डाक्टर साहब बताते हैं कि कि पास में कोई क्वैक (नीम हकीम) डाक्टर है जो प्रसव कराता (कराती) है. उसके दो तीन खराब किए केस यहां अस्पताल (सूर्या ट्रॉमा सेंटर) में आए हैं.
मेरे पिताजी के बगल वाले बिस्तर पर इमर्जेंसी वार्ड में है वह महिला. पतली दुबली. साँवली – शायद उसकी श्यामलता में तांबे का रंग मिला है. चेहरे की बनावट आकर्षक है. आंखे बहुत कातर. बछिया की आँखों जैसी. उसके बिस्तर के पास एक अधेड़ महिला खड़ी है. मैं अपनी पत्नी जी से कहता हूँ कि उस महिला से पूछें की कैसा केस है.
महिला बताती है कि वह मरीज की मां है. मरीज की डिलिवरी के लिए ससुराल वाले बुआ के इनारा (पास का कोई स्थान) पर एक डाक्टर के यहां ले गए थे. बच्चा तो हो गया पर दस मिनट में ही कोई नस दबने से उनकी बेटी दर्द से छटपटाने लगी. जब केस बिगड़ गया तो वह अपने घर बाबू सराय से आ कर यहां सूर्या ट्रॉमा सेंटर में ले कर आई है.
उसकी बेटी की दशा अब बेहतर तो है, पर मानसिक आघात लगा है उसे. कुछ आंय बांय बोल रही है. शायद शारीरिक आराम मिले तो वह भी ठीक हो जाए.
लड़की के ससुराल वाले बहुत केयर नहीं कर रहे. उसका पति बाहर नौकरी करता है. पैसा भी भेजता होगा तो वह ससुराल वालों के पास जाता है.
यह स्पष्ट होता है कि ससुराल का बहू के प्रति उपेक्षा भाव और लड़के की कमाई पर अधिकार एक आम बात है इस इलाके में.