शादियों का मौसम है। गांवों में पहले लोग तिलक, गोद भराई और शादी की झांपियों के लिये हलवाई लगाते थे जो लड्डू, खाझा और हैसियत अनुसार अन्य मिठाई बनाता था। झांपी बांस की टोकरियों को कहा जाता है; जिन्हें मंगल कार्य अनुसार लाल-पीला रंग में रंग दिया जाता था। तिलक और गोद भराई में फल की टोकरी को सजाया जाता था और उसपर रंगबिरंगी पारदर्शक पन्नी लगाई जाती थी। यह सब काम घर पर ही होता था। घर-पट्टीदारी में एक दो लोग इस कार्य में पी.एच.डी. किये होते थे।
अब उस घरेलू उद्यम और विशेषज्ञता का स्थान बाजार ने ले लिया है। कस्बाई बाजार ने भी।

एक फल वाले ने अपने ठेले के पीछे इस प्रकार की टोकरियां सजा रखी थीं। उसने मुझे निरा अनभिज्ञ समझ कर इन टोकरियों पर छोटा-मोटा व्याख्यान दे दिया। उसके बाद यह जरूर जोड़ा कि अगर आपको कभी जरूरत हो तो यहीं से ले जाइयेगा।

एक मिठाई की दुकान वाला और उसके सामने एक ठेले वाला बने बनाये लड्डू (लेडुआ), खाझा, झांपी आदि रखे था। लड्डुओं का रंग बता रहा था कि उनमें भरपूर चीनी और रंग का प्रयोग किया गया था। खाझा को बर्र (Wasp) से बचाने के लिये एक जगह उन्हें प्लास्टिक की पारदर्शक पन्नी से ढंका गया था। आमतौर पर यूं ही खुला रखा गया था।
आजकल लोग बांस की झांपियों की बजाय गत्ते के “शुभ-विवाह” छपे डिब्बों का भी प्रयोग करने लगे हैं। उसकी भी व्यवस्था थी।

किफायत का युग भी है। बाजार इसे भी भुना रहा है। झांपी-कार्टन का आकार छोटा हुआ है। लड्डू और खाझा भी छोटे होने लगे हैं साइज में।
मांगलिक कार्यों में बाजार तेजी से पैठ बना रहा है। पहले जहां सजावट आम की टेरी (पत्ती) के बन्दनवार से हो जाया करती थी, अब झिलमिलाती लटकनें होती हैं। आप किसी भी कृत्य का नाम लें, बाजार उसे प्रोवाइड करता है। नाऊ, कंहार, पण्डित, संगीत, दर्शक आदि सॉफ्ट-अरेंजमेण्ट्स भी बाजार देने लगा है। शहरों में तो यह पूरी तरह पैठ बना चुका है; गांव-कस्बे में भी आता जा रहा है।
विवाह के लिये केवल लड़का-लड़की भर होने चाहियें।