दार्शनिक, कारोबारी या बाहुबली #गांवकाचिठ्ठा

वह पत्थर की बेंच पर पेड़ के नीचे बैठा था। बगल में एक पुरानी साइकिल। पेड़ के तने से उंठगा कर खड़ी कर रखी थी। गंगा किनारे नावों और उनके आसपास की गतिविधि निहार रहा था। अकेला था। पूरा दृश्य कुछ ऐसा था सवेरे साढ़े पांच बजे कि लगा कोई अपने विचारों में खोया या सवेरे की शांत छटा निहारता दार्शनिक टाइप जीव हो। मुझे लगा कि ऐसा बहुत सम्भव है। गंगा विचारों में विचरण करने वालों को आकर्षित अवश्य करती हैं।

वह बेंच पर बैठा गंगा का दृश्य निहार रहा था

मैंने उसके एक दो चित्र लिए, इससे पहले कि वह मुझे देख अपनी मुद्रा बदले। उसके बाद उन सज्जन से बात की – कैसा लगता है गंगा का यह दृश्य? क्या सोचते हैं?

उसने उत्तर देने के पहले मुंह से पीक थूंकी। शायद मुंह में सुरती थी या पान। फिर उत्तर दिया – “सोचना क्या है। देख रहे हैं, काम करने वाले आ जाएं, नावें तैयार हो कर उस पार रवाना हो जाएं। आज काम शुरू हो जाए। बस। रोज सवेरे दो तीन घंटा यहीं बैठ कर यह देखता हूँ। जब काम सही से चलने लगे, तब घर जाता हूँ।”

बातचीत की प्रक्रिया में उस नौजवान ने दो तीन बार थूका। जो सूचना मुझे मिली, उसके अनुसार ये सज्जन बालू खनन की गतिविधि ऑर्गेनाइज करते हैं। सुबह शाम यहीं बेंच पर आ कर बैठते हैं। नावें फेरा लगाती हैं, उसकी गणना के लिए एक कर्मचारी नाव वालों को टोकन बांटता है। शाम के समय टोकन के आधार पर नाव वालों और श्रमिकों को पेमेंट होता है। रोज का रोज। सहज समझ में आने वाला प्रबंधन है।

नौजवान आदमी। निक्कर पहने। गले में एक गमछा। उसके बात करने में आत्मविश्वास झलकता था। बालू के काम में अपने दम ख़म पर यकीन करने वाला आदमी चाहिए। वैसा लग भी रहा था। पर वह व्यवहारकुशल भी था वह व्यक्ति। बोलने बतियाने में उजड्डता नहीं थी। मेरे यह कहने पर कि बेंच बड़ी अच्छी और बड़े अच्छे जगह पर है; उसपर बैठ गंगा निहारने का अलग आनंद है; उसने मुझे भी बैठने को निमंत्रण दिया। थोड़ा सरक भी गया। यद्यपि बार बार थूकने की क्रिया और बेंच की लंबाई में डेढ़ मीटर की दूरी रख पाने की संभावना न होने के कारण मैंने उनका निमन्त्रण स्वीकारा नहीं; अन्यथा बैठ कर उससे बोलने बतियाने का मन जरूर था।

गंगा किनारे मजदूर एक दो कर आये जा रहे थे। चंद्रमोहन और सीताराम की नाव पर सवेरे का भोजन बन रहा था। एक ट्रेक्टर भी खड़ा था। मजदूर गंगा किनारे बात कर रहे थे या मोबाइल पर उँगलियाँ चला रहे थे। दृश्य वैसा ही था जैसा मैं कई दिनों से देख रहा हूँ। बहुत ही मोहक।

पर मुझे घर भी लौटना था। उन नौजवान सज्जन के दो तीन कोणों से चित्र लिए। मेरे चित्र लेने पर कोई आपत्ति नहीं थी उन्हें। उन्होंने बताया कि इसी गांव (द्वारिकापुर) के रहने वाले हैं। शायद मेरे बारे में जानते भी हों। वैसे भी बार बार आते, घूमते तो देखा ही होगा।

वहां से वापस चला आया। उन सज्जन से आगे कभी मिला जाए या न मिला जाए, यह तय नहीं कर सका हूँ। प्राकृतिक संसाधनों का दोहन – चाहे वह कानूनी हो या गैर कानूनी, उसमें सरकारी अमले से “तालमेल” और परिवेश में रुआब-रुतबा-दबंगई और बाहुबल आवश्यक तत्व दिखाई पड़ते हैं। आम आदमी, मेरे जैसा, उस पचड़े में पड़ना नहीं चाहता। अन्यथा व्यक्तित्व के अध्ययन के हिसाब से उस नौजवान से मैत्री करने का एक अलग थ्रिल होगा। नहीं?


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring village life. Past - managed train operations of IRlys in various senior posts. Spent idle time at River Ganges. Now reverse migrated to a village Vikrampur (Katka), Bhadohi, UP. Blog: https://gyandutt.com/ Facebook, Instagram and Twitter IDs: gyandutt Facebook Page: gyanfb

आपकी टिप्पणी के लिये खांचा:

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s

%d bloggers like this: