लगता है लम्बी लम्बी पदयात्रायें करना मेरी लकीरों में लिखा नहीं है पर लम्बी पदयात्रायें करने वालों से मिलना, पहचानना मेरे भाग्य में है। या शायद मैं नेशनल हाईवे के किनारे गांव में रहता हूं, इसलिये ऐसे लोगों से मिलना सरल है और मेरी प्रवृत्ति में आ गया है ऐसे ‘अजीबोगरीब’ लोगों से मिलना।
आज राघवेंद्र दास मिले। बीजापुर, कर्णाटक से दो झोला और एक बोतल पानी लिये हवाई चप्पल पहने चले आ रहे हैं। गेरुआ वस्त्र पहने; हल्का सा तिलक। इकहरा बदन। थोड़ा सांवला रंग। सिर पर गमछे का स्कार्फ। कन्नड पुट लिये हिंदी। बताया कि बीजापुर के इंडी तहसील के जेवुर गांव के हैं। वहां से चल कर रायचूर के पास से नेशनल हाईवे 8 पकड़ कर वाराणसी चले आये। अब बनारस से निकले हैं – मथुरा-वृन्दावन जायेंगे। उसके आगे जहां भगवान ले जायें! – वे ऊपर आसमान की ओर हाथ कर बोलते हैं कि सब ईश्वर आधीन है। उनकी पदयात्रा ईश्वर आधीन है।

जहां जगह मिलती है, सो जाते हैं। लोग भोजन करा देते हैं। भूख लगती है तो लोगों से भोजन मांग लेते हैं। साथ में एक चद्दर है। दो थैलों में थोड़ा बहुत सामान है। थैले भी बड़े नहीं हैं। हाथ में एक झण्डा लिये हैं। जहां जहां जाते हैं, लोग वहां के निशान दे देते हैं। वह सब झण्डे की लाठी में लपेट लेते हैं।
महराजगंज बाजार से अपने गांव की ओर आते हुये मैंने उस परिवेश से अलग लगते व्यक्ति को देखा तो रिफ्लेक्स एक्शन के रूप में कमीज की ऊपरी जेब में रखा नोकिया का छोटा मोबाइल निकाल कर चित्र खींच लिया। उनसे पूछा – कहां से आ रहे है?
“बीजापुर” उन सज्जन ने जवाब दिया। मुझे लगा कि पास किसी विजयपुर के होंगे। किसी धार्मिक अनुष्ठान में जाते हुये। विंध्याचल के आगे एक विजयपुर है जहां शीतलामाता का मंदिर है। पर सज्जन ने जब जोड़ा – कर्णाटक से” और उनके लहजे में दक्षिण भारतीय पुट झलका, तब मुझे लगा कि ये सामान्य स्थानीय पदयात्री नहीं हैं। उन्होने अपने स्थान के बारे में मैसुरू और हुबली आदि नाम लिये। उससे लग गया कि वे लम्बी पदयात्रा करते हुये आ रहे हैं।
राघवेंद्र दास रामानंद सम्प्रदाय के अनुयायी हैं। उन्होने अपने गुरु महोदय का नाम भी बताया। पिछले दो महीने आठ दिन से वे यात्रा कर रहे हैं। करीब दो हजार किमी चले होंगे – यद्यपि सही सही आंकड़ा नहीं रखा अपने पास। इन दो महीने में तो इतना चले हैं, वैसे भी पिछले चार पांच साल से चलते रहे हैं। माता पिता ऊपर जा चुके हैं। परिवार नहीं है। सो चलने में कोई बाधा नहीं है।

बाधा नहीं है, तो भी क्या है यह घुमक्कड़ी? तुलसी कलियुग का वर्णन करते लिख रहे हैं – “नारि मुई घर सम्पति नासी। मूड़ मुड़ाई भयें सन्यासी॥” राघवेंद्र दास के माता पिता नहीं रहे, पत्नी नहीं बच्चे नहीं। तो जोगिया कपड़ा पहन निकल दिये? मांगने पर भोजन मिल जायेगा। बस वही जरूरत है?! आदमी का सेंस ऑफ ग्रेटीफिकेशन किससे संतुष्ट होता है? आदमी में कम ही सही, कुछ राजसिक वृत्तियाँ तो होती हैं। उनका पोषण या उनका शमन कैसे होता है? आजकल रोटी कपड़ा मकान और इण्टरनेट की मूलभूत जरूरतें होती हैं; वे कैसे पूरी होती हैं?
मैं राघवेंद्र से पूछता हूं – उनका मोबाइल नम्बर क्या है? और उत्तर मुझे ट्रिप कर देता है। “कोई मोबाइल नहीं है। जब भजन करो, ध्यान करो तो किसी न किसी का फोन आ जायेगा। फोन तो ध्यान खा जायेगा। मैंने फोन ही नहीं रखा। जितना कम सामान, उतना सुखी जीवन।” – मुझे लगता है कि राघवेंद्र और मुझमें बहुत अंतर है। रहन सहन में भी और वासनाओं/सोच में भी। राघवेंद्र को समझने के लिये राघवेंद्र दास के स्तर पर उतरना पड़ेगा। कर नहीं पाऊंगा मैं।
मैं राघवेंद्र से बातचीत करने सड़क किनारे एक पत्थर पर उनके साथ बैठ गया। राघवेंद्र ने मुझसे धर्म की बात की, कबीर की बात की, अपने गुरू की बात की, जीवन जीने के बारे में बात की। आधा मैंने सुना और आधा ध्यान राघवेंद्र को देखने में लगा रहा। इस व्यक्ति ने कम साधन के साथ चलने को ही अपना ध्येय बना लिया है। पर ऐसा नहीं कि उसमें चाह नहीं है। वह बार बार मुझे और मेरी साइकिल को देखते रहे। मुझसे पूछा – “यह साईकिल कहां से ली? कितने की है? मेरे साइज की साइकिल तो थोड़ी बड़ी होगी। आपका हाईट कम है मेरा तो पांच फिट आठ इंच है। यहां बाजार में मिलती है? होलसेल वाला है बेचने वाला?”
साइकिल के बारे में अनेकानेक सवाल। राघवेंद्र का मन साइकिल पर लग गया है। साइकिल उनको यात्रा करने की सहूलियत देगी। “पहले मेरे पास साइकिल थी। वह छोड़ कर पैदल निकला मैं। पर लगता है साइकिल काम आयेगी।” – राघवेंद्र ने कहा।

मेरे पास राह चलते राघवेंद्र को भोजन कराने के लिये कुछ नहीं था। मैंने अपना पर्स निकाल कर उन्हें पांच सौ रुपये दिये। राघवेंद्र ने अपना थैला खोल कर एक पतली सी पुस्तिका, जिसपर कन्नड़ या तेळुगू में लिखा था; में पांच सौ रुपये सहेज दिये। मुझे धन्यवाद दिया और कहा कि ये पांच सौ उन्हें साइकिल खरीदने में सहायक होंगे।
मेरे बारे में राघवेंद्र ने अपना इम्प्रेशन मुझे बताया – “आप मेरा छोटे मोबाइल से फोटो ले रहे थे तो मैं सोचा देखो कितना गरीब आदमी है। साइकिल से चला आ रहा है और पुराना छोटा मोबाइल (फीचर फोन) है। पर इस उम्र में भी कितना देख रहा है।”
अच्छा लगा राघवेंद्र का बेबाक अपना सोचना बताना। मुझे इसी तरह बहुत से ग्रामीण भी निरीह, जिज्ञासु और गरीब (?) समझते होंगे। मैंने अपने स्मार्टफोन से भी उनके कई चित्र लिये। उन्हें यह भी बताया कि मैं रेलवे की नौकरी से रिटायर हुआ था। उन्होने मुझसे मेरी पेंशन के बारे में पूछा, फिर खुद ही अटकल लगाई – दस हजार तो मिलती होगी? उनकी अटकल पर मैंने हां हूं कर सहमति सी व्यक्त की। मैंने उनके बारे में पूछा था, उन्होने मेरे बारे में, मेरे बच्चों के बारे में पूछा।
विदा होते समय बातचीत करते हम दो तीन बार उठे और फिर बैठ गये। ज्यादातर राघवेंद्र ही बोलते जा रहे थे। बस यही मुलाकात ही तो हमारे पास थी। आगे कोई सम्पर्क सूत्र था ही नहीं। कोई मोबाइल नम्बर नहीं राघवेंद्र का। आज के और उस डिपार्टिंग के बाद मात्र स्मृति भर ही रहेगी। फिर मिलना होगा नहीं।
विदा होते समय मैंने राघवेंद्र को गले लगाया। उसी तरह जैसे प्रेमसागर को लगाया था। राघवेंद्र को मैंने प्रेमसागर के बारे में अपना लिखा दिखाया था बैठ कर। राघवेंद्र ने कहा – “मेरे बारे में भी लिख दीजियेगा। हो सकता है आपका लिखा देख कर कोई मुझे खाना ही खिला दे। मेरी उतनी ही जरूरत है।”

घर लौटा तो राघवेंद्र की ही सोचता रहा। राघवेंद्र जैसे भी हैं दुनियां में और महादेव हैं तो उन जैसों से मुझे मिलाते रहते हैं।
राघवेंद्र को दिये पांच सौ रुपयों के बारे में भी कथा रोचक है। और उसमें कुछ विलक्षण तत्व हैं। सवेरे साइकिल सैर के लिये निकलते समय मेरे जेब में पर्स नहीं होता। आज मैंने जाने क्यूं पर्स रख लिया था। उसमें एक भी पैसा नहीं था। मात्र एटीएम कार्ड था। दूध, सब्जी लेने में पर्स की जरूरत नहीं पड़ी। पड़ती भी नहीं है। यूपीआई पेमेण्ट से काम चल जाता है। महीने में मेरी कैश डीलिंग बहुत कम है। अगर जरूरत पड़ती है कहीं सौ पचास रुपये की तो किसी दुकान से यूपीआई पेमेण्ट कर उससे कैश मांग लेता हूं।
पर आज सवेरे एक ए.1 का एटीएम पड़ा और उसका दरवाजा खुला था। पता नहीं क्या मन में आया मैं यह देखने के लिये कि मेरा एटीएम काम करता है या नहीं और एटीएम मशीन आजकल पैसा रखती है या नहीं; मैं अंदर चला गया। चार हजार रुपये कैश निकाल लिये। तो पर्स में पांच पांच सौ के आठ नोट आ गये थे।
राघवेंद्र जिस रास्ते पर मिले, सामान्यत: उससे वापस नहीं लौटता हूं मैं। पर उस दिन वहीं से मुड़ गया। उस रास्ते पर मुड़ना, राघवेंद्र दास से मुलाकात और मेरे पास पर्स होना, उसमें चार हजार रुपये आ जाना – यह सब संयोग भर था? और मैंने चार हजार रुपये निकाले थे, उसमें से पांच सौ रुपये देना क्या ऐसा नहीं था कि महादेव परीक्षा ले रहे हों कि यह बंदा चार हजार में से कितना दे देता है?! आप एक घटना को कई कई तरह से देख समझ और वर्णन कर सकते हैं। वही घर लौटने पर मेरी पत्नीजी और मैंने किया।
फ्रूगल जीवन और भूख लगने पर भोजन मांग लेना – दो बातें मेरे मन में घूम रही हैं। फ्रूगल जीवन तो मैं जीना चाहता हूं। कुछ प्रयास भी करता हूं। पर भूख लगने पर मांग कर खा लेने का भाव अभी तो नहीं ही आया या आने की सम्भावना भी नहीं लगती है। शायद वह आना, अपने आप को और सिकोड़ने की पराकाष्ठा हो। शायद।
राघवेंद्र से आगे मिलना होगा नहीं। पर एक छोटी सी मुलाकात मन में बहुत कुछ उथल पुथल दे गयी।

Suresh C Sharma on facebook page
पूरा पढ़ा। आनंद। आपके 500 रुपये राघवेंद्र दास के बहुत काम आएंगे। उनके लिए आपकी पेंशन मात्र 10000 रुपये आँकना बहुत कुछ कह गया उनकी आर्थिक स्थिति के बारे में।
राघवेंद्र और आप : दोनों में आत्मदर्शन। प्रणाम।
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आप बहुत अच्छे व्यक्ति है सर जी ,आपका ब्लॉग पढ़ के हमारे मन में भी किसी का भला ,उपकार करने की प्रवृति आती है ,आपके लेखन को मैं 2016 से पढ़ रहा हूं ,कभी बनारस यात्रा के दौरान आपसे मुलाकात भी करने की बहुत इच्छा है ।
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आप यहां आइए! स्वागत!
जय हो 🙏🏼
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सुधीर खत्री, फेसबुक पेज पर –
दो महान आत्माओं का मिलन भी भगवत कृपा है
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दिनेश कुमार शुक्ल जी, फेसबुक पेज पर –
सिमिटि सिमिटि जलु भरइ तलावा। जिमि सुसंग सज्जन पँह आवा।।
महराज आपकी औघड़ई में भी एक साधु छुपा बैठा है, सो वैसे ही यायावर संन्यासी आपसे भेंटाते रहते हैं। हर हर महादेव।
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