यात्रायें करते ही क्यों हैं लोग?


कालका मेल की दुर्घटना भयावह थी। हम रेलवे में उसके प्रभाव से अभी भी उबर रहे हैं। शायद अपनी यादों में उबर न पायें कभी भी। कई लोग हताहत हुये-घायल हुये। सभी यात्री थे। कुछ समीप के थे। कुछ दूर के। पर सभी यात्री थे। यात्रा कर रहे थे। आषाढ़ के उत्तरार्ध में।

चौमासे में प्राचीन भारत में यात्रायें नहीं हुआ करती थीं। पर अब ट्रेने भरी जाती हैं। बसों और अन्य वाहनों का भी वही हाल है।  पैसे वाले यात्रा करते हैं, कम पैसे वाले भी करते हैं। संचार के साधन पहले से बेहतर हो गये हैं। बात करना आसान हो गया है। ई-मेल/फैक्स/वीडियो सम्पर्क – सब आसान हो गया है। यात्रायें फिर भी कम नहीं हुई हैं।

यात्रा में यह भी दृष्टिगत होता है!

पन्द्रह साल पहले मैं सोचा करता था कि जल्दी ही लोग यात्रायें कम कर देंगे और रेलवे में माल यातायात की कैपेसिटी मिलने लगेगी। वह नहीं लगता!

मैं यह सोचता था कि अर्बनाइजेशन सबर्बनाइजेशन में बदलेगा। या विबर्व (village-urban unit) कायम होंगे। पर देख रहा हूं कि अभी भी बम्बई बम्बई है – वहां के आतंकी हमलों के बावजूद। संचार और प्रोद्योगिकी के विकास के बावजूद गांव या कस्बे उद्योग नहीं आकर्षित कर पा रहे। लिहाजा जिसे देखो वही बम्बई जा रहा है और वहां से परिवार लाद-फान्द कर गाजीपुर आ रहा है – घिनहू चच्चा की बिटिया का गौना जो है!

कब बन्द होगा यह मैट्रो-प्रयाण! कब बन्द होंगी ये यात्रायें!

मैं घुमक्कड़ी, या टूरिज्म की बात नहीं कर रहा। मैं किसी की मृत्यु पर होने वाली अनिवार्य यात्रा की बात नहीं कर रहा। पर मेरे कहने में शिक्षा/नौकरी/अनिवार्य (?) तीर्थयात्रा/रोजगार के लिये कम्यूटिंग आदि की यात्रायें आती हैं। टूरिज्म के लिये निकटस्थ स्थान भी विकसित नहीं हुये। वैष्णो देवी की टक्कर के देश भर में 20-25 स्थान बनते तो आदमी घर के निकटस्थ जगह चुन कर यातायात की जरूरत कम करता और मई-जून के महीने में झुण्ड के झुण्ड जम्मूतवी की गाड़ियों में न ठुंसते! 😆

हमें और अर्थशास्त्रियों/समाजशास्त्रियों को सोचना चाहिये कि यात्रायें हो ही क्यों रही हैं और कैसे कम की जा सकती हैं! या फिर यह कि यात्रा के मेकेनिज़्म में अन्य परिवर्तनों की तरह क्या परिवर्तन आने जा रहा है?  क्या यात्रा का स्वरूप तकनीकी रूप से विकसित होने वाले यात्रा के संसाधनों को यूं ही चरमराता रहेगा या जीडीपी की वृद्धि दर यात्रा की वृद्धि दर को पार करेगी, या यात्रा की वृद्धि दर को ऋणात्मक कर देगी।

ह्वेन इज़ योर नेक्स्ट ट्रॉवल सार!


मेरी पत्नीजी का कहना है कि मैं दुखी रहता हूं, जब ब्लॉग पर नहीं लिखता। बेहतर है इसी तरह लिखूं और अपने दफ्तर की/रेल की समस्याओं की न सोचूं!


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring village life. Past - managed train operations of IRlys in various senior posts. Spent idle time at River Ganges. Now reverse migrated to a village Vikrampur (Katka), Bhadohi, UP. Blog: https://gyandutt.com/ Facebook, Instagram and Twitter IDs: gyandutt Facebook Page: gyanfb

41 thoughts on “यात्रायें करते ही क्यों हैं लोग?

  1. मेरी स्थिति शायद विपरीत है…मैं जब दुखी रहती हूँ,तब लिख नहीं पाती…क्योंकि भावनाओं के बवंडर में फंसे शब्द ऐसे रेल पेल हुए रहते हैं कि अभिव्यक्ति ठीक ठाक हो नहीं पाती…

    जीवन की अनिश्चितता को लाख मानकर भी यह मानने में बड़ी कठिनाई होती है कि यह रेल दुर्घटनाओं,बम धमाकों या ऐसे ही किसी कारण से जाए…

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  2. wakai, ghumakkari ka dil to bahut karta hai…….lekin nasib saal 2 saal pe 1 bar hi ho pata hai……….

    pranam.

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  3. हमारे बरेली में ट्रेफिक पुलिस ने शहर में ही कई जगह चौपहिया वाहन की आवाजाही पर रोक लगा दी है…. वजह साफ़ है कि जब ट्रेफिक कम होगा तो उसे मैनेज करना भी आसान होगा .

    यही काम आपकी रेलवे को भी करना चाहिए …किराये बढाकर गैरजरूरी यात्राओं को हतोत्साहित करे क्योंकि भारतीय यात्री को ” पैसे लेकर भी सीट नहीं देने की नीति ” यात्रा करने से नहीं डिगा सकती.

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  4. मेरा बस चले तो मैं खूब यात्रा करूं….. लोगों को देखूं…..उनकी बातें सुनूं……उनके हाव-भाव आदि का अवलोकन करूं…..स्थान आदि के बारे में रोचक जानकारियां लूं……लेकिन फिलहाल यह संभव नहीं है 🙂

    बाकि तो यात्रा तो यात्रा ही है…………चाहे पैदल….चाह रेल….चाहे बस…..यात्रायें यात्रा करने के लिये ही होती है. 🙂

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    1. घुमक्कड़ी तो मानव को वैल्यू प्रदान करती है। वह होनी ही चाहिये!

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  5. भारत जनसँख्या के बोझ से दबा जा रहा है . हर जगह भीड़ है , ट्रेन में , हवाई जहाज में , यंहा तक की हॉस्पिटल में . वैसे सर एक्सिडेंट देख कर दिल दहल जाता है . यात्रा का एक बहुत बड़ा कारन , महानगरो के अलावा और नगरों का उन्नत ना होना भी है . अगर हर सहर में रोजगार के साधन उपलध हो और सुविधाएँ हो तो सायद फिर लोग महानगरों की तरफ ना भागें.
    वैसे आप ब्लॉग लिखते रहा करिए . बहुत दिनों से पोस्ट नहीं आई तो मुझे लगा की आपसे पूंछू आप के सवास्थ्य के बारे में . लेकिन मेरे पास कोइ साधन ( मेल id ) नहीं था .

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    1. आपको मेरे स्वास्थ्य की फिक्र है, यह जान कर बहुत सुकून मिला गौरव। स्वास्थ्य ठीक है पर काम ज्यादा है!

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  6. ये तो दिग्गी राजा टाईप चिन्तन हो गया कि न लोग यात्रायें करें, न एक्सीडेन्ट में मरे…..क्या जरुरत थी हीरा बाजार की भीड़ में जाकर सौदेबाजी करने की…गाँव में चना बेचते तो आतंकी हमले में तो न मरते….

    समस्या का हल खोजना होगा..सर जी…न यात्रायें रुकेंगी, न जनसंख्या का दबाब..न बेहतर जिन्दगी और अवसरों के लिए पलायन….लेकिन दुर्घटनाएँ जो मानवीय भूल या मशीन फेल्यूयर से होती हैं, उनका समाधान खोजना या उन्हें कम करना आपके हाथ में हैं…आप जैसे वरिष्ट पदों पर आसीन जिम्मेदार अधिकारियों से यही आशा भी है.

    आप निश्चित ही ब्लॉगिंग जारी रखें…विचार निकलते रहेंगे और विचार मिलते रहेंगे.

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  7. जिन्दगी भी तो एक यात्रा ही है . अगर मौत के डर से घर से ना निकले तो क्या गारंटी है अमर हो जायेंगे

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  8. यात्राएं कम हो सकती हैं बंद तो नहीं. वैसे यूपी बिहार से आने जाने वाली ट्रेनों में ज्यादा भीड़ होती है तो सामाजिक आर्थिक कारण तो स्पष्ट ही हैं ऐसी यात्राओं के. और इन कारणों के आधार पर कम भी हो ही सकते हैं.

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  9. जीवन एक यात्रा है,न उसे रोक कोई पाया
    सुख-दुख तो साथी हैं इसके,फ़िर क्यों दिल घबराया…
    बहुत ही भाव विभोरक लेख…

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