धनबाद से यह गाड़ी अलेप्पी जाती है। नाम अल्लापुजा (या अलप्पुझा) एक्स्प्रेस रखा गया है। विकिपेडिया देखने पर पता चला कि अल्लापुज़ा (उच्चारण में आलपुड़ा जैसा कुछ) अलेप्पी का ही मळयालम नाम है। यूं लगता है अलेप्पी के नाम आलपुझा ( Alappuzha) को धनबाद वालों ने उत्तरभारतीय कृत कर अल्लापुजा बना दिया है! 😆
धनबाद में हम मुम्बई हावड़ा मेल से पंहुचे। इलाहाबाद में यह गाड़ी पचास मिनट “पिट” गयी थी, सो जैसा मेरे समधीजी ने बताया, आगे इसे राजधानियां दाबेंगी और धनबाद और लेट होगी पंहुचने में। वही हुआ। धनबाद लगभग सवा घण्टा देरी से पंहुचे हम। अल्लापूजा का धनबाद से छूटने का समय पौने इग्यारह बजे था, सो इस बात कि फिक्र नहीं थी कि गाड़ी छूट जायेगी। अन्यथा रेलवे वाले की गाड़ी छूट जाये?! शेम शेम!
नत्तू पांड़े (मेरे नाती विवस्वान पाण्डेय, उम्र साढ़े तीन साल, जिन्हे ढेर सारी पोयम्स, अपोजिट वर्ड्स, और जाने कहां तक की गिनती आती है और जो नीलम मैडम का जनरल नॉलेज ठीक करते हैं कि दूध गाय नहीं, मुन्नी – उनकी गवर्नेस – देती है) अपने मम्मी-पापा के साथ हमसे मिलने धनबाद आ रहे थे। उनसे पता किया तो वे लगभग एक घण्टे में पंहुचने वाले थे। इस बीच हमारे कोच की शंटिंग प्रारम्भ हो गयी और जब तक वह प्लेटफार्म पर लगा, नत्तू पांड़े को बीस मिनट इन्तजार करना पड़ा स्टेशन मास्टर साहब के कमरे में। मैने यह नहीं पता किया कि वहां इन्तजार में वे स्टेशन मास्टर साहब की कुरसी पर तो नहीं बैठे या एक दो ट्रेनों को लाइन क्लियर देने लेने का काम तो नहीं किया।
नत्तू पांड़े जब हमें मिले तो मानो हमारा पूरा डिब्बा उजास हो गया। मेरी बिटिया और मेरे दामाद से मिलने की खुशी की अपेक्षा उनसे मिलने की खुशी कई गुना थी – मूल की बजाय ब्याज ज्यादा प्रिय होता है – यह निरर्थक नहीं कहा गया! घण्टा भर से कम ही रहे वे हमारे साथ। और उन्होने जाते समय जोश में बाय बाय तो किया, पर मेरी बिटिया ने बाद में मोबाइल पर बताया कि ओवर ब्रिज पर नत्तू पांड़े अड़ गये थे कि नाना-नानी के साथ “हमका इलाबाद जाओ” (नाना-नानी के साथ मुझे इलाहाबाद जाना है।)।
धनबाद से गाड़ी बोकारो-रांची होते आगे बढ़ी। रांची के आगे हरियाली थी – जंगल और धान के खेत। जमीन समतल नहीं थी, पर जहां भी जंगल ने जमीन थोड़ी भी छोड़ी, धान ने लप्प से लपक ली थी। कुछ ही जगहों पर पहाड़ियां दिखीं, जिनपर कुछ नहीं उगा था। एक दो जगह लाल मिट्टी के टीले थे। कहीं कहीं लोगों के खलिहान भी दिखे। पर ज्यादा फसल अभी खेतों में थी। दो तिहाई धान के पौधे हरे थे। एक तिहाई पकने की प्रक्रिया में हरे से पीले के बीच थे। उनमें से उठ रही सुगंध हवा में पूरे रास्ते व्याप्त रही।
सुगंध धान की ही नहीं, अनेक वनस्पतियों की लग रही थी। कहीं कहीं हम अटकल लगा रहे थे कि फलाने पेड़ की मंजरी से उठ रही होगी सुगंध। पर वह इतनी विविधता भरी थी कि लगता था जंगल की हर वनस्पति सुगंध के ऑरकेस्टॉ में अपना सुर मिला रही हो। इस समय सूर्यास्त होने जा रहा था। वापसी में यही इलाका सवेरे पड़ने जा रहा है – सो हमने योजना बना ली थी कि वापसी में सवेरे एक शॉल ओढ़ कर पूरब की ओर वाली खिड़की के पार देखने और सूंघने के लिये आसन जमा लेंगे।
मैं और मेरी पत्नी देखने और सुगंध लेने में व्यस्त थे। बाकी डिब्बे के लोग घोड़े बेच कर सो रहे थे। शाम के पांच बजने पर उनको झिंझोड़ा गया – भैया, चाय वाय का इन्तजाम तो करो!
और चाय मिल गयी!
राउरकेला आया साढ़े छ बजे। एक पहाड़ी पर वैष्णव देवी मन्दिर का रिप्लिका दिखा। सांझ का अंधेरा गहरा गया था – सो रोशनी में जगमगाता दिखा स्टेशन प्लेटफार्म से। प्लेटफार्म के कोने पर एक ओर एक पाण्डाल जगमगा रहा था दुर्गापूजा का। उसमें विशुद्ध काकभुशुण्डि की आवाज वाला कोई व्यक्ति बंगला में अनाउंसमेण्ट कर रहा था कि सड़क पर डांस करने की मनाही है। अभी डीजे बजेगा और जिसको नाचना है, यहीं पाण्डाल में अपनी साध पूरी कर ले। भगवती मां की कृपा रही कि जब तक हमारी गाड़ी प्लेटफार्म पर रही – लगभग आधा घण्टा – डीजे बजना प्रारम्भ नहीं हुआ था। अन्यथा वह पाण्डाल हमारे कोच के पास ही था।
छोटे लाल वड़ा और इडली खरीद लाये थे प्लेटफार्म से। उसकी प्रेपरेशन राउरकेला की भौगोलिक अवस्था से मेल खाती थी। यहां उत्तर खत्म हो रहा होता है और दक्षिण प्रारम्भ। इन डिशेज में दोनो का मेल था। राउरकेला स्टेशन के हिन्दी अनाउंसमेण्ट भी अहसास दिला रहे थे कि यह हिन्दी का दक्षिणी सिरा है। यहां हिन्दी अपनी उच्चारण की उत्तरभारियत पूरी तरह खो देती है!
रात हो गयी है। कल सवेरे देखते हैं गाड़ी कहां उगती है। आज तो अखबार का अवकाश था विजयदशमी के कारण। कल देखें अखबार मिलता है या नहीं!
आपकी सुबह विजयनगरम के आसपास हुई होगी, आगे की यात्रा के वृतांत की जिज्ञासा है
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अच्छा लगा रविशंकर जी कि आपने दस साल पहले की पोस्ट खंगाल कर पढ़ी ब्लॉग पर। आगे का यात्रा वृतांत जो है, सो ब्लॉग पर ही है। अपनी स्मृति से अधिक इनपुट तो दस साल बाद दे नहीं पाऊंगा।
आपको पढ़ने के लिये धन्यवाद।
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नत्तू पाड़े तो काफी बड़े हो गए हैं। राउरकेला तक आपकी ट्रेन पहुंची तो उसे थोड़ा और आगे तक के लिए हरी झंडी दिखा देनी थी न, छत्तीसगढ़ तक के लिए।
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यात्रा के अग्रिम आनन्द के लिये शुभकामनायें।
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हमारी नामबिगाड़ू परम्परा बड़ी घातक है, मकरावटगंज जैसे मकर राशि का नाम लगता है। Mac Robert साहेब अपने नामकरण को पछता रहे होंगे।
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नत्तू पाण्डेय का संग रुचिकर रहा …
बधाई आपको !
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नत्तू पांडे खूबसूरत नजर आ रहे हैं। वैसे बचपन की खूबसूरती का कोई जवाब नहीं होता। कभी सोचते हैं हम भी वैसे ही रहे होंगे। विजया दशमी की छुट्टी अखबार में मेरे लिए आश्चर्य है। यहाँ तो आज के दोनों अखबार आए पड़े हैं।
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आहा हा…आनंद परम आनंद…आपकी पोस्ट पढने में येही तो आनंद है लगता है जैसे साथ ही यात्रा कर रहे हैं…विलक्षण लेखन है प्रभु आपका…रेल यात्रा का सा आनंद और किसी यात्रा में नहीं है….हवाई जहाज़ में तो कतई नहीं…जो लोग जमीन से जुड़े रहना चाहते हैं उनके लिए रेल और बस सबसे बढ़िया यात्रा के साधन हैं…नथ्थू पांडे जी की मुस्कराहट पे तो हम कुर्बान हो गए…बहुत प्यारे गोल मटोल से निकल आये हैं जनाब…हमारा ढेरों आशीर्वाद उन्हें…
कल लोगों ने हर गली मोहल्लों यहाँ तक के अपने घरों में भी रावण जलाया…अब रावण दहन भी व्यक्तिगत होने लगा है, बाज़ार में ८०० से ३००० रुपये तक के रावण खूब बिके, बच्चे और बड़े अब रावण का पुतला भी चुन कर छांट कर मोल भाव कर खरीद रहे थे, किसी को लाल रंग वाला पसंद आ रहा था तो किसी को काले रंग वाला कोई रंगबिरंगा रावण रिक्शा में लदवा कर घर ले जा रहा था , धर्म के बाजारीकरण का सार्वजानिक प्रदर्शन हो ने लगा है, देर रात तक पटाखे चला चला कर चिल्ला कर शरीफों की नींद उड़ा कर लोगों ने रावण दहन का जश्न मनाया…लेकिन रावण न कभी जला है और न जल पायेगा…इसी राख से फिर फिनिक्स की भांति वो उठ खड़ा होगा अगली ही सुबह…और साल भर तक लोगों के दिलों में राज़ करेगा.
नीरज
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रेल के सफर का अपना ही आनन्द है. जो प्राकृतिक छवियाँ ट्रेन के सफर में दिख जाती हैं अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलतीं. नाती साहब अपनी मस्ती में हैं.
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