गांव में दो दुकानें हैं साइकिल रिपेयर की। दोनो के मुखिया का नाम जोखन है। दोनो जोखनों को चीन्हने के लिये जोखन-पूर्व और जोखन-पश्चिम कहा जा सकता है। जोखन पूर्व शिवाला पर भी ब्रांच खोले हैं। कौन दुकान ज्यादा चलती है? इसका उत्तर देना कठिन है। दोनो जोखन यह कहते हैं – “बस, पेट पालने भर को मिलता है।” और सच में लगता भी है कि पेट पालने भर को मिलता है। साइकिल वाले ही नहीं; पूरे गांव भर में चार पांच परिवारों को छोड़ कर सब का यही हाल है। पेट पालने भर को मिलता है।
गांव में हर ऐरे गैरे के पास भी आजकल मोटर साइकिल है। कोई बेरोजगार भी हो, पेट पालने में दिक्कत हो, तो भी उसे एक मोटर साइकिल दहेज में मिल ही जाती है। जितनी साइकलें हैं, उतनी ही, या उससे ज्यादा मोटर साइकलें होंगी। समाजवादी पार्टी का डाइहार्ड समर्थक भी साईकिल की बजाय मोटर साइकिल को तरजीह देता है। पर मोटर साइकिल रिपेयर की कोई दुकान गांव में एक भी नहीं है। साइकिल रिपेयर की दो-तीन हैं।
साइकिल चलाने का हिमायती मैं ही हूं। शौकिया भर नहीं, अब काम काज के लिये भी साइकिल का प्रयोग करता हूं। सवेरे मार्केट के लिये साइकिल और पत्नीजी की दी गयी सामान की लिस्ट – दूध, फल, सब्जी, किराना सामान आदि ले कर लौटना होता है। कई बार साइकिल की आगे लगी टोकरी भर जाती है। इसलिये साइकिल को सही हालत में रखना शौक ही नहीं, मेरी जरूरत भी है।

फिलहाल तो मेरी सामान्य, पैडल वाली साइकिल का पैडल जोर लगाने पर कुछ दिन गये, कट्ट कट्ट बोलने लगा था। मुझे लगा कि उसमें तेल-पानी की जरूरत है, पर वह देने पर भी आवाज गयी नहीं। आज सवेरे जब साइकिल की कराह ज्यादा ही हो गयी तो मैं उसे जोखन (जोखन-पूर्व) के यहां ले कर गया।
सवेरे सवेरे जोखन उठ कर घर के बाहर चबूतरे पर बैठा था। उघार बदन। मेरे साइकिल का मर्ज बताने पर वह उस पर सौ-दो सौ मीटर चला कर आया। आने पर बताया कि छर्रे घिस गये हैं।

“कितनी देर लगेगी बदलने में और कितना पैसा लगेगा?”
“ज्यादा नहीं पचास-एक लगेगा। और बीस-एक मिनट इंतजार करना होगा।” – जोखन ने कहा और मेरे हामी भरने पर अपनी लुंगी फोल्ड कर घुटने के ऊपर की और काम में लग गया। पैडल के छर्रे निकाल कर उन्हें साफ किया और ध्यान से देखा। तब अपना निर्णय दिया – छर्रे टूटे नहीं हैं पर घिसने से उनमें लकीरेंं बन गयी हैं। इस लिये आवाज आने लगी है।
रेलवे वर्कशॉप में ट्रेन के वैगनों की बीयरिंग बदलने के लिये यह सुनिश्चित किया जाता है कि वातावरण एयरकण्डीशंड हो। धूल का कतरा भी न हो। अन्यथा वैगन का हॉट एक्सल होना और दुर्घटना होना आशंका के दायरे में आ जाता है। पर यहां पैडल की बीयरिंग बदलने के लिये जोखन वैसा कोई प्रोटोकाल नहीं रखता। हाईवे के किनारे आते जाते वाहनों से धूल-धुआं होता ही है। वैसे भी कहां रेलवे का चालीस लाख का वैगन और कहां रिटायर आदमी की चार हजार की साइकिल!
जोखन साइकिल मैकेनिक है। परिवार के नौजवान भी उसी काम में लगे हैं। पर साइकिल बाजार की मार्केट वैल्यू कितनी है, कितनी होनी चाहिये – इसका उसे सही सही अंदाज नहीं है। मसलन, वह बिजली की साइकिल के बारे में अपना आकलन बताता है – बहुत मंहगी आती है। महराजगंज की फलाने की लड़की चलाती है। सात आठ हजार से कम की तो क्या होगी? मैं उसे बताता हूं कि आठ हजार की नहीं, बत्तीस हजार की आती है। पर आठ और बत्तीस का फ़र्क उसे क्लिक नहीं करता। उसके लिये आठ भी ज्यादा है और बत्तीस भी।
जोखन कारीगर है, कमाता भी ठीक ठाक होगा। पर फ़िर भी जीवन उसका बहुत फ्रूगल है। मैं उससे बचत की, निवेश की बात करूं तो उसका कोई खास मतलब नहीं निकलेगा। गांव देहात की अस्सी नब्बे प्रतिशत आबादी का वही हाल है। पर उनके सम्पर्क में आना और उनसे बातचीत करना मेरी दिनचर्या का (लगभग) आवाश्यक अंग बन गया है। वे मुझसे ज्यादा प्रसन्न हैं? ज्यादा सन्तुष्ट हैं? आसन्न संकटों का सामना बेहतर कर सकते हैं? उनका सामाजिक सपोर्ट सिस्टम ज्यादा पुख्ता है? ये और इससे मिलते जुलते कई सवाल मुझे हॉन्ट करते हैं। जोखन काम कर रहा है और उसके पास सीमेण्ट के स्लैब, जिसपर टाट की बोरी बिछी है, पर मैं बैठ कर उससे बतिया रहा हूं। उसकी बेटी आ कर कहती है – काम पर जाना है और उसके लिये देर हो रही है। जोखन का लड़का अभी नहा रहा है। उसके बाद ही वह इस दुकान पर बैठेगा और जोखन शिवाला वाली दुकान पर जायेगा।

काम खतम कर वह मुझे मेरे कहने पर दाम बताता है – चालीस रुपये। मेरे हिसाब से यह बीयरिन्ग बदलने का रेट ’डर्ट-चीप’ है। … कई दिनों से साइकिल की पैडल की कटर कटर ध्वनि से मैं परेशान था और उसका निदान मात्र चालीस रुपये मे? सात साल होने को आये पर गांव अभी भी मुझे सरप्राइज करता है। पैडल के छर्रे बदलने का भाव भी एक सरप्राइज है। इसी तरह के सरप्राइज – सुखद सरप्राइज मिलते रहे तो जिन्दगी का आनन्द है। गांव की साइकिल रिपेयर की रस्टिक दुकान भी वह आश्चर्य-मिश्रित-आनन्द देने मे सक्षम है!
मैं सोचता हूं; आज का दिन बन गया! 🙂
शेखर व्यास फेसबुक पेज पर –
परिवेश और परिसर की बात है ,जैसा आपने लिखा । यही काम किसी थोड़े बड़े नगर या मध्यमवर्गीय कस्बे में भी होता तो 30 से 40 ₹ ज्यादा ले लेता । उसके ऊपर स्तर में तो छील दिया जाता 100 से कम का काम ही नहीं होता ।
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पांडे जी,यह सही है की गवों मे रहना शहरों की अपेक्षा बहुत सस्ता है/मेरा गाव और शहर दोनों जगहों से संपर्क है और मै अंतर समझता हू/अब गवों मे भी वाही एक्सपरताइज सुविधाये मिलती है जैसे शहरों मे है/गाव अब वे गाव नहीं रहे जैसा मै बचपन मे देखा करता था/ सभी गाव अब शहरों के छोटे रूप हो गए है/आप मेरे हिसाब से बहुत भाग्यशाली व्यक्ति है जो ग्रामीण इलाके मे रह रहे है/गाव और शहर का अंतर वही बता सकता है और समझ सकता है जो दोनों जगह अपने एक एक पैर रखे हुए हो/मै अपना एक पैर गाव मे और दूसरा शहर मे रखता हू/
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सही है – गांव अब शहर बनते जा रहे हैं।
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