गुरु द्वारा दिया नाम उमादास। गृहस्थ नाम ॐ प्रकाश शुक्ल। बांसगांव, देवरिया के रहने वाले। कृशकाय शरीर। पर्याप्त स्फूर्ति। साधू।
उमादास नाम गुरु का दिया है। गुरु का नाम भी बताया उन्होने। बनारस के हैं गुरूजी।
चाय की चट्टी पर अचानक दिखे। चट्टी वाले अरुण से मैने उनके बारे में पूछा – कौन हैं?
“होंगे कोई बाबा। आते जाते रहते हैं।” अरुण ने उनके बारे में अनभिज्ञता जताई। अपने पिताजी के समय से चट्टी पर इस तरह के बाबा लोगों का सत्कार करते रहे हैं अरुण और अन्य भाई लोग। बिना पूछे कि कौन कहां के हैं। मैं अरुण से भी प्रभावित होता हूं और बाबाजी से भी। सरल से जीव लगते हैं बाबा जी। पास के हैण्डपम्प से पानी ले कर खड़े बाबा से बतियाने लगता हूं।
अपना मुकाम पहले गोरखपुर बताते हैं। ज्यादा पूछने पर देवरिया और उसके आगे तिखारने पर बांसगांव। बाईस जनवरी को चले हैं। मईहर तक जा कर लौटेंगे। कुल 125 दिन की यात्रा का अनुमान है। पैदल ही चलते हैं उमादास। रोज लगभग 5 कोस। जहां जगह मिली वहां विश्राम कर लेते हैं और जहां जो भोजन मिला, वही कर लेते हैं। पास में एक कपड़े में रोल किया कम्बल-चद्दर है। एक झोले में अन्य सामान। एक कमण्डल भी है – जो शायद साधू होने का प्रतीक है। अन्यथा उनके पास एक ग्लास भी दिखा, जिसमें पानी पी रहे थे वे।
उम्र नहीं पूछी; पर मेरी उम्र के तो होंगे ही। शायद ज्यादा भी। स्वस्थ होने के कारण मुझसे जवान लगते थे।
अपनी अवस्था का अनुमान देते हुये बताते हैं उमादास – “शरीर का क्या भरोसा? अपना पता और तीन चार लोगों का मोबाइल नम्बर अपने झोले में रखा हूं।”
झोले से निकाल कर गीता की प्रति और उसमें लिखे मोबाइल नम्बर/पता आदि दिखाया उन्होने। बोला कि गीता और रामायण साथ में ले कर चलते हैं।
अपना खाना भी बना लेते हैं?
“नहीं, जो मिला वही कर लेता हूं। कभी अगर कुछ न मिला तो दो टिक्कड़् सेंक लेता हूं।”
पहले भी कभी यात्रा की है?
“पन्द्रह साल पहले चित्रकूट तक गया था इसी तरह। अकेले। एक बार मैरवा गया था। पैदल ही। अकेले। नेपाल नहीं गया। पहाड़ नहीं चढा हूं।”
अपनी दशा या देश-काल से कोई शिकायत नहीं लगी उमादास को। प्रसन्नमन ही दिखे। उन्हे मैने चलते समय एक जून के भोजन के पैसे दिये। बडी सहजता से स्वीकार किये उन्होने।
वापसी में अपने साथ चलते राजन भाई से मैने कहा – एक उमानाथ हैं। अगली जून के भोजन की फिक्र नहीं और मैं हूं; जो अगले साल भर के लिये अन्न संग्रह की जुगत में हूं। एक वाहन, एक वाहन ड्राइवर काइन्तजाम कर रहा हूं। मैं असन्तुष्ट हूं। उमानाथ संतुष्ट हैं और प्रसन्न भी।
अपना अपना भाग्य। अपनी अपनी दशा।
आश्चर्य आज भी लोग ऐसे जीवन जी रहे है! कल की चिंता नही है सिर्फ़ आज में जी रहे है!
शायद इसलिए कहते है भगवान ने पैदा किया है तो किस बात की चिंता, खाने को भी दे ही देगा!
कुछ लोग थोड़े में भी खुश है और कुछ सब कुछ होने के बाद भी जिंदगी से खुश नही है! यही हमारा समाज और दुनिया है!
एक तरफ वो लोग है जो कहते है की आप के पास अगर चार पहिए वाली गाड़ी नही है तो बेकार है जिंदगी, आप जैसे लोग तो हमारे नौकर बनने के लायक भी नही है!
हम तो अपनी ज़रूरत के हिसाब से चलते है बेकार का देखावा नही करते है पर अधिकतर लोग दिखावा अधिक करते है फिर चाहे घर में खाने को ना हो पर स्टॅंडर्ड में कमी नही होनी चाइये, और उधार ले कर उधार की जिंदी जी रहे है!
सच है भाग्य और परिस्थी किसी के बस में नही है!
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ज्ञानदत्त जी , आपका लेख पढ़ा । आपको हिंदी के एक सशक्त मंच के सृजन एवं कुशल संचालन हेतु बहुत-बहुत बधाई । इन्टरनेट पर अभी भी कई बेहतरीन रचनाएं अंग्रेज़ी भाषा में ही हैं, जिसके कारण आम हिंदीभाषी लोग इन महत्वपूर्ण आलेखों से जुड़े संदेशों या बातों जिनसे उनके जीवन में वास्तव में बदलाव हो सकता है, से वंचित रह जाते हैं| ऐसे हिन्दीभाषी यूजर्स के लिए ही हम आपके अमूल्य सहयोग की अपेक्षा रखते हैं ।
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उम्मीद है हमारी इस छोटी सी कोशिश में आप हमारा साथ अवश्य देंगे ।
आपके उत्तर की प्रतीक्षा है …
धन्यवाद,
संजना पाण्डेय
शब्दनगरी संगठन
फोन : 0512-6795382
ईमेल-info@shabdanagari.in
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आप लिखते हैं तो यूँ लगता है जैसे मेरे को जान लिया।
ज़िन्दगी में संग्रह कई तरह की समस्याएं लाता है। जितना सुविधाओं को बढ़ाया उतनी परेशानियां भी पीछे पीछे आती हैं।
बहुत सुन्दर लेखन..
कभी ajoshi1967.WordPress.com पर आकर मेरे लेखन को निर्देशित करें तो अतिकृपा हो
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भय बाँधता है, निर्भय तो स्वच्छन्द है, मन से भी, तन से भी।
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बाबा उमानाथ एक पुराना और व्यतीत संत-समय हैं जो इस इक्कीसवीं सदी में भी अपनी वीतरागिता और निस्पृहता से एक पुराना देश-काल बचाए हुए हैं. एक धीमा और पदचारी किंतु पर की चिंता करने वाला और अन्य पर भरोसा करने वाला समय .
कैसा आश्चर्य है कि सौ-पचास रुपयों के लिए जान दे देने और ले लेने वाले इस क्रूर और बीहड़ समय में बाबा उमानाथ हैं और सही-सलामत हैं. और वह समाज भी है, भले सिकुड़ता हुआ, जो बाबा उमानाथ का होना और ‘करतल भिक्षा, तरुतल वास’ का उनका पदचारी भ्रमण संभव बनाता है .
आधुनिक और उत्तरआधुनिक दोनों का विपर्यय है बाबा उमानाथ का यह प्राइमोर्डियल — आद्य — समय .
मुझे तो बाबा उमानाथ और उनका दस्तावेजीकरण करने वाले क्रोनिकलर एवं नव-ग्रामवासी गृहस्थ ज्ञानदत्त पाण्डेय दोनों से रश्क होता है .
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मैं अरुण की चाय की चट्टी को भी साधुवाद दूँगा जो साधु और असहाय को बैठाने और चाय देने की परंपरा का दो पीढ़ी से निर्वहन कर रहे हैं। यह भावना उमादास जैसी प्रवित्ति को खाद पानी देती है – नैतिक अकाल के युग मैं भी।
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नितान्त निष्पृह एवम् वस्तुनिष्ठ चितेरापन अनुपम है.
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