सब अलग अलग हो गये हैं, पर मेरा कुटुम्ब कुल मिला कर ढाई-तीन सौ लोगों का होगा। या ज्यादा ही बड़ा होगा। सुकुलपुर, तहसील मेजा, प्रयागराज का पुश्तैनी घर तो खण्डहर हो कर गिरा दिया गया है पर उसकी जगह नया बना नहीं। लोग आसपास इधर उधर बस गये हैं। कुछ लोग गांव में ही बना लिये हैं अपने मकान। कुछ प्रयागराज, मिर्जापुर, दिल्ली आदि में हैं। एक शाखा काण्डला चली गयी है और एक पुणे। पर लोग अब भी जुड़े हैं। यदाकदा मिल लेते हैं आपस में। और अब ह्वात्सएप्प है, वीडियो कालिंग है, फेसबुक है। लोगों के पास बोलने को कुछ नहीं होता तो गुड मॉर्निग, जै श्री राम, जै मातादी टाइप स्टेटस और कुछ इधर उधर के फार्वर्ड किये चित्र, वीडियो तो होते ही हैं।
वही सम्बंध हैं, फोन और सोशल मीडिया के माध्यम से; और वही आत्मीय जुड़ाव का तरीका रह गया है। बहुत से परिवारों-कुटुम्बों का वही जुडाव जरीया होगा। यही नियो-नॉर्मल लाइफ है।
उस दिन अखिलेश और उनके छोटे भाई रजनीश ने कहा कि रजनीश की बिटिया का विवाह होना है बाईस अप्रेल को। तिलक 17 अप्रेल को है टेला गांव में। टेला मेरे गांव से पचास किलोमीटर की दूरी पर। वहां जाने में, सिवाय वैशाख की गर्मी के, ज्यादा असुविधा नहीं है। तीन चार घण्टे का समय निकालना है। मैंने कहा कि मैं टेला पंहुचूंगा। रजनीश ने मुझे टेला के आयोजन स्थल – लाल चंद्र मिश्र जी के घर – का गूगल मैप पर लोकेशन प्रेषित कर दिया।
अपने घर से निकल कर नेशनल हाईवे पकड़ जंगीगंज तक की यात्रा उस फिर टेला के लिये किसी स्थान धनतुलसी होते हुये ग्रामीण सड़क पर चलना। कहीं कोई दिक्कत नहीं हुई। दिक्कत केवल लाल चंद्र जी के घर पंहुचने में हुई। गूगल वाली महिला ने घर की जीपीएस लोकेशन के अनुसार एक पगडण्डी नुमा सड़क पर कार घुसवा दी। केवल झोपड़ियां थीं वहां। एक दो पक्के घर भी जो थे, वे प्रधानमंत्री आवास योजना के पैसे से बने नजर आ रहे थे। पगडण्डी भी इतनी खराब थी कि मेरी छोटी कार लगा कि कहीं पलट न जाये। रोक कर एक महिला से लालचंद्र जी के घर का रास्ता पूछा तो उसने हाथ से दिखा कर करीब दो-तीन सौ मीटर दूर घर दिखाया। पर वहां जाने के लिये रास्ता था नहीं साइकिल या पैदल जाया जा सकता था। गूगल वाली महिला सन्न मार गयी थी। उसके अनुसार (शायद) गूगल का काम खत्म हो गया था।
जहां पंहुचे थे, वहां कार मोड़ने की भी जगह नहीं थी। अभिमन्यु या अंगद की सी दशा। बैकट्रेक करना कठिन काम। गुलाब (मेरे ड्राइवर साहब) ने किसी तरह मेरी साबुनदानी नुमा कार -ऑल्टो के-10 – बैक की। उसके बाद लालचंद्र मिश्र जी का घर कम से कम पांच लोगों से पूछते हुये नियत घर पर पंहुचे।

जीपीएस पर, गूगल पर और गूगल वाली महिला – गूगलाइन – पर यकीन तो करना चाहिये पर नुक्कड़ पर यूंही समय गुजारते, इंदारा पर पानी खींचते या मचिया पर बैठे गपियाते लोगों के ईको-सिस्टम की अनदेखी कर नहीं। लास्ट माइल कनेक्टिविटी में गूगलाइन भाग खड़ी होती हैं। काम गांवदेहात के लोग ही आते हैं – “इहई खड़ंजा पकड़े चला जा। ओकरे बाद पीपर के पेड़े के बगलियां से जायअ। अनुपम क घर पूंछि लेह्यअ…” पता नहीं गूगलाइन कब यह भाषा बोलना सीखेगी। गूगलाइन और गांवगिरांव की गोमतिया जब एक जैसे तरीके से और एक जैसी टोन में निर्देश देने में सक्षम होंगी, तभी भारत में आर्टीफीशियल इण्टेलिजेंस सफल माना जायेगा। 😆
आश्चर्य और शॉक अभी और भी मिलने थे। मिश्र जी के अहाता में घुसते ही तेज आवाज में लाउडस्पीकर पर गायन सुनाई पड़ा – रेलिया बैरन पिया को लिये जाये रे। यह कोई रिकार्ड नहीं बज रहा था। बाकायदा आरकेस्ट्रा का इंतजाम था। मंच पर म्यूजिकल तामझाम के साथ एक खुले केश वाली महिला हाथ में माइक थामे, फुल कॉन्फीडेंस में गा रही थी। बहुत कुछ वह अंदाज जैसा मनोरंजन वाले टीवी चैनलों पर नयी प्रतिभायें दिखाती हों। मुझे अपनी पत्नीजी का ऑफ्ट-रिपीटेड कहना याद हो आया – “मेरे बब्बा होते तो यह सब देख कर गोली मार देते!”

बब्बा को गये तीन दशक हो गये हैं। दो पीढ़ियाँ जन्म ले चुकी हैं उनके बाद। गांवदेहात बहुत तेजी से बदल रहा है। पर तब भी; इतनी मशक्कत कर अगर गंगा किनारे के इस गांव टेला में न आया होता तो यह अनुभव कहां पाता?! अपने घर से जिसे निकलने में कष्ट हो, उसे 50 किमी दूर किसी जगह जाना हो तो वह मशक्कत ही तो है?!

घर के अहाते के खुले में नाश्ता, बातचीत, पैलगी-आशीर्वाद का दौर पूरा हुआ और उसके बाद तिलक लगने की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई। लालचंद्र मिश्र जी के घर के आंगन में सब पंहुचे। आंगन मीडियम साइज का था। उसके गच्चे पर स्टील की पट्टियां लगीं थी। कोई उससे नीचे नहीं गिर सकता था और पूरी छत का उपयोग भी हो सकता था। नीचे आंगन में बांस, हल, मूसल, चकरी आदि शुभकार्य के प्रतीक जमा थे। पण्डित लोग जम गये थे। बांयी ओर ओसारे में महिलायें तैनात थींं कि पण्डित मंत्रोच्चार टर्राना शुरू करेंं तो उनकी गारी का गायन प्रारम्भ हो। पूरी तरह एथेनिक वातावरण। हजार साल पहले भी कमोबेश यही सीन हुआ करता रहा होगा। थोड़ा बदलाव यह था कि हर कोई अपने मोबाइल थामे कैमरामैन का रोल अदा कर रहा था। और फ्लैश वाले, कैमरा लटकाये भी कई थे – चारपांच रहे होंगे। डिजिटल युग में फोटो खींचना, वीडियो बनाना बांये हाथ का खेल हो गया है। एक दशक में लोग मूवी बनाने में भी सिद्धहस्थ हो जायेंगे। घर घर वीडियोग्राफी होगी और लेखक लोग किताब लिखने की बजाय गांवदेहात के तिलक, शादी, तेरही आदि की फिल्मोग्राफी के स्क्रिप्ट बेंंचा करेंगे।
विनोद मुझे टोकते हैं – “देखो, अब असली माल-ताल दिया जा रहा है, अब फोटो लीजिये। बैठे बैठे फोटो नहीं आयेगा, तन्नी खड़े हो कर लेना पड़ेगा।” मैं देखता हूं कि एक साथ चारों ईवेंट फोटो/वीडियोग्राफर “माल-ताल” पर ही फोकस किये हैं। फ्लैश वाले भी उसी पर फ्लैश चमकाये जा रहे हैं। शादी गौण है, लड़का-लड़की गौण हैं। असली सत्य ‘माल-ताल’ है। यही ब्रह्म विद्या है, यही ब्रह्मज्ञान है! 😀
एक फोटोग्राफर को मैं कोई काम का जंतु लगा हूँगा, सो वह मेरा चित्र खींचने आ गया। उसके उलट, मैंने उसका चित्र खींचने के लिये मोबाइल सेट किया तो वह लजा गया। फोटो खींचने वाले का ही फोटो खींचना बड़ा रोचक कृत्य है। बंदा किस तरह से अपनी एक आंख बंद करता है; उसके मुंह की पेशियां किस तरह से सिकुड़ती हैं – यह ठीक से रिकॉर्ड करना एक बढ़िया चित्र बन सकता है। पर मुझमें वह कला नहीं और रात आसन्न थी, तो रोशनी का भी सहारा नहीं था। फिर भी चित्र लिया तो सही।


तिलक कितना चढ़ा? यह मुख्य चर्चा होती है। सब कुछ सबके सामने खोल कर रखा, दिखाया जाता है। मेरे पास बैठे, मेरे गांव सुकुलपुर के विनोद मुझे टोकते हैं – “देखो, अब असली माल-ताल दिया जा रहा है, अब फोटो लीजिये। बैठे बैठे फोटो नहीं आयेगा, तन्नी खड़े हो कर लेना पड़ेगा।” मैं देखता हूं कि एक साथ चारों ईवेंट फोटो/वीडियोग्राफर “माल-ताल” पर ही फोकस किये हैं। फ्लैश वाले भी उसी पर फ्लैश चमकाये जा रहे हैं। शादी गौण है, लड़का-लड़की गौण हैं। असली सत्य ‘माल-ताल’ है। यही ब्रह्म विद्या है, यही ब्रह्मज्ञान है! 😀
तिलक संस्कार पर कल एक स्टेटस भेजा था मैंने। उसपर एक टिप्पणी सटीक थी तिलक के बदलते स्वरूप पर। तिलक कितना वही है और कितना बदला है समय के साथ –
तिलक अनुष्ठान सम्पन्न होने पर भोजन पर टूटा गया। भोजन व्यवस्था उम्दा थी। ज्यादा खा नहीं पाया। मेरे ड्राइवर साहब ने बताया – “गुलाबजामुन थी, गाजर का हलवा भी और ऊपर से आईसक्रीम। हम त तिन्नो खाये।” खैर, मैंने दोसा खा कर ही संतोष किया। जब जठराग्नि प्रबल थी, तब तिलक जैसे समारोह के लिये समय नहीं था। अब जब नापतोल कर भोजन करना होता है तो गुलाबजामुन, गाजर का हलवा और आईसक्रीम सब की बात ललचाती भर है। भाग्य में तो स्वल्पाहार और रात में बिना भूले ईसबगोल का सेवन ही है।
घर आ कर ब्ल्यू-जोंस वाली साइट पर Life Expectancy Test का दो साल बाद रिपीट करता हूं। उसके अनुसार मेरी लाइफ एक्स्पेण्टेन्सी डेढ़ साल बढ़ गयी है। अगर मैं अपनी “आदतें” सुधार लूं तो तेरह साल और जी सकता हूं।
सो अब जिंदगी तिलकही अटेण्ड करने, भोजन पर लगाम रखने और “आदतें” सुधारने में ही लगानी है। वही कर रहा हूं। आपको भी देर सबेर वही करना होगा! 🙂

संजय ओझा फेसबुक पर –
जी ,आदरणीय सबसे स्वादिष्ट पकवान तिलक मे ही मिलता है। उस पर भी लगाम,, सरासर नाईसाफी हैं सर,,,
ऐसा उन लोगों का कहना है जिनपर पाबंदिया आयत है।
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बदनाम शायर ट्विटर पर –
पहले वर सत्कार कृत्य भी होता था, ‘वर’ के द्वार पर आते ही कन्या की माता आरती करती थी, यहाँ तक भगवान शिवशंभू की भी आरती हुई थी मैना देवी के द्वारा लेकिन अब ये संस्कार नहीं दिखता वरन अब दूल्हे का नेताजी की भांति माल्यार्पण होता है।
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आशीष मिश्र ट्विटर पर –
शुकुलपुर में अगर ध्यान से याद करु तो कम से कम 10 रिस्तेदार निकल जाएंगे मेरे।
वैसे आप इस आयोजन में सबसे ज्यादा स्किल्ड प्रोफेशनल प्रतीत हो रहे है।
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बदनाम शायर ट्विटर पर –
‘वर’ को प्रदान की जाने वाली समस्त सामग्री (थाल- थान, फल- फूल, द्रव्य- वस्त्रादि मे अब बस द्रव्य ही महत्वपूर्ण रह गया है। उत्तरोतर सभ्यता की विकास ऐसे ही हुआ है, इससे बचना मुश्किल है।
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आप तो बहुत भाग्यशाली है कि आपका परिवार लगभग तीन सौ लोगों का है,ससुराल और दूसरा रिश्तेदारों को मिला ले तो और संख्या बढ़ जाएगी,अब इतना तो झेलना ही पड़ेगा/बहरहाल इस रिपोरताज से गावों की शादिया जहां जहां मैंने अटेंड की है वे सब याद आ गयी /अब गावं कहां रह गए ,ये सब अब शहरों क छोटे हिस्से नजर आते है जहां वही सब दिखाई पड़ेगा जो शहरों मे मुहैया है/बहुत अच्छे चित्र लगे और वर्णन भी/
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टिप्पणी के लिए धन्यवाद बाजपेयी जी 🙏🏼
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