जब (सन् 1984) मैने रेलवे सर्विस ज्वाइन की थी, तब रेलवे के यार्ड और स्टेशनों से ट्रेन चलने का डाटा इकठ्ठा करने के लिये ट्रेन्स क्लर्क दिन रात लगे रहते थे। एक मालगाड़ी यार्ड में आती थी तो वैगनों का नम्बर टेकर पैदल चल कर उनके नम्बर उतारता था। यार्ड के दफ्तर में हर आने जाने वाली गाड़ी का रोजनामचा हाथ से भर जाता था। वैगनों का आदानप्रदान जोड़ा जाता था। हर आठ घण्टे की शिफ्ट में उसकी समरी बनती थी। इसी तरह ट्रेनों के आने जाने का हिसाब गाड़ी नियन्त्रक हाथ से जोड़ते थे।
मैने इलेक्ट्रानिक्स इन्जीनियरिंग पढ़ी थी अपने एकेडमिक लाइफ में। पर यहां मैने जल्दी जल्दी पूरा प्रयास कर वह दिमाग से इरेज़ कर आठवीं दर्जे का जोड़-बाकी-गुणा-भाग री-फ्रेश किया। उससे ज्यादा का ज्ञान ट्रेन चलाने में काउण्टर प्रोडक्टिव था।
हर रोज इतना अधिक डाटा (आंकड़े) से वास्ता पड़ता था (और अब भी पड़ता है) कि डाटा के प्रति सारी श्रद्धा वाष्पीकृत होने में ज्यादा समय नहीं लगा था मुझे।
बहुत सारा और बहुत एक्यूरेट डाटा हमसे बहुत कुछ चूस रहा है। यह बेहतर मैनेजर तो नहीं ही बना रहा। और नेतृत्व की भूत काल की ब्रिलियेंस भी अब नजर नहीं आती। शिट! आई एम मोर इनफॉर्म्ड, बट एम आई मोर अवेयर? एम आई मोर कॉन्फीडेण्ट ऑफ माईसेल्फ?
उस जमाने में डाटा को लेकर मन में विचार बनता था कि जितनी वर्जिनिटी की अपेक्षा एक प्रॉस्टीट्यूट से की जा सकती है, उतनी डाटा से करनी चाहिये। पर उस डाटा से भी जितने काम के मैनेजमेण्ट निर्णय हम ले पाते थे, वह अपने आप में अद्भुत था।
अब समय बदल गया है। ट्रेन रनिंग के सारे आंकड़े रीयल टाइम बनते हैं। उनमें हेर फेर करना बहुत कठिन काम है – और उसके लिये जिस स्तर के आर्ट की जरूरत होती है, वह आठवीं दर्जे के गणित की बदौलत नहीं आ सकता। उससे ज्यादा की अपनी केपेबिलिटी नहीं बची। 😦

बहुत सारा और बहुत एक्यूरेट डाटा हमसे बहुत कुछ चूस रहा है। यह बेहतर मैनेजर तो नहीं ही बना रहा। और नेतृत्व की भूत काल की ब्रिलियेंस भी अब नजर नहीं आती। शिट! आई एम मोर इनफॉर्म्ड, बट एम आई मोर अवेयर? एम आई मोर कॉन्फीडेण्ट ऑफ माईसेल्फ?
मुझे मालुम है रेलवे में लोग, सिर्फ तर्क देने की गरज से मेरी यह सोच डिनाउंस करेंगे। और मेरा कहना आउट राइट खारिज कर दिया जायेगा। पर बेहतर बात यह है कि रेलवे वाले मेरा ब्लॉग नहीं पढ़ते@।
[@ – रेलवे में तो कोई यह मानता/जानता ही नहीं कि मैं हिन्दी में लिखता हूं! किसी हिन्दी के समारोह में मुझे नहीं बुलाया जाता। जब लोग हिन्दी के फंक्शन में समोसा-पेस्ट्री उडाते अपने ईनाम के लिफाफे जेब में ठूंस रहे होते हैं, मैं अपने आठवीं दर्जे के गणित से गाड़ियां गिन रहा होता हूं, अपने चैम्बर में! 😆 ]
मेरी सारी नौकरी डाटा से काम करते बीत गयी है – अब तक। पर डाटा के प्रति अश्रद्धा उत्तरोत्तर बढ़ती गयी है!
किसी प्रणाली का व्यर्थता और अनुपयोगिता का बोध उससे निरन्तर संसर्ग के कारण भी होने लगता है।
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कुछ-कुछ याद आ रहा है। मृत्युशय्या पर पड़े एक बुजुर्ग ने जब अपने परिजनों को बुलाकर कहा कि अब मैं बचूंगा नहीं इसलिये जो कुछ लेनी देनी हो लिख लो। इतना फलाने को देना है, उतना ढेकाने से लेना बाकी है, इतनी रकम उसके विवाह में उधार दी गई, उतनी वहां से ली गई।
बुजुर्ग जितना बताते गये, परिजन लिखते चले गये और वादा भी किये कि आप बेफिक्र रहें, आप की अनुपस्थिति में सारा लेन-देन क्लियर कर दिया जायगा और आप के नाम कोई कर्जा नहीं रहेगा।
अब मुश्किल ये हुई कि मरने की बजाय बुजुर्ग जी गये….मृत्यु से बच गये।
उधर परिजनों ने जो डेटा इकट्ठा किया था, वह बस इकट्ठा ही किया गया था, न बुजुर्ग मरे न डेटा लेनी-देनी क्लियर करने में इस्तेमाल हुआ 🙂
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🙂
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You are an engineer and by corollary more comfortable with data handling. I however was under the impression that all this data handling is now automated. What I am actually amazed at, is our incapability or limitations of intelligence to use the data handling tools. It is at moments like these or when I read the comments made by Mr. Neeraj Kumar – Commissioner of Delhi Police that I am amazed at the extent of our limitations. When the entire world is moving to Business intelligence tools (OLAP etc.) the same is not happening in India. The Richmond Police has been using the BI tools successfully for more than a decade to predict the likelihood of crimes happening and takes steps to prevent it.
These things apart, I am a regular reader of your blog and an admirer of your writings. Please keep up the good work.
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मेरा सोचना है कि इस समयखण्ड में डाटा – रॉ या प्रॉसेस्ड – को जरूरत से ज्यादा अहमियत मिलने लगी है। इंट्यूशन, ग्रॉस्प या अनुभव बैकग्राउण्ड/बैकफुट पर हैं! 😆
And yes, we are a bit lagging in usage of the data handling tools!
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aap aisa kyon sochte hain ki aapka blog railway waale nahin padte. best wishes and keep the good work on!
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ओह, आपके बारे में तो याद नहीं रहा था! सॉरी! आप तो रेलवे की सामान्य खेप से निश्चय ही अलग हैं!
कैसा चल रहा है, सर?!
[श्री राजीव मेहता से सम्बन्धित एक पोस्ट यह है!]
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हम तो बैंक में काम करते हैं और फ़िज़ूल के आंकड़ों से उलझाते रहते हैं.. हमसे हर रोज नए नए आंकड़े मंगाए जाते हैं और बताया जाता है कि इसमें दिए जाने वाले आंकड़े आपके द्वारा भेजे जा चुके फलां विवरणी में मिलेंगे.. अब जब आपको पता ही है तो खुद ही कर लो.. मगर नहीं, इन्हीं सब कारणों से नफ़रत हो गयी है आंकड़ों से..
हिन्दी दिवस का मोह भंग हुए तो काफी समय हो गया.. अच्छा है नहीं जानते लोग आपके बारे में!!
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आंकड़े वहीं तक काम के है जहां तक वे सिस्टम सुधार में सहायक हों। अगर वे फालतू का काम जेनरेट करते हैं तो फालतू हैं!
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अच्छा है कि आपके हिन्दीज्ञान(प्रेम) से रेलविभाग के हिन्दीबाज़ अनभिज्ञ हैं वरना आपको भी बेचारों की पंगत में जगह मिलती. कहने की आवश्यकता नहीं कि हिन्दी वालों के लिए ऐसे ही बहुत से सर्वनाम प्रचलित हैं सरकारी विभागों में 🙂
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हा हा! हिन्दी के भिखमन्गे! यही सर्वनाम है?
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हिंदी के भिखमंगे… नहीं, ‘फ़ोकट की तनख्वाह पानेवाले’ तो मैंने भी सुना है.
लेकिन अपनी काबिलियत से अपने ऊपर दीगर काम लादकर इस स्थिति से छुटाकारा मैंने पा लिया.
अब हालत ये हैं कि मैं कहीं और पोस्ट हो जाऊं तो दफ्तर को कुछ झटका तो ज़रूर लगेगा. वैसे तो कोई भी इंडिस्पेंसेबल नहीं होता.
डाटा के बारे में अपने अनुभव लिखता लेकिन ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट इजाज़त नहीं देता 🙂
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हां, अपने लिये सार्थक काम उत्पन्न करना ही अप्रिय दशा से उबरने का जरीया होता है। चाहे वह हिन्दी हो या रेल हांकना!
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अपन ठहरे डाटागंज वाले, ऊपर से मातृभाषा भी हिन्दी। क्या करें, डेटा को इंटैलिजेंस में बदलना अपनी रोज़ी रोटी का भाग है, और समोसा खाना अपने देश को याद करने का तरीका। वैसे बैंक में कैश गिनते समय कभी मैं मज़ाक में यही कहता था कि जब 100 तक की गिनती ही काफ़ी थी तो उच्च गणित और विज्ञान क्यों पढा, मगर ज्यों-ज्यों काम बढता गया, मज़ाक कर पाने के अवसर कम होते गये।
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आंकड़ों से मोहब्बत और चिढ़ मजेदार है।
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वैसे ही जैसे अण्णा हजारे और टीम को राजनीति से!
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अब डाटा में पैटर्न ढूढ़ने लगा हूँ, फिर में कभी कभी नशे में आ जाता हूँ। पहले तो सारा समय डाटा इकठ्ठा करने में ही चला जाता था, अब सोचने का समय मिल रहा है, अपनी पोशीसन अपने लैपटॉप और मोबाइल में ही पा लेता हूँ तो कहीं लिखना भी नहीं पड़ता है।
डाटा सबको भाता है, लोग अपने जीवन को कला ले कम, अंकों से अधिक जोड़कर देखते हैं, और बहुधा उसे पाने के प्रयास में अपना तत्व खो बैठते हैं।
समझ नहीं आता है कि यह सुविधा के रूप में लिया जाये या दुविधा के रूप में।
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