महराजगंज कस्बे के बाजार में लगभग पच्चीस परसेण्ट दुकानें खुली या खुल रही होती हैं। कुछ के सामने दुकानदार झाड़ू लगा रहे होते हैं। झाड़ू लगा कर एक तरफ उस कूड़े को आग लगाने की प्रथा है। कुछ दुकानदार शटर खोल भर देते हैं और बाहर चबूतरे पर बैठ कर अखबार पढ़ते दिखते हैं। दो तीन सब्जी की दुकानें जो फुटपाथ पर लगाई जाती हैं, लगती या लगी हुई दिखती हैं। इसी तरह दो तीन चाय की दुकान पर चाय पीने वाले बोलते-बतियाते-गपियाते दिखते हैं।
चाय की दुकानों में अलग एक दुकान है – जिसमें एक महिला जमीन पर बैठ चाय बनाती है। उम्रदराज है। पैंसठ के आसपास होगी उम्र। उसके सामने गैस का सिलिण्डर और चूल्हा होता है। एक तरफ बड़े-मंझले-छोटे कुल्हड़ करीने से लगाये रहते हैं। महिला को चाय बनाने या परोसने के लिये अपने स्थान से उठना नहीं पड़ता। उनके सामने एक बैंच है जिसपर तीन ग्राहक बैठ सकते हैं। एक दो ग्राहक इधर उधर स्टूल के कर भी बैठ सकते हैं। कुल मिला कर एक समय में 4-5 ग्राहक डील हो सकते हैं उस दुकान पर।

दुकान असल में दो दुकानों का युग्म है। करीब 7-8 फुट की चौड़ाई है दुकान की। मूलत वह जूते चप्पल बेचने की दुकान है। उसके आगे के भाग में चाय का यह ज्वाइण्ट है।
महिला बताती हैं कि सवेरे चार बजे खुल जाती है चाय की दुकान। तब से ले कर आठ बजे तक वह बैठती हैं। ग्राहक चार बजे से आना शुरू हो जाते हैं। कई लोग घर से उठ कर दुकान पर की चाय पीते हैं। कुछ लोग सवेरे घूमने निकलते हैं और यहां रुक कर चाय पीते जाते हैं। कुछ तड़के मेहनत मजदूरी पर निकलने वाले भी अपनी पहली चाय यहां पीते हैं।
मैं सवेरे साइकिल भ्रमण के लिये महराजगंज बाजार से आते और जाते गुजरता हूं। उस समय यह दुकान और सभी गतिविधियों से अलग दिखती है। किसी महिला के चाय की दुकान पर बैठे होने के कारण, शायद। इस लिये एक दिन जब भीड़ नहीं थी वहां – एक ग्राहक भर था – मैं चाय पीने रुक गया। पूछा; बिना चीनी की चाय बन सकती है?
महिला ने (यह मेरे लिये आश्चर्य था, वर्ना सामान्यत: वही समाजवादी खड़े चम्मच की – अत्यधिक चीनी वाली चाय बनती और मिलती है) कहा – जरूर। और वह मेरे कहने के पहले ही एक कप दूध-पानी का लिकर चाय के भगौने में चढ़ाने भी लग गयी। एक खरल में इलायची के दाने भी पीस कर चाय में मिलाये। तीन-चार मिनट में मेरे लिये अलग से बनी चाय, कुल्हड़ में मुझे परोस दी उन्होने।
दूसरा ग्राहक तब तक वहां से जा चुका था। मेरे पास उस महिला से उनके व्यवसाय के बारे में पूछने का समय था चाय पीते हुये।
आदमी आज अपने से चुनाव पर बोलने लगे। मोदी तो सन्यासी आदमी है। तपस्वी। ऐसा नेता बड़े भाग्य से मिलता है देश को। और जिस तरह से काम हो रहे हैं, वो अगर रुक गये तो बड़ा दुर्भाग्य होगा देश का।
महिला ने बताया कि चालीस साल से है यह दुकान। साढ़े तीन बजे उठ जाती हैं वे। चार बजे से दुकान चलने लगती है। आठ बजे उनके पति नहा कर पूजा कर आते हैं और फिर दिन भर वे दुकान संभालते हैं। सवेरे चार बजे से शाम साढ़े सात बजे तक चाय बिकती है। चाय के अलावा लस्सी या नमकीन लस्सी भी बिकती है। तीस रुपये का बड़ा कुल्हड़ और बीस का मंझला कुल्हड़ लस्सी। छोटे कुल्हड़ में चाय बिकती है। पांच रुपये की। कुछ ग्राहक साथ में एक रुपये का रस्क का पीस या दो रुपये का पार्ले-जी बिस्कुट का पैकेट लेते हैं। दुकान में कई पान-मसाला और जर्दा-सुरती के पाउच भी लटके हैं। दुकान में पहले शायद पान बनता रहा होगा, अब यह पाउच बिकते हैं।
उस दिन तो मुझे महिला ही दिखी दुकान पर; पर बाद में कभी कभी लस्सी बनाने की तैयारी करते उनके पति भी दिखे।

दम्पति हर बात में ईश्वर को याद करते और परम सत्ता की नियामत की कृतज्ञता व्यक्त करते दिखे। मैने आमदनी के बारे में पूछा तो जवाब वही मिला – भगवान की कृपा है। सब ठीक से चल जाता है। आदमी ने बताया कि उन्होने वह दिन भी देखे हैं जब उनकी मां खुद भूखी रह जाती थी पर बच्चों के लिये दो-चार रोटी तह लगा कर रख देती थी। तब गरीबी थी पर अब भगवान की दया से सब कुछ है। … असल चीज तो संतोष है – गोधन गजधन बाज धन, और रतन धन खान। जब आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान।
आदमी महिला की अपेक्षा ज्यादा मुखर हैं। एक दिन वे मुझे दुकान में अन्दर आ कर पंखे के नीचे बैठने का आमन्त्रण देते हैं। एक दिन मैने दो कुल्हड़ चाय की मांग एक बड़े कुल्हड़ में की तो वे बड़ा कुल्हड़ भी ला कर रख गये। यद्यपि उस कुल्हड़ की कीमत एक रुपया ज्यादा थी।
आदमी आज अपने से चुनाव पर बोलने लगे। मोदी तो सन्यासी आदमी है। तपस्वी। ऐसा नेता बड़े भाग्य से मिलता है देश को। और जिस तरह से काम हो रहे हैं, वो अगर रुक गये तो बड़ा दुर्भाग्य होगा देश का।
सत्तर साल का आदमी। अपनी और अपनी पत्नी की मेहनत से बचपन की गरीबी से उबर कर इस स्थिति में पंहुचा है। इस स्थिति में अपने को संतोषप्रद तरीके से सम्पन्न पाता है, पर आज भी यह दम्पति सवेरे साढ़े तीन बजे जाग कर सोलह घण्टा दुकान चलाता है। उसको (व्यक्तिगत रूप से) मोदी कुछ देने वाले नहीं हैं। पर जब वह अनायास, बिना बातचीत के लिये उकसाये मोदी की प्रशंसा करता है तो उसको हल्के से नहीं लिया जा सकता।
मैं अपने मन में सोचता हूं कि उनकी चाय की दुकान का (लगभग नियमित) ग्राहक बन गया हूं मैं।

पोस्ट करने से पहले –

आज मई 7’2019 को पुरुष चाय बना रहे थे। पत्नी दही से मक्खन निकाल रही थीं। एक वृद्धा भी बैठी थीं। पुरुष ने बताया उनका नाम राजेन्द्र प्रसाद है। राजेन्द्र प्रसाद गुप्ता। वृद्धा उनकी मां हैं – “सौ साल की हो गयी हैं।”
राजेन्द्र ने अपना जन्म बताया 16 अप्रेल 1952। उसके हिसाब से वे सड़सठ साल के हुये। मेरे विचार से माता सौ तो नहीं, नब्बे पार होंगी।
राजेन्द्र और उनकी पत्नी हर बात में क्रेडिट भगवान को देने की आदत रखने वाले दिखे। आज भी राजेन्द्र ने कहा – प्रभु आपकी कृपा से सब काम हो रहा है। करते तो तुम हो दाता, मेरा नाम हो रहा है।
राजेन्द्र को मैने यह पोस्ट दिखाई। वे प्रसन्न नजर आये पोस्ट देख और पढ़ कर। मुझसे भी पूछा मैं कोन हूं और कहां रहता हूं।
सर आपके द्वारा प्रस्तुत गाँव देहांत का विवरण बहुत रोचक और ज्ञानवर्धक है यही असली भारत है ।
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सर मै मूल रूप से आपके पड़ोसी जिले सुल्तानपुर का निवासी हूँ, पिछले 12 सालों से नौकरी के चलते घर से बहुत दूर गुजरात में पोस्टेड हूँ. आपको काफी अरसे से ट्विटर पर पढ़ता रहा हूँ, आज भटकते हुए आपके इस ब्लॉग तक पहुंचा. गाँव घर की सब भूली बिसरी यादों पर से जैसे किसी ने धूल साफ़ कर दी हो. बहुत अच्छा लगा, आप ऐसे ही लिखते रहें.
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धन्यवाद अभिषेक जी!
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बढ़िया
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