विष्णु से मैने कहा था कि बाद में कभी गंगा उस पार ले जाने और वापस आने की नाव-सैर करा दे। पर वह तुरत ले जाने को तैयार हो गया।
“चलिये अभी। आधा घण्टे में वापस आ जायेंगे।”

अब मैं बैकफुट पर था। मैंने सोचा था कि अभी तो चार बजे से मछली पकड़ने में लगे विष्णु को घर जाने की जल्दी होगी पर वह मेरे साथ गंगा जी की एक ट्रिप को तैयार हो गया। उल्टे, मुझे घर लौटने की कुछ जल्दी थी (एक कप चाय की तलब)। पर विष्णु के साथ समय भी गुजारना चाहता था। मैने पूछा – कितना लोगे?
“आप जो दे दें।”
मैने कम कहा तो? … मैने कहा, … 50-60 रुपये ठीक रहेंगे?
“ठीक है; साठ दे दीजियेगा। चलिये।”

वह नाव के एक सिरे पर बैठा डांड/पतवार के साथ। दूसरी ओर उसका जाल पड़ा था। मैं नाव के फ़र्श पर बीच में बैठा। वह नाव चलाने लगा और मैं उससे उसके बारे में पूछने लगा।
चार भाई और तीन बहने हैं वे। कुछ की शादी हो गयी है और कुछ अभी कुंवारे हैं। वह अभी छोटा है।
कितनी उम्र होगी तुम्हारी?
“आपको कितनी लगती है?”
मैने कहा – 18/19 या उससे कम। उसने हामी भरी – “इतनी ही है।”
पढ़ाई नहीं की विष्णु ने। जब मछली ही पकड़नी है तो पढ़ाई का क्या फायदा? बचपन से ही मछली पकड़ी है। जब नींद खुलती है, चला आता है नदी में मछली पकड़ने। उस पार सामने गांव है उसका – सिनहर। मल्लाहों के कई घर हैं सिनहर में। पर पूरा गांव मल्लाहों का नहीं है। जैसे केवटाबीर में तो मल्लाह ही हैं। वहां तो करीब 50 नावें होंगी। सिनहर गांव में करीब 4-5 नावें हैं।
मछली खूब मिल जाती हैं। खरीददार भी तैयार मिलते हैं। तुरन्त बेच कर पैसा मिल जाता है।

तुम अकेले थे। खरीददार बहुत सारे। कभी उनसे लड़ाई नहीं होती?
“लड़ाई काहे होगी। हां, उनकी आपस में कभी कभी मार हो जाती है कि कौन कितनी मछली लेगा। दाम जरूर वे पूरा नहीं देते। दस बीस रुपया रोक लेते हैं। बाद में वह मिल नहीं पाता।”
अपना काम तुम्हें पसन्द है?
“पसन्द का क्या; यही काम है। कोई बेलदारी (राज-मिस्त्री) का काम तो आता नहीं मुझे। यही ठीक है।”
मैने पूछा – अगर तुम्हारा पुनर्जन्म हो, तो तुम मल्लाह बनना चाहोगे?
वह सवाल नहीं समझता। मैं उससे दूसरी तरह से पूछता हूं – कभी ऊब नहीं होती अपने काम से? रोज नाव, रोज मछली… वह ऊब को भी समझ नहीं पाता – काम ही यही है। जाल बिछाना, मछली पकड़ना और बेचना। यही करना है।
पढ़ाई नहीं की विष्णु ने। जब मछली ही पकड़नी है तो पढ़ाई का क्या फायदा? बचपन से ही मछली पकड़ी है। जब नींद खुलती है, चला आता है नदी में मछली पकड़ने। गंगा उस पार सामने गांव है उसका – सिनहर। मल्लाहों के कई घर हैं सिनहर में।
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अपने सवाल को और तरह से प्रस्तुत करता हूं मैं – जैसे तुम्हारी बिरादरी में लोग यह नहीं कहते कि क्या यही काम किये जा रहे हैं। बदलने के लिये यहां से दिल्ली-बम्बई क्यों नहीं चले जाते?
“हां, कुछ लोग ऐसा करते हैं। कई करते हैं। पर मैं तो यहीं रहूंगा। मछली पकड़ना ही ठीक है।”
मैं समझ गया कि विष्णु सही में हार्डकोर मछेरा है। गंगा-नाव -मछली ही उसका जीवन है और उसी में वह आत्मन्येवात्मनातुष्ट है। आज मुझे एक ऐसा व्यक्ति मिला है जो अपने काम में पूरी तरह लगा है। अन्यथा लोग किसी न किसी मुद्दे पर असंतुष्ट या अनमने ही दिखते हैं।
मैं समझ गया कि विष्णु सही में हार्डकोर मछेरा है। गंगा-नाव -मछली ही उसका जीवन है और उसी में वह आत्मन्येवात्मनातुष्ट है। आज मुझे एक ऐसा व्यक्ति मिला है जो अपने काम में पूरी तरह लगा है।
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मुझे यह भी अहसास हुआ कि मल्लाह/नाविक/किशोर के स्तर पर बातचीत करने के लिये मुझे भाषा और भाव – दोनों में ही अपने आप को सुधारना होगा। किताबी वाक्य बहुत साथ नहीं देते। सम्प्रेषण के अपने अलग अलग स्तर हैं, अलग अलग आयाम…
नदी की बीच धारा में कुछ बह रहा था – वह क्या है?
“पंड़िया (भैंस का बच्चा) है। मर जाने पर किसी ने बहा दी है।”
गंगा मोक्षदायिनी हैं। पंड़िया को भी शायद मोक्ष के किसी कोने-अंतरे में जगह मिल जाये।
बात करते करते नदी का दूसरा किनारा आ गया। मैने पूछा – उतरा जाये यहां?

विष्णु का विचार था कि वह ठीक नहीं रहेगा। किनारे पर रेत में मिट्टी भी है। इसलिये फ़िसलन है यहां। फिर कभी आने पर किसी और जगह नाव लगायेगा उतरने के लिये। हम वापस चले। इस समय उसका मोबाइल बजा। उसके घर से फोन आया कि लौटते हुये एक पाव मछली लेता आये खाने के लिये। उसने कहा कि उसे नींद तो आ रही है, पर मुझे उतार कर एक पाव मछली का जुगाड़ करेगा। लेकर ही घर जायेगा।
अब वह कुछ खुल गया था मुझसे – “मुझे फ़िकर हो रही है कि उंगली में मछली का कांटा गड़ गया है और यह महीना भर परेशान करेगा। पक जाये तो ठीक है। खोदने पर निकल आयेगा। वर्ना कांटा ऐसा होता है कि निकालने की कोशिश करो तो और अन्दर धंसता जाता है। हांथ में दर्द बढ़ा तो नाव चलाना मुश्किल हो जायेगा।”
वापस मेरी तरफ के तट की ओर मैने वह स्थान बताया जहां अपनी साइकिल खड़ी कर रखी थी। उसी के पास वापसी में नाव ले आया वह। उसके नाव चलाने में दक्षता नजर आ रही थी। उतरने पर मैने उसे सौ रुपये दिये। कहा कि साठ के बदले सौ रख लो। सामान्य सा खुशी का भाव उसके चेहरे पर दिखा।
मैने उसका मोबाइल नम्बर मांगा। उसने अपना मोबाइल मेरी ओर बढ़ा दिया – नम्बर मुझे याद नहीं। आप इससे अपने नम्बर पर कॉल कर लें। उससे नम्बर आपके पास आ जायेगा।
घर देर से पंहुचा। बताने पर कि मल्लाह के साथ गंगा की सैर कर आ रहा हूं तो पत्नीजी ने भी भविष्य में ऐसी सैर की इच्छा जताई। शाम के समय विष्णु को मोबाइल पर फोन किया तो उसने बताया कि शाम पांच बजे वह फिर नाव पर आ गया है। दो तीन घण्टा मछली पकड़ेगा।
गंगा-नाव -मछली ही उसका जीवन है!

आप बहुत खलिहर आदमी है ,ना खेती की चिंता ,ना गाय भैंस गोरू की चिंता ,कितनी अच्छी है आपकी जिंदगी ।
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और भी गम हैं! जो हैं, उन्हे यहां शेयर थोड़े ही किया जा सकता है। यह गांव देहात में घूमना उसी चिंता को कम करने का एक जरीया है। 😦
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विष्णु को अपने कार्य में आनन्द आ रहा है, बस और क्या आवश्यक है?
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अभी शादी नहीं हुई है, जब होगी तब पता चलेगा. अभी तो वह आनंद में है!
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good morning. Sorry I have not yet figure out to type in hindi from my desktop which i can easily do on my mobile.
As i opened my inbox found an alert for your post. It was such a good reading. and pictures which says thousand words.
I wish i could come to meet you and see shivkuti and its surrounding in person. It will be a deja vu experience.
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You are welcome. I’m here in a village between Allahabad and Varanasi and living in a rural setting.
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जमीन से जुड़े हुए हैं विष्णु जैसे लोग, उसी में संतुष्ट रहते हैं। नही तो आज की दुनिया में आसमान को भी मुठ्ठी में कैद करने वालों
की तादाद बहुतायत में हैं।
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हाँ मुझे भी सुकून लगा विष्णु से बात करने में.
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