[टेंगर, और यह कि सोंइस (मीठे जल की डॉल्फिन) रोज दिखती है यहां।]

एक नाव पर वे दो थे – बाद में पता चला नाम था लल्लन और राकेश। लल्लन के हाथ में पतवार थी और राकेश जाल डाल रहा था गंगा नदी में।
हम – मैं और मेरी पत्नीजी – गंगा किनारे खड़े देख रहे थे उनकी गतिविधियां। उनकी नाव कभी बीच धारा में चली जाती और कभी किनारे आने लगती। इस पार पानी काफी उथला था, सो पूरी तरह किनारे पर नहीं आती थी। नाव के कुछ चित्र भी लिये मैने। एक बार जब किनारे से लगभग बीत पच्चीस गज की दूरी पर होगी, मैने उनसे बात करने की गर्ज से चिल्ला कर कहा – कितनी मिल रही हैं मछलियां?
उनमें से जवान, जो मछलियां पकड़ रहा था, ने कहा – मिल रही हैं। फिर बातचीत होने लगी। वे सवेरे आठ बजे से यह काम कर रहे थे और दोपहर दो बजे तक करेंगे। लगभग तीन किलो भर मिल जायेंगी मछलियां उन्हे।
मैने पूछा हमे उस पार तक नाव में ले चलोगे? सहर्ष वे तैयार हो गये। लगभग आधा पौना घण्टा हम नाव पर रहेंगे। सौ रुपये में। वे नाव किनारे ले आये। हम दोनों नाव में सवार हो गये। कुछ ही पल में नाव धारा में थी।

लल्लन अधेड़ था। नाव की पतवार चला रहा था। आस पास उपलब्ध सामग्री से लगता था खैनी भी खा रहा था। बहुत कम बोलने वाला। बड़ी मुश्किल से नाम बताया अपना। उसको यह भी अच्छा नहीं लग रहा था कि नाव में हम अपनी चप्पलें पहने बैठ गये थे और उससे कुछ कीचड़ लग गयी थी। हमने अपनी चप्पलें उतार दीं। मैने चप्पल उल्टी कर रख दी, जिससे उसका कीचड़ वाला पेंदा सूख जाये। … लल्लन का पतवार चलाना बहुत सहज और प्रयास हीन था। चूंकि वह बहुत बोल नहीं रहा था, इस लिये मैने प्रशंसा नहीं की। अन्यथा बात चलाने के लिये कहता – आप नाव बहुत दक्षता से खे रहे हैं।
हमारे प्रश्नों के उत्तर राकेश ने दिये। पच्चीस-तीस की उम्र का सांवला नौजवान। वह समझ गया कि हममें नदी, मछली पकड़ने और उन लोगों की जिन्दगी के बारे में कौतूहल है। अत: उसके उत्तर विस्तृत थे और अपनी ओर से भी जानकारी हमें देने का प्रयास किया राकेश ने।

वे साल में हर मौसम में, हर दिन मछली पकड़ने का काम करते हैं। गंगा नदी उन्हे हर दिन मछलियां देती हैं। मैने जोर दे कर पूछा कि वर्षा के महीनों में भी पकड़ते हैं? राकेश ने बताया – हां।
मेरे मन में था कि मछलियों के प्रजनन का कोई समय होता होगा और उन महीनों में शायद मछेरे छोड़ देते हों मछलियां पकड़ना। पर राकेश की बात से लगा कि ऐसा कुछ भी न था। उसने बताया कि रोज तीन चार किलो मछली पकड़ लेते हैं वे और अस्सी से सौ रुपये किलो तक बिक जाती है। मछली पकड़ने के अलावा वे सब्जियां बोने का भी काम करते हैं कछार में। पर मुझे लगा कि शायद राकेश के परिवार के अन्य लोग सब्जियां बोते हों, वह मछली पकड़ने के काम में ही रहता है।
यहीं घर है? पूछने पर राकेश ने बताया कि वह रसूलाबाद का है और इसी क्षेत्र में मछली पकड़ता है। मैने जानना चाहा कि कभी नाव पर चलना हो तो उससे सम्पर्क करने के लिये कोई फोन है? इस पर राकेश ने कहा कि उसके पास तो नहीं है। घर में है जिसे उसकी बहन लोग इस्तेमाल करते हैं। नम्बर उसे नहीं मालुम था, सो बता नहीं पाया। यही कहा कि हम यहीं रहते हैं, जब चाहेंगे मिल जायेंगे!
उसने मुझे जाल नदी में डाल कर दिखाया – लगभग पचास मीटर लम्बा। वह डाल रहा था कि एक मछली फंस कर पानी के बाहर उछली। आप फोटो लीजिये – राकेश बोला। एक बार उछलने को कैमरे में नहीं समेटा जा सकता था। एक मछली और फंसी। लगभग आठ दस मिनट में जब वापस जाल उसने समेटा तो दो मछलियां जाल में थीं। एक लगभग एक फुट की थी और दूसरी उससे थोड़ी बड़ी।
यह टेंगर है। और पहले जो मैने पकड़ रखी है, वो चेल्हा हैं। दोनो टेंगर नाव पर पड़ी तड़फ रहीं थीं। इस समय हमें नदी की मछेरा-गाथा जानने का कौतूहल जकड़े था, सो मछलियों के प्रति करुणा का भाव हम पर हावी न हो पाया। मैं निस्पृह भाव से टेंगर का मुंह खोलना, बन्द करना और उसके शरीर का ऐंठना देखता रहा।

इस तरफ कभी सोंइस दिखीं?
हां बहुत दिखती हैं। राकेश का यह बताना हमारे लिये बड़ी जानकारी थी। मैने पूछा, कितनी बार दिखी? महीने में दिख जाती है? कहां दिखी?
यहीं आसपास दिखती है। पैंतीस चालीस किलो की। लगभग रोज ही दिख जाती है।
मुझे लगा कि कहीं गलत न समझ रहा हो, पर जो भी विवरण उसने दिया, वह सोंइस (मीठे पानी की डॉल्फिन) का ही था। सोंइस विलुप्तप्राय जीव है। उसका शिकार नहीं होना चाहिये। राकेश के कहने से लगा भी नहीं कि वह कभी सोंइस पकड़ता हो। पर मैने साफ साफ तहकीकात भी नहीं की। अगली बार मिला तो पूछूंगा कि कोई सोंइस पकड़ता तो नहीं है।
खैर, सौ रुपये में गंगा जी का नौका भ्रमण और यह जानकारी की सोंइस है, और प्राय रोज दिखती है, बड़ी उपलब्धि थी।
किनारे से लगता था कि गंगाजी का पानी कम हो रहा है। पर जब उनकी चौड़ाई पार की तो अहसास हुआ कि गंगाजी पानी के मटमैला होने और बीच बीच में कहीं कहीं उथली हो जाने के बावजूद एक बड़ी नदी हैं। इतनी बड़ीं कि सुन्दर भी हो, गहराई का भय भी हो और श्रद्धा भी। राकेश जब जाल नहीं डाल रहा था, तब डांड चला रहा था। उसकी डांड़ के डूबने से अन्दाज लगता था गंगाजी की गहराई का। एक दो जगह वे पर्याप्त गहरी थीं। एक जगह इतनी उथली थीं कि एक मछेरा पैदल चलते जाल डाल रहा था।
कई अन्य मछेरे भी जाल डाल रहे थे। राकेश से पूछने पर कि आपस में कोई झगड़ा नहीं होता जाल डालने को ले कर; वह हंसा। हंसी से लगा कि यहां नदी सब को पर्याप्त दे रही हैं – हर मछेरे को पर्याप्त मछली है और हर मछली को पर्याप्त भोजन।
गंगा नदी को आदमी अपने कुकर्मों से भले ही मार रहा हो, वे अभी भी सब को मुक्त भाव से जीविका लुटा रही हैं।
एक छोटी सी नाव, जो इस समय लगभग पंद्रह हजार में बन जाती है (राकेश नें बताया कि साखू की लकड़ी की तो मंहगी होगी – तीस हजार की; पर सफेदा या आम की लकड़ी की पंद्रह हजार में बन जाती है और पांच साल अच्छे से चलती है) और एक जाल की बदौलत साल के बारहों महीने की आजीविका बेरोक टोक! और कहां मिलेगी?!
हमें किनारे उतारा राकेश ने। मैने उससे हाथ मिलाया और एक बार फिर उसकी नाव का चित्र लिया कैमरे में। एक बार फिर नाव पर पड़ी टेंगर तड़फी-उछली!
कुछ ही समय की मेहमान टेंगर। तुम्हारी आत्मा को शान्ति मिले टेंगर। भगवान अगला जन्म किसी बेहतर योनि में दें तुम्हें और गंगाजी का सानिध्य किसी और प्रकार से मिले तुम्हे।
गंगा नदी को आदमी अपने कुकर्मों से भले ही मार रहा हो, वे अभी भी सब को मुक्त भाव से जीविका लुटा रही हैं| prakruti hai jab tak meherban hai tab tak degi. Aapa nauka bhraman padh kar apane excursion yad aa gaye.
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😦 मछलियों पर कृपा नहीं हो पाई गंगा मैया की …
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गंगा नदी को आदमी अपने कुकर्मों से भले ही मार रहा हो, वे अभी भी सब को मुक्त भाव से जीविका लुटा रही हैं| यही तो फ़र्क है आदमी और नदी में।
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रोज कमाने खाने वाले फ़िर भी संतुष्ट हैं कि नदी सब को पर्याप्त दे रही है और जिनकी पीढ़ियाँ दोनों हाथ से खर्च करें फ़िर भी खत्म न हों, वे अब भी असंतुष्ट हैं।
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