मई 26, 2020, विक्रमपुर, भदोही।
गांव में काम धाम बहुत कुछ वैसा ही है, जैसा सामान्य दिनों में होता है। सवेरे मेरे साले साहब ने लकड़हारे बुलाये थे। आंधी में टूटे किसी पेड़ का हिस्सा छांटने के लिये वे आरी और कुल्हाड़ी ले कर आये थे। तीन चार लोग रहे होंगे। जाति के मुसहर। हम से उन्होने पीने का पानी मांगा। पत्नीजी ने पानी के साथ गुड़ भेज दिया। दूर से ही मैंने देखा तो उनके पास अंगोछा या मास्क जैसा कुछ नहीं था। पता नहीं उन्होने कोरोना वायरस या कोविड19 का नाम भी सुना होगा या नहीं। वे निम्नतम स्तर पर आते हैं गांव देहात की अर्थव्यवस्था में भी और जाति-वर्ण व्यवस्था में भी। नाम के आगे जाति सूचक संज्ञा “वनवासी” लगाते हैं। आते भी अनुसूचित जन जाति में हैं। पेड़ों की लकड़ियां, महुआ और छिउल की पत्तियां, खाली पड़े खेतों से अनाज के दाने और चूहों के बिल खोद कर उनमें से अनाज और चूहे निकाल कर भोजन का इंतजाम करते हैं। सभ्यता और असभ्यता की सीमारेखा पर खड़े मुसहर, उन्हें क्या मालूम होगा कोरोना। और मालूम भी होगा तो उनके जीवन में क्या प्रभाव डालती होगी यह जानकारी?

अब तो, कोरोना संक्रमण तेजी से फैलने के कारण, मैंने घर से निकल कर इधर उधर घूमने को वर्जित कर लिया है, अपने लिये; वरना पास में तीन किलोमीटर दूर उनकी बस्ती में जा कर देखता कि क्या दशा है उनकी। अर्थव्यवस्था की तंगी का असर उनपर पड़ा है या नहीं। वैसे, अलग थलग जीने वाली वह जनजाति कोरोना संक्रमण से तो अप्रभावित ही होगी। ऐसा मेरा अनुमान है।
भारत में आबादी के ऐसे कई समूह हैं, जिनके पास से कोरोना हो कर गुजर जायेगा और वे जस के तस बने रहेंगे। झारखण्ड और छतीसगढ़ का एक वनवासी हिस्सा और झाबुआ – पंचमहाल के भील भिलाल पटेरिया भी शायद बड़ी सीमा तक बचे रहें कोरोना वायरस से। टीवी, नेट, अखबारों में तो अभी उनके बारे में बहुत सुनाई नहीं पड़ता। अभी तो सामान्य गांवों के बारे में भी उतना नहीं आता, जितना महानगरों के हॉटस्पॉट्स के बारे में आता है। अभी तो मीडिया को इन इलाकों में जाने की फुर्सत ही नहीं मिली होगी। कोरोना की युद्धभूमि ने अभी दूर दराज के कोने-अंतरे वाली जगहों को अपने में नहीं समेटा है।
बाहर निकलना बंद करने के बाद मेरे पास आसपास की जानकारी के साधन हिंदी अखबारों के स्थानीय जिलों (मिर्जापुर, गाजीपुर, जौनपुर, भदोही, सोनभद्र आदि) के पन्ने, शाम की चाय पीने आने वाले राजन भाई, वाहन चालक अशोक और बर्तन झाड़ू करने वाली महिलायें कुसम और नीलम ही हैं। कुछ जानकारी हमारे पड़ोसी साले साहब और उनके परिवार से मिलती है। इतना ही बहुत है जानने के लिये।
मुसहरों पर लिखी पोस्टें –
दिन यूं ही गुजर गया। अखबार देखे। उनमें यही था कि सरकार प्रतिबद्ध है लोगों को रोजगार मुहैय्या कराने के लिये। बाहर से आये लोगों का सर्वेक्षण हो रहा है। उनके हुनर के हिसाब से काम मिलेगा। पर काम है कहां? सिवाय मनरेगा के और कोई काम नजर नहीं आता। आसपास देखता हूं तो नजर आता है कि सरकार की सही योजनायें, जिनमें सबसिडी या अनुदान या रोजगार की कमाई का सीधा पैसा लोगों के खाते में जा रहा है, उसमें भी पंचायत स्तर पर कुछ न कुछ हड़पने का जुगाड़ बना लिया है भद्र जनों ने। लोगों को मिलने वाले मुफ्त अनाज में से भी पांच दस प्रतिशत कटौती कर दिया जा रहा है। बच्चों में कुपोषण न हो, उसके लिये भी अनाज बंटता है। उसमें से भी मुठ्ठी मुठ्ठी निकाल लिया जाता है। पूरी व्यवस्था गिद्धों के हाथ है। या जिसके भी हाथ आती है, वह देर सवेर गिद्ध बन जाता है।
लोकल लीडरशिप भ्रष्ट और आदर्श रहित हैं। नीचे की नौकरशाही में कार्य के प्रति प्रतिबद्धता है ही नहीं। भ्रष्ट तो वह है ही। लोग अपमे बच्चे को नौकरशाही में भेजने के लिये तत्पर ही इस लिये होते हैं कि वह दोनो हाथ उलीच कर कमाये। और पंचायत का सिस्टम ही कमाने के लिये बना है। प्रधान बनने के लिये लोग जो खर्च करते हैं, उसका औचित्य मात्र आगे होने वाली कमाई से ही ठहराया जा सकता है। अत: बहुत कुछ सम्भावनायें नहीं लगतीं कि कोरोना काल में वापस आये हुनरमंद लोगों का प्रयोग कर उत्तर प्रदेश चमक जायेगा। और अगर कोई चमत्कार हुआ तो वह इस प्रांत का सौभाग्य होगा। वैसे; इस प्रांत का सौभाग्य देखने की आशा में छ दशक गुजार दिये हैं मैंने।
सवेरे साइकिल ले कर निकलना होता है भोर की वेला में। आजकल सूर्योदय सवा पांच बजे होता है। मैं घर से पांच बजे, या उससे कुछ पहले ही निकल लेता हूं। उगते सूरज के दर्शन रास्ते में ही होते हैं। सड़क उधड़ गयी है। अब आसानी से बनने की भी सम्भावना नहीं लगती। सड़क मरम्मत का काम मनरेगा का हिस्सा नहीं है। यह अगर कर दिया जाये तो लोगों को मिलने वाले काम की तार्किक सार्थकता हो सके। वर्ना मनरेगा मात्र पैसा बांटने का औजार है। जिसे कांग्रेस ने वोट कबाड़ने के लिये निर्मित किया था और जिसे छ साल बाद भी नयी सरकार परिष्कृत नहीं कर सकी (सिवाय यह कहने के कि अब मजदूरी सीधा खाते में जाती है)।

सवेरे सड़कों का उधड़ा होना मेरी साइकिल को पसंद नहीं आता होगा, पर मैं उसके कारण होने वाली असुविधा को सवेरे के व्यायाम का एक अंग मान कर चलता हूं।
लगभग एक सवा घण्टे साइकिल चलाने के बाद घर लौटने पर अखबार पढ़ना, मोबाइल, लैपटॉप, टैब पर नयी ठेली सामग्री देखना, अपने ब्लॉग के पाठकों के आंकड़े निहारना – यही सब काम दिन भर रहता है। टेलीविजन पर जो पुराने सीरियल की भरमार आयी थे, वह अब थम चुकी है। खबरी चैनल व्यर्थ चिंंचियाते रहते हैं। उन्हें देखने सुनने का मन नहीं करता। कुछ वीडियो सब्स्क्रिप्शन अच्छी सामग्री देते हैं। उन्हें देखना होता है, अगर इण्टरनेटदेव की कृपा रही। वह कृपा कम ही रहती है।
अगर साइकिल चलाने को न मिले तो गांव में क्वालिटी समय व्यतीत करना कठिन होता है। वह दो तीन दिन में स्पष्ट हो गया है। अपने कार्य और सोच में बदलाव करना होगा।
कुछ करो जीडी!