इस ब्लॉग में लोकभारती के दिनेश ग्रोवर जी पर कुछ पोस्टें हैं। प्रयागराज में “लोकभारती” में उनसे कई मुलाकातें हुईं। जब वे मित्रवत हो गये तो चाय भी मंगाया करते थे मेरे आने पर। उनसे मुलाकात पर अन्तिम पोस्ट 2013 की है। फिर उनसे मिलने का सिलसिला टूट गया, जब मैं 2014 के प्रारम्भ में प्रयागराज से गोरखपुर चला गया। बाद में पता चला कि उनका देहावसान हो गया था।
लोकभारती को मैं ग्रोवर जी से पहचानता था। उनके न रहने पर वहां जाना खत्म हो गया। कालान्तर में एक बार प्रयागराज में पुस्तकें खरीदी भी तो किसी अन्य दुकान से। एक अच्छा/स्तरीय पुस्तक अड्डा मैं मिस करता रहा हूं, लोकभारती के बाद। गांव में रहने पर उसे अमेजन और किण्डल से रिप्लेस करने का यत्न किया मैने; पर उसमें वह बात नहीं! या यूं कहें कि दोनो के अलहदा तरीके के अनुभव हैं।
अब, वाराणसी में पिछले दिनों हम पुस्तक की दुकान खोज रहे थे। मेरी पोती चिन्ना के लिये कुछ कहानी की पुस्तकें खरीदनी थी, जिसे हम पढ़ कर सुना सकें – चिन्ना पांड़े में पढ़ने के प्रति रुचि जगाने के लिये। रथयात्रा, वाराणसी में एक दुकान में घुसे। पहले तो लगा कि दुकान में कोई है नहीं, पर तभी पुस्तकों के पीछे एक सज्जन नजर आये।
उनका नाम है सुमित भार्गव। वे दुकान के पांचवी पीढ़ी के कर्ताधर्ता हैं। उनके परिवार के लोग अकादमिक्स में भी रहे और पुस्तक के व्यवसाय में भी। सुमित एक दुकानदार जैसे नहीं, प्रशासनिक ग्रेड के अधिकारी सरीखे नजर आये। उनकी भाषा भी वैसी ही स्पष्ट और सुसंस्कृत शब्दों वाली थी और मैनेरिज्म में जो अभिजात्य था, वह वाराणसी के मूल चरित्र से इतर था। बावजूद इसके कि उनकी और मेरी उम्र में पीढ़ी का अन्तर था, मैं उन्हें मित्र बनाने की इच्छा करने लगा।
सुमित की दुकान में पुस्तकों के स्तर से भी मैं बहुत प्रभावित हुआ। सरसरी निगाह से जो पुस्तकें दिखीं – उनमें से कुछ मेरे पास थीं और अधिकांश ऐसी थीं, जिन्हे लेने की मैं इच्छा रखता था। वैसे पिछले चार साल में ज्यादातर पुस्तक खरीद मैने किण्डल पर की है। पर कई पुस्तकें हैं, जो किण्डल पर उपलब्ध नहीं हैं, उन्हे पेपर पर पढ़ने की हसरत है!
सुमित जी ने पांच साल की चिन्ना को भी एक प्रबुद्ध ग्राहक जैसी तवज्जो दी। पुस्तकें निकालने और उनके बारे में बताने का उनका तरीका एक स्तरीय बुक-लवर जैसा था। हमने कुछ पुस्तकें खरीदीं। अपनी सास जी के लिये भी एक पुस्तक ली।
सुमित जी ने अपने व्यवसाय के बारे में बताया। उनकी दुकान पहले बांसफाटक पर थी। मुझे बाद में पत्नीजी से पता चला कि बांसफाटक पर पुस्तकों के सेलर, डिस्ट्रीब्यूटर और पब्लिशर्स के बहुत संस्थान हैं। सुमित जी का संस्थान भी उनमें से था। अब यह कुछ सालों से रथयात्रा पर शिफ्ट कर लिया है।
सुमित जी से मैने किताबों के व्यवसाय की दशा के बारे में पूछा। मैं अपेक्षा कर रहा था कि वे आजकल लोगों की पढ़ने की घटती प्रवृत्ति और पुस्तकों के प्रति रुंझान में गिरावट की बात करेंगे। पर सुमित जी ने (बड़ी बहादुरी से) पुस्तक पाठकों को डिफेण्ड किया – जो लोग जानते हैं कि वास्तव में तत्व/ज्ञान के लिये इण्टरनेट या सोशल मीडिया नहीं, पुस्तकें ही स्रोत हैं, वे अब भी पुस्तकों के प्रति समर्पित हैं; और उनकी संख्या कम नहीं है। यह सुखद था कि वे उस पीढ़ी को जो ह्वाट्सैप की अधकचरी सूचनाओं और यू-ट्यूब पर देखे वीडियोज़ के माध्यम से अर्जित अपनी बौद्धिकता पर संतोष करती या इतराती है; को दोष देने की मोनोटोनी का सहारा नहीं ले रहे थे। वे अपने कथन के माध्यम से अपने व्यवसाय के प्रति प्रतिबद्धता को परिपुष्ट कर रहे थे। आम तौर पर पुस्तक व्यवसाय से जुड़े लोग उसके गौरवशाली अतीत और गर्त में जाते वर्तमान की बात अधिक करते हैं। … बेहतर है – जैसा सुमित कर रहे थे – पुस्तकों की दुनिया की अहमियत को उसी तरह अण्डरलाइन किया जाये।
अगर सुमित जी से वैसा सम्पर्क बना जैसा दिनेश जी के साथ था तो शायद किण्डल-धर्म में ली गयी दीक्षा का मन्त्र भूल कर मैं पेपरबैक पर वापस लौटूं। सुमित जी के यहां (गंगा शरण एण्ड ग्राण्ड-संस में) पुस्तकों की उपलब्धता बहुत लुभावनी है।
वाराणसी जाने पर एक चक्कर उनकी दुकान का लगाना तो अब बनता ही है। वैसे, सुमित जी को बहुत स्तरीय ग्राहक मिले होंगे, पर हमारे जैसा नहीं मिला होगा – चालीस किलोमीटर दूर गांव में रहने वाला; जो अपनी पोती को ले कर आया हो, उसकी रुचि विकसित करने के लिये पुस्तक खरीदने का ध्येय ले कर।
आशा है, सुमित भी मुझे रोचक व्यक्तित्व पायेंगे! 🙂
आदमी के दिमाग की पुस्तकें ही असल खुराक होती हैं। किताबों को ऑनलाइन या किंडल पर पढ़ने से उसकी मूलता खत्म हो जाती है। किताबों की आत्मा को समझने के लिए उनकी मूल प्रति ही ज्यादा आकर्षित करती है
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‘शब्द’ मात्र भावों के संचरण का माध्यम ही नहीं वरन ऊर्जा के प्रबल सूत्र हैं, मेरा मत है ब्रह्मांड की उत्पत्ति भी शब्द नाद ध्वनि से ही हुई थी।
चुनिंदा शब्दों में भावों के आधार पर उन्होंने जिस प्रकार चरित्र चित्रण व इतिहास की व्याख्या करी इस बात के लिए उन्हें साधुवाद।
चंद क्षणों की मुलाकात और अपनी लेखनी से इसका सुस्पष्ट बयान अभिभूत करने वाला था। आपने सही समझा की पुस्तकों का व्यवसाय मात्र आर्थिक लेन-देन नहीं है, बल्कि उन शब्दों और उनकी आत्मा को समझना एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी भी है।
जी,अपने पूर्वजों द्वारा किए गए कर्तव्य व उनके समर्पण को आगे ले जाना एक भारी जिम्मेदारी है। पहली पीढ़ी के व्यवसायी होने पर आपसे गलतियों की उम्मीद की जा सकती है, लेकिन ऐसा अवसर अब हमें प्राप्त नहीं है।
यह भी एक सत्य है की संस्था किसी एक व्यक्ति के बदौलत नहीं चलती बल्कि कई लोगों के साथ व प्रेरणा आवश्यक होती है, जो अपनी कर्मठता से निरंतरता बनाए रखने में योगदान देते हैं, उनको भी धन्यवाद।
यहां एक बात का उल्लेख करना नितांत आवश्यक है- आपके अन्य ब्लॉग भी पढ़ें, स्वर्गीय दिनेश ग्रोवर जी का नाम हमारे पुस्तक प्रकाशन वर्ग में बड़े आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है, न जाने कितने लेखकों को लेखक बनाने में उनकी उनका योगदान रहा होगा। ऐसे परम पुरुष के साथ मेरा नाम जोड़ना गौरव की बात तो है, परंतु मैं अपने आपको इसके योग्य समझ पाने में असमर्थ हूं।
अतः इस आधार पर मेरा यह कहना कि श्री ज्ञान दत्त पांडे जी, एक मौलिक विचारधारा व शब्दों के सृजन कर्ता है। मित्रवर कहना उदंडता होगी लेकिन आने वाले समय में उनका साथ व प्रेरणा की आवश्यकता पड़ती रहेगी।
अपनी अचूक लेखनी से मुझे जन्मदिन सरीखा एहसास दिलाने के लिए एक बार और उन्हें धन्यवाद।
आशा है हम व हमारी जगह चिन्ना को अवश्य पसंद आएगी और अपने प्रयासों से कसौटी पर खरे उतरेंगे।
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बहुत बढ़िया और स्तरीय टिप्पणी। आप अपेक्षा से अधिक सुस्पष्ट सम्प्रेषक हैं, सुमित भार्गव जी!
बहुत धन्यवाद।
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रोचक पोस्ट !
दिनेश जी के न रहने की बात जानकर अफ़सोस हुआ।
किताबें पढने का मजा छपी किताबों को पढने में ही है ! अच्छा है कि पढने वालों की संख्या बढ रही है !
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