पहली बार वहां सरपत की झोंपड़ी देखी गंगा किनारे द्वारिकापुर गांव में। दरवाजे की टटरी बंद थी। मैं उस झोंपड़ी का चित्र लेने लगा तो वह किशोर बाहर निकल आया। नंगे बदन। मात्र एक गमछा लपेटे। उत्तरीय के रूप में मात्र एक माला।
नाम बताया मयंक चौधरी। घाट का डोम। पहले बनारस के घाट से आया जाया करता था रोज। अब यहीं रहने लगा है कुछ महीने से। उसकी दादी यदा कदा आकर उसका इंतजाम देख जाती हैं। दादी यहां रुकती नहीं।
मयंक ने बताया कि वह मुझे जनता है। एक बार मेरे परिवार के लोग भी आए थे तो उसने देखा था।
वह एक माला पहने था – जिसके मनके खोपड़ी के आकार के थे। उसने बताया कि पत्थर से बनाए जाते हैं बीड्स। उसकी माला और उसके बोलने का अंदाज – आवाज में हल्की लटपटाहट – सब उसे हल्का रहस्यमय व्यक्तित्व बना रहे थे। पास खड़े एक सज्जन ने बाद में बताया कि यहां घूमता रहता है वह पर रात में बहुधा कमहरिया के अघोरी आश्रम में चला जाता है।
मसान, खोपड़ी, चिता, अघोरी… अजब योग था सवेरे सवेरे मेरे भ्रमण में!
अपने धंधे के बारे में मयंक ने बताया कि चिता को आग देने के लिए वह 300रू या अधिक लेता है। कभी एक चिता होती है और कभी तीन चार भी। मरने का भी मौसम होता है… गरीब और विपन्न को वह बिना कुछ लिए अग्नि देता है। मुसहर आते हैं तो उनसे कुछ नहीं मांगता वह।
चलते चलते मैंने उससे हाथ मिलाया। कभी किसी घाट के डोम से हाथ मिलाया हो – याद नहीं आता। आपने मिलाया है?
महाराज ! ये माला अधोवस्त्र कब से हो गई . पहने तो गले में ही है . 🙂 अब परम्परा के हिसाब से तो अधोवस्त्र गमछा और घुटन्ना हुआ .
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सही कर देता हूँ जी! 😀
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Interesting read.
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