार्य बहुत पहले से शुरू किया जहां, “बोलियों के नजदीक जाने” के जुमले को उछाल-उछाल के बड़ा बंटाधार किया गया, बोलियों का विशेष करके और ‘राजभाषा’ हिन्दी तो बंटाधार हुई ही! इस संदर्भ में ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को रखते हुये मेरे मित्र रवि कुमार यादव के विचार को यहां रख रहा हूं, जिसे उनहोंने आज ही चर्चा के दौरान मेरी फेसबुकीय वाल पर रखा था, यह इस प्रकार है(इससे हिन्दी के जन-कटाव वाले संस्कार को आप समझें कि बात कहाँ से आती है)::
“ बोलियों के सन्दर्भ में ..बोलियाँ भाषा को उर्जा देती है तो फिर क्यों कर बोलियों को छोड़ कर के संस्कृत का दामन थाम लिया गया. कहना यह चाहता हूँ की बोलियों का राग अलापने के लिए अलापा जाता रहा है ताकि इन बोलियों के बोलने वालों के बीच हिंदी की स्वीकृति पैदा की जा सके .संस्कृत कोई बोली तो थी नही तो श्रेष्ठ सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने के नाम पर हिंदी के उपर थोप दिया गया .संस्कृत को हिंदी में घोल देने का काम हिंदी आन्दोलनकारियों की कोई मौलिक खोज नही थी .यह काम हिंदी वालों से पहले बंगला में राजा राम मोहन राय,विद्यासागर ,बंकिम चन्द्र कर चुके थे और जाहिर है इस से जो नुकसान बंगला का होना चाहिए था साफ तौर पर हुआ भी .बंगला जो जन भाषा थी उन्नीसवीं शताब्दी में संस्कृत के घाल मेल से अभिजन भाषा बना दी गयी .इसके पीछे के कारणों का पता लगाने का प्रयास करने पर पता चलता है कि राजा राम मोहन राय जैसे विद्वान लोगों की शिक्षा औपनिवेशिक काल के पूर्व भारत में विद्यमान शिक्षा प्रणाली में हुई थी .इस प्रणाली में संस्कृत,अरबी, फारसी भाषाएँ शिक्षा का माध्यम थीं.बंगला लिखते वक़्त संस्कृत का सुविधा जनक चुनाव कर लिया गया और तथाकथित विदेशी भाषाओं को छोड़ दिया गया .हिंदी के पिछलग्गू आन्दोलनकारियों ने बंगला भाषा के इसी मॉडल को अपना लिया .कहने को भारतेंदु जी हिंदी [भारतेंदु जी स्ववं इसे तब तक “नई भाषा “कहते थे ]को बोलचाल की भाषा के करीब लाने की वकालत करते थे लेकिन हिंदी में कविता के क्षेत्र में छायावाद जैसा काव्य आन्दोलन चला जिसकी भाषा कृत्रिम भाषा थी .इस में कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए लेकिन हिंदी की परम्परा से अनभिज्ञ लोगों को आश्चर्य होता है.उन्नीसवीं शताब्दी के हिंदी के विकास से पता चलता है की किस प्रकार से हिंदी को गढ़ा गया.छायावादियों की कृत्रिमता हिंदी की प्रकृति से बिलकुल संगत बैठती थी .सैमुअल हेनरी केलाग[१८७६] हिंदी का व्याकरण तो लिख् मारेलेकिन हिंदी खड़ी बोली नाम कि कोई बोली नही खोज पाए और मजबूर होकर उनको कहना पड़ा कि जो बोली इस क्षेत में समझी जाती है उसका कोई अपना क्षेत्र नही है .ग्रियर्सन साहिब[१८८९] तो कहते ही थे कि हिंदी किसी कि मादरी जुबान नहीं है और इसी वजह से गद्य और पद्य कि भाषा में फर्क पैदा हुआ .भारतेंदु जी के काल में कविता कि भाषा ब्रज बनी रही ,गढ़ने कि प्रक्रिया जारी थी और छायावाद में पूरी हो गयी [कृपया केलाग और ग्रियर्सन के विचारों को साम्राज्यवादियों के विचार कह करके ख़ारिज करने कि भूल न की जाये क्यों की अभी तक यही किया जाता रहा है ,इस सन्दर्भ में कुछ “कुंठा ग्रस्त” भारतीयों का भी उल्लेख कर सकता हूँ लेकिन अभी नहीं करूँगा ]. इनमे से कोई बात मेरी मौलिक उद्भावना नही बल्कि हिंदी भाषा के विकास पर शोध करने वाले विद्वानों ने इस बात को रेखांकित किया है ” [ ~ मित्र रवि कुमार यादव की बात ]
उम्मीद है आपको काफी बातें क्लीयर होंगी, नहीं तो मुझे गलत मानकर किनारे डाल दीजियेगा, क्योंकि ब्लोगबुड में अब ज्यादा बहसियाने की ताब मुझमें नहीं रही, बूढ़ा हो लिया ! थकोहम्!!
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अमरेन्द्र जी,
मैंने कल सतीश जी को मेल किया था क्योंकि रिप्लाई का विकल्प यहाँ नहीं दिखा। पहले वह मेल पढ़वाते हैं। फिर सोचा जाएगा। हाँ, यह गलती हमसे हो गई कि हम 100 प्रतिशत कह बैठे। कहना चाहिए था कुछ प्रतिशत। इसके लिए माफ़ी चाहता हूँ। आइए मेल पढ़िए।
________________
सतीश जी,
अगर आपका तात्पर्य आजकल की फिल्मों से है तब तो कुछ भी कहना ठीक नहीं
होगा। क्योंकि आज की फिल्मों में सहायक क्रियाओं और एकदम सीधे-सादे
शब्दों को छोड़कर शायद ही कोई शब्द या वाक्य हिन्दी में बोले जाते हैं।
अगर आपका तात्पर्य पुरानी फिल्मों से है तब ठीक है। पूरा तो नहीं लेकिन कुछ हद तक।
बात प्रौढों की है तब तो दो बातें सम्भव हैं।
पहली कि हिन्दी सिनेमा मुश्किल से साठ साल पुराना है। अगर और अधिक सही
कहें तब मात्र 30-40 साल पुराना क्योंकि प्रसार बाद में हुआ। शुरु में तो
बस शहर के लोग ही देखते होंगे। यानि साठ साल पहले प्रौढ शिक्षा का काम आज
से सम्भवत: ज्यादा होने के बावजूद बिना फिल्म के चलता था।
दूसरी बात कि अगर प्रौढ शिक्षा में छात्रों की संख्या देखें तो कितनी है?
कुछ लाख ही हो सकती है। वह भी शायद ही। उसमें से कितने लोग फिल्म की मदद
से शिक्षा ले रहे हैं? शायद कुछ हजार ही। अब बताइए कि इस संख्या को
पर्याप्त माना जाय?
दक्षिण के दस-बीस लोग अगर हिन्दी सीख भी गए तो कोई बड़ी बात नहीं हो गई।
आप गाँधी जी की एक किताब है -‘मेरे सपनों का भारत’, उसके आँकड़ें देखें।
नवजीवन से छपी है। आप देखेंगे कि आज से शायद कई गुना अधिक लोग हिन्दी
सीखते थे वह भी बिना फिल्म के। सेवा का अर्थ भी अलग अलग तरीके से देखा जा
सकता है। अंग्रेजों ने रेल का प्रसार किया अपने फायदे के लिए तो उसे
विकास की नजर से नहीं देखकर भारत के आर्थिक पक्ष की तरफ़ नजर रखकर देखना
और सोचना सही जगह ले जाएगा। क्योंकि आलोचना और संदेह सत्य की तरफ़ ले
जाते हैं।
अगर मान लें कि फिल्मों की मदद से हिन्दी सीखने वाले ऐसे दक्षिणी लोगों
की संख्या एक-दो लाख है तो यह संख्या 121 करोड़ में कुछ नहीं है और इसके
लिए हम सिनेमाई नौटंकीबाजों का समर्थन या उनका पक्षपात नहीं कर सकते।
कितना सही माना जाय कि साल में दस हजार करोड़ खर्चकर के फिल्में बनें और
वह भी चालीस-पचास प्रतिशत अंग्रेजी में, और उसके दम पर देश के एक प्रतिशत
भी नहीं मात्रा .02 या अधिक से अधिक .03 प्रतिशत लोग हिन्दी बोलें? मैं
तो इन बातों पर हँसूंगा।
लेकिन आप आँकड़ों को सत्य नहीं मानते हों या इन बातों को प्रचार का आधार
नहीं मानते हों तब क्या कहें? हिन्दी के नाम पर चलने वाले लूट-संस्थानों
ने निश्चय ही नगण्य काम किया है, इसमें मैं आपसे सहमत हूँ।
अब आगे …।
___________________
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देखिये चंदन जी, इस मसले पर मुझे आगे बहस की इच्छा नहीं हो रही क्योंकि वैसे भी हिन्दी के नाम पर बोलबचनों का भण्डार है। जो लोग रात दिन रात दिन हिन्दी-हिन्दी करते हैं तो करते रहें मुझे उनकी हिन्दी प्रियता से कोई स्नेह नहीं है। वैसे भी कुछ बीमारियों को यूं ही छोड़ दिया जाता है कि समय आने पर खुद ब खुद ठीक हो जाएंगी, ये हिन्दी सेवा की ‘रट लगाये रहना’ भी एक तरह की बीमारी ही है।
अपनी बात कहूं तो मैं हिन्दी में इसलिये लिखता हूं क्योंकि हिन्दी पढ़ना और लिखना मुझे अच्छा लगता है। मैं किसी मिशन के तौर पर नहीं लिख रहा हूँ कि हिन्दी बढ़े, पल्लवित हो। नेट पर जो भी हिन्दी में लिखा जा रहा है ज्यादातर शौकिया लिखा जा रहा है न कि मिशनरी बेसिस पर। मुझे यदि कोई कहे कि हिन्दी का प्रचार करने की मुहिम से जुड़िये तो मैं कत्तई न शामिल होउंगा। जो लोग ऐसा कहने को करते हैं जरा उनसे पूछिये कि आप के बच्चे किस मिडियम से पढ़ाई कर रहे हैं, अंग्रेजी या हिन्दी। हें हें करते कहेंगे कि वो तो बच्चों के लिये करना पड़ता है। तब सारी हिन्दीयत गदहे के फलाने जगह घुसुर जाएगी।
मैं खुद अंग्रेजी मिडियम से अपने बच्चों को पढ़ा रहा हूँ, किस मुँह से हिन्दी सेवी अभियान में शामिल होउं और क्यों ? हिन्दी जैसी है, अच्छी है। लड़खड़ा कर बढ़े चाहे उछल कर, चाहे घिसट कर लेकिन वो बढ़ने के लिये किसी हिन्दीसेवी की मुहताज नहीं है। वह बढ़ रही है लोगों के शौक से वो बढ़ रही है लोगों द्वारा अपनाने योग्य उसकी सहजता से। उसमें यदि अंग्रेजी के शब्द घुल मिल रहे हैं तो क्यों बिदकना, यही तो हिन्दी की खूबी है कि वो मल्टीलिन्गुअल बनते हुए सबको अपने आप में समाहित कर रही है। जिन्हें हिन्दी सेवा के नाम पर अंग्रेजियत आने से एलर्जी हो उनकी वो जाने। फिलहाल मैं इस विषय पर और बहस करने के लिये उत्सुक नहीं हूँ।
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यह पोस्ट नजरअन्दाज होते होते बची… 🙂
पिंजरापोल का अगर यह विस्तार है कि पूरे विश्व को बांधे है तो कोई बुरा नहीं…चिन्ता न करें, मुरझायेगी नहीं कोई फसल ऐसे पिंजरापोल में..आप तो सींच ही रहे हैं.
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आपकी आशावादिता बहुत कट्टर है। और आपको मेरी क्षमताओं का गलत अनुमान है। 🙂
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हिन्दी की गत बनाने में हिन्दी हित-चिंतकों का खास योगदान है, अंततः सब कुछ ढाक के तीन पात की तरह स्वार्थ-मूल से ही जुड़ जाता है। अपनी ब्रांड, दुकान, विक्रेता, ग्राहक तक सीमित रह जाता है मामला!
किसी हित-चिंतक से ज्यादा हिन्दी को बंबइया सिनेमा ने फैलाया, जिसने कभी हित-चिंतक का उद्घोष नहीं किया, दूसरी तरफ विश्व-विद्यालय रिसर्च कराते रहे जिन्हें कोई नहीं पूछता, कुछ समय बाद सब को घुन चाट लेंगे।
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बहुत सही!
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