दूसरी पारी की शुरुआत – पहला दिन

madhosingh railway station platform

दूसरी पारी का पहला दिन यानी एक अक्तूबर 2015।

मैं 30 सितम्बर 2015 को रिटायर हुआ। उस समय मैं पूर्वोत्तर रेलवे का परिचालन प्रमुख था। रिटायरमेण्ट से एक दो साल पहले से शुभचिंतकों के सुझाव थे कि मैं अपने जूते न उतारूं। साठ साल की उम्र घर बैठने की नहीं होती। उसके बाद भी किसी न किसी हैसियत में काम करना चाहिये। पर मैं सोचता था, रोज रोज खटने का काम बहुत हुआ। मेरा शरीर और उससे ज्यादा मेरा मन दिनचर्या में व्यापक बदलाव चाहता था। शायद आराम भी।

मैं मूलत:, अपनी प्रवृत्ति के हिसाब से, एक छोटी जगह का आदमी हूं। मेरा जन्म गांव में हुआ और छोटे शहरों, कस्बों में रहना मुझे भाया। मेरे पिताजी दिल्ली, राजस्थान में जोधपुर और नसीराबाद (अजमेर के पास छावनी), पंजाब में ऊंची बस्सी (पश्चिमी-उत्तरी पंजाब की एक गांव में छावनी), और चण्डीगढ़ में रहे। जोधपुर, नसीराबाद और ऊंची बस्सी मुझे छोटी जगहों के अहसास देते रहे। फिर मेरी उच्च शिक्षा पिलानी में हुई। बिरला तकनीकी और विज्ञान संथान (BITS -बितविस) भी कोई मैट्रो में नहीं था; पिलानी गांव ही था। रेल की नौकरी में भी बड़ा समय मैंने रतलाम जैसे छोटे शहर में काटा। सत्तरह से अधिक साल वहां रहा। इसके अलावा कोटा या उदयपुर में भी रहा पर वहां भी अपने रेल परिसर में ही रहा, शहर बहुत कम देखा। रेल परिसर एक छोटा शहर या गांव ही होता है।

मुझे फुसला कर 1994 में बम्बई पोस्ट किया गया था। चर्चगेट में अच्छा दफ्तर था। महत्वपूर्ण पद और कोलाबा (बधवार पार्क) में एक फ्लैट का अलॉटमेंट। फ्लैट की चाभी मेरे जेब में थी और चर्चगेट पर दो कमरे के रेस्ट हाउस में रह रहा था। ऐसी पोस्टिंग पाने की कल्पना से ही बहुत से अधिकारियों का मन-मयूर नाच सकता है। पर मुझे बम्बई रास नहीं आयी। मैंने कोटा रेल मंडल में वरिष्ठ परिचालन प्रबंधक में पोस्टिंग जुगाड़ी और महानगर को नमस्कार कर पोस्टिंग ऑर्डर हाथ में आते ही, दो घण्टे में वह पद और वह स्थान त्याग दिया। बमुश्किल दो महीने रहा बम्बई में!

अधिकारियों ने कहा कि मुझसे बड़ा बेवकूफ़ नहीं हो सकता। पर बड़े शहर का मुझे फोबिया था। और इस तरह बड़े शहर के फोबिया ने कई बार लोगों को मुझे बेवकूफ़ कहने का अवसर प्रदान किया।

शायद यह शहरों का फोबिया ही था कि रिटायरमेण्ट के पहले मैंने गांव में बसने की तैयारी शुरू कर दी । एक साल पहले से साइकिल खरीद कर चलाने का अभ्यास किया। अपनी ससुराल के गांव में बसने का निर्णय लिया – वह जगह नेशनल हाईवे और रेलवे स्टेशन के पास थी। वहां रिटायरमेण्ट से एक साल पहले जमीन खरीदी और अपने साले साहब (भूपेंद्र कुमार दुबे) को मकान का नक्शा और आर्थिक रिसोर्स दिये। सब कुछ इस तरह से सिन्क्रोनाइज किया कि रिटायरमेण्ट के समय मकान बन कर तैयार रहे उसमें शिफ्ट होने के लिये।

तीस सितम्बर को मैं गोरखपुर से सेवा निवृत्त हुआ और अगले ही दिन चौरी चौरा एक्स्प्रेस से माधोसिंह स्टेशन पर पूरे परिवार और सामान के साथ पंहुच गया। गोरखपुर शहर से मुझे रेल के इतर लगाव नहीं था और रेल की नौकरी खत्म तो लगाव का निमित्त भी जाता रहा। गांव मुझे खींच रहा था। सो वहां एक भी दिन वहां रुका नहीं।

आत्मकथ्य, इसी पोस्ट से

पर वैसा हुआ नहीं। लगभग एक महीने की देरी हुई मकान बन कर तैयार होने में। ऐसे में मेरे वाराणसी मण्डल के मित्र प्रवीण पाण्डेय की सहायता से मुझे गांव के पास के बड़े रेलवे स्टेशन माधोसिंह स्थित रेलवे रेस्ट हाउस में रहने की अनुमति मिल गयी।

माधोसिंघ स्टेशन, सवेरे के धुंधलके में। दो अक्तूबर 2015 का चित्र।

तीस सितम्बर को मैं गोरखपुर से सेवा निवृत्त हुआ और अगले ही दिन चौरी चौरा एक्स्प्रेस से माधोसिंह स्टेशन पर पूरे परिवार और सामान के साथ पंहुच गया। गोरखपुर शहर से मुझे रेल के इतर लगाव नहीं था और रेल की नौकरी खत्म तो लगाव का निमित्त भी जाता रहा। गांव मुझे खींच रहा था। सो वहां एक भी दिन वहां रुका नहीं। ट्रेन में ही एक पार्सल वान लगा था, जिसमें मेरा घर का सारा सामान था। एक साथी अधिकारी धीरेन्द्र कुमार जी इलाहाबाद निरीक्षण पर जा रहे थे, तो उन्ही के सैलून में मुझे और मेरे परिवार (मेरी पत्नीजी और पिताजी) को जगह मिल गयी थी। खण्ड के यातायात निरीक्षक भोला राम जी ने हमारी अगवानी की। सामान उतरवाया। गाड़ी उस प्रक्रिया में आधा घण्टा खड़ी रही। पर ट्रेन समय से पहले पंहुच गयी थी माधोसिंह तो उसने यह टाइम कवर कर लिया और इलाहाबाद समय पर ही पंहुची।

मेरे साथ रेलवे के निरीक्षण यान में यात्रा कर रहे मनीश कुमार (जो मेरे लगभग पौने दो साल से सहायक और अटैच्ड निरीक्षक थे) तथा अपने चपरासी राम मिलन से ट्रेन के माधोसिंह से रवाना होते समय गले मिला तो लगा कि एक लम्बा युग समाप्त हो गया!

साफ सफाई की जा चुकी थी माधोसिंघ रेस्टटहाउस की। पहली ही नजर में वह स्थान मुझे बहुत भा गया। स्टेशन प्लेटफार्म से रेस्ट हाउस तक छोटी झाड़ियां थीं और उनके बीच पतली पगडण्डी से गुजरते समय बड़ी मधुर सुगंध आ रही थी। पौधों को ध्यान से देखा तो उनमें पाया कि वन तुलसी बहुतायत से थी। अपनी साइकिल निकाल कर माधोसिंह की रेलवे कालोनी का एक चक्कर भी लगा आया। कालोनी भी छोटी और सुंदर लगी। सड़क और पगडण्डियां साफ थीं। बरसात खत्म होने के कारण झाड़ियां – मुख्यत: वनतुलसी और उसके जैसी एक और झाड़ी जिसमें गंध नहीं थी, पर मंजरी वाले फूल थे, बहुतायत से थीं। लोगों ने अपने अपने क्वार्टर के आसपास सब्जियां उगा रखी थीं।

इन सब के बीच मुझे अगले दो तीन सप्ताह गुजारने थे।

रेस्ट हाउस के दो कमरों में हमारा सामान व्यवस्थित किया गया। भोला राम जी ने एक गैस सिलिण्डर का इंतजाम कर दिया था। सो किचन भी व्यवस्थित हो गयी। घर व्यवस्थित करने के लिये मेरा पुराना बंगलो पियुन मोनू (जो अब वाराणसी मण्डल में प्रवीण पाण्डेय के यहां पदस्थापित था) हमारी सहायता कर रहा था। रिटायरमेण्ट, रेलवे स्टेशन की सुविधा, रेस्ट हाउस और पुराना बंगलो पियून – कुल मिला कर रिटायरमेण्ट के अगले दिन बहुत अधिक डिसकण्टीन्यूटी नहीं थी। मजेदार बात यह रही कि मेरे फोन नम्बर पर दो तीन अधिकारियों-कर्मचारियों के फोन भी आये। वे मुझे (जैसा कल तक बताया करते थे) माल गाड़ी की रनिंग पोजीशन और सवारी गाड़ियों की पंक्चुअलिटी बता रहे थे। मैं तो रेलवे को छोड़ रहा था, पर वे मुझे छोड़ना नहीं चाह रहे थे। एक तरह से यह अच्छा लगा; पर इतना स्पष्ट था कि रेलवे के रूटीन और कम्फर्ट जोन से जितना जल्दी मैं अपने को मुक्त कर लूं; उतना बेहतर होगा।

सुबह शाम सुहावनी थी, पर दिन में गर्मी हो गयी। कूलर का इंतजाम था। बिजली की सप्लाई अनियमित थी तो उसके बैक अप के लिये स्टेशन मास्टर सतीश जी स्टेशन का जेनरेटर चलवा रहे थे। मेरे पिताजी को कुछ अटपटा सा लग रहा था नयी जगह पर। लेकिन वे तेजी से अपने को व्यवस्थित कर रहे थे।

दूसरी पारी का पहला दिन अच्छा ही रहा।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring village life. Past - managed train operations of IRlys in various senior posts. Spent idle time at River Ganges. Now reverse migrated to a village Vikrampur (Katka), Bhadohi, UP. Blog: https://gyandutt.com/ Facebook, Instagram and Twitter IDs: gyandutt Facebook Page: gyanfb

9 thoughts on “दूसरी पारी की शुरुआत – पहला दिन

  1. मुझे भी वह समय स्पष्टतः याद है। हम सभी आशंकित थे कि ग्राम्य जीवन कैसा होगा। आपने सदा की भाँति उसे भी सहज कर दिया।

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  2. अब गाँव कहाँ रह गए / सब छोटे शहरों के स्वरूप हो गए है / मै तो रोज कानपुर शहर और कोरारी कलाँ जो भद्दर गाँव है वहाँ जाता हू पढ़ाने के लिए और पढ़ने वाले छात्र छात्रा देखने और बात करने मे एकदम शहरी लगते है , कही से भी नहीं / कभी कहा जाता था की गावों मे भूत बदते है ,आज मुझे लगता है की भूत शहरों मे बसते है /

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  3. नमस्कार सर । रतलाम का जिक्र पढ़ कर मुझे भी पुराना समय याद आ गया । छोटा शहर पर शांति वहां । रेलवे का अनुभव बहुत अच्छा रहा । आपके साथ के कुछ अनुभव । लगभग 12 वर्ष बीत चुके अब । अभी कार से घर से ऑफिस लगभग 45 मिनिट का समय लगता है रतलाम में 5 मिनीट में कही भी चले जाओ 😊 ।

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    1. अच्छी लगी आपकी टिप्पणी मुकुंद! आशा है कि आप और आपका परिवार आनंद से होंगे.

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