महताब अहमद की हुसैनीपुर, महराजगंज में मोबाइल की थोक दुकान है। आसपास के गांव-कस्बों के करीब सौ छोटे मोबाइल रिपेयर दुकानदार वहां से कम कीमत वाले मोबाइल, स्मार्टफोन, टॉर्च, स्पीकर, और उनके खुदरा सामान ले जाते हैं। मैं भी अपनी छोटी मोटी जरूरतों के लिये उनकी दुकान पर जाता हूं।
बगल के दुकानदार मुझे कहते हैं – वहाँ कहां जाते हैं, सर जी। बहुत लीगी है वह! पर महताब मुझे बहुत सज्जन लगते हैं। कभी धर्म के मामले को ले कर विवाद वाली बात हुई नहीं। हम दोनो को मालुम है कि महताब की गोल वाले असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी के पक्षधर हैं और मेरे जैसे नरेंद्र दामोदरदास मोदी के गोल को वोट देने वाले हैं। दोनो को अलहदा पार्टी को बैक करने में कोई झंझट नहीं। पर हम में राजनीति को ले कर शायद ही कभी बात होती हो। धर्म को ले कर भी कम से कम महताब नहीं करते। करता मैं ही हूं और उसमें जिज्ञासा का भाव होता है – मुसलमानी कर्मकाण्ड जानने की जिज्ञासा का।

उस रोज महताब के बड़े भाई दुकान पर मिले। आजाद अहमद। दुकान महताब चला रहे थे, वे बैठे भर थे। मैं आजाद अहमद से परिचित नहीं था। उनकी जालीदार टोपी देख कर अपनी जिज्ञासा व्यक्त की – यह टोपी हर समय पहनते हैं या सिर्फ पूजा के समय पहनने का विधान है?
महताब ने बताया कि वे भी माला रखते हैं। तस्बीह। एक सौ एक मनके की माला होती है। उसी से मन में जप चलता है। कुरआन की कोई पवित्र आयत का जाप चलता है। या और कुछ नहीं तो – अल्लाहु अकबर, अल्लाहु अकबर का जाप करते हैं।
उत्तर महताब ने दिया – वे बड़े भाई साहब हैं। अभी अभी, दस रोज पहले हज कर लौटे हैं। हज की पवित्र वातावरण की याद उनके मन में ताजा है। … टोपी पहनने का कोई नियम नहीं है – वह पहनना फर्ज़ में नहीं आता। वह सुन्नत है। फर्ज़ यानी धार्मिक नियम जिसका कड़ाई से पालन होना चाहिये। सुन्नत यानी वह प्रथा जो पालन की जाये तो अच्छा।
मुझे समझ आया। फर्ज़ अर्थात Strict Religious Duty और सुन्नत अर्थात Desirable Religious Practice. हम में से बहुत से लोग फर्ज़ और सुन्नत नहीं जानते होंगे। मैं ही नहीं जानता था।
आजाद अहमद मन की पवित्रता के लिये क्या करते हैं? हम लोग तो माला जपते हैं। कलियुग केवल नाम अधारा। जप ही पूजा है हमारे लिये। आजाद भी कुछ वैसा करते हैं?
महताब अहमद ने बताया कि वे भी माला रखते हैं। तस्बीह। एक सौ एक मनके की माला होती है। उसी से मन में जप चलता है। कुरआन की कोई पवित्र आयत का जाप चलता है। या और कुछ नहीं तो – अल्लाहु अकबर, अल्लाहु अकबर का जाप करते हैं।
बहुत कुछ समांतर है। मैं अपनी सुमिरनी का प्रयोग कर गायत्री मंत्र, हरे राम हरे राम वाला जप या फिर केवल ॐ नम: शिवाय का जप करता हूं। ॐ नम: शिवाय और अल्लाहु अकबर – दोनो ही जाप बड़ी तेजी से सटासट किये जा सकते हैं!

मैंने महताब से पूछा कि उनकी सुमिरनी – तस्बीह किसकी बनी होती है। रुद्राक्ष जैसे कोई मनके होते हैं जिनको पिरो कर माला बनती हो?
“रुद्राक्ष नहीं होता। कोई स्टोन के मनके होते हैं। खुरदरे नहीं होते। रात के अंधेरे में वह पत्थर हल्का चमकता है। वे लोग तस्बीह को तस्कीम भी करते हैं। तस्कीम मतलब बांटना।” – महताब ने मेरा ज्ञानवर्धन किया।
मुझे याद आया कि मेरे पास जितनी भी रुद्राक्ष की 108 या 27 मनके वाली मालायें हैं वे मैंने खरीदी नहीं हैं। किसी न किसी ने मुझे दी हैं। महताब के हिसाब से वे किसी न किसी ने तस्कीम की हैं।

अपने घर से एक तस्बीह मंगवा कर महताब ने मुझे दी। वह हरे रंग की है। उसकी घुण्डी पर भी हरे रंग का फुंदना लगा है। तैंतीस मनकों के बाद एक अलग प्रकार का मनका लगा है। एक घुण्डी, तैंतीस मनको के तीन सेट और उनके दो पॉज वाले मनके। कुल मिला कर 101 मनके और एक घुण्डी। … यह सब जानना मेरे लिये नयी बात थी। हिंदू और मुस्लिम समाज इतने पास पास रहता हुआ भी एक दूसरे की प्रथाओं से कितना अनभिज्ञ रहता है! अपनी जिंदगी के छियासठ साल लगे मुझे तस्बीह के बारे में बेसिक जानकारी पाने में। महताब अहमद की दुकान पर न जाता होता तो वह भी नहीं हो पाता।
आजाद अहमद जी ने बताया कि हज करने में उन्हें कुल अढ़तालीस दिन लगे। खर्चा आया साढ़े आठ लाख। चार धाम की यात्रा में भी वैसा खर्चा आता होगा? हज का मामला बड़ा ऑर्गेनाइज्ड है। आजाद जी ने बताया कि वहां सरकार करीब तीस हजार रुपया कॉशन मनी जमा करा लेती है। वहां अगर इंतकाल हो जाये तो क्रिया कर्म भी सऊदी सरकार उसी से करती है। अगर वापस आ गये तो वह कॉशन मनी वापस हो जाती है।
मैंने प्रेमसागर की द्वादश ज्योतिर्लिंग यात्रा का डिजिटल विवरण लिखा है। बारह में से छ ज्योतिर्लिंग यात्रा विवरण तो मेरे ब्लॉग पर है ही। अब मन ललक रहा है कि किसी हाजी तो थामा जाये प्रेमसागर की तरह। उनके नित्य विवरण के आधार पर दो महीने की ब्लॉग पोस्टें लिखी जायें! वह रोचक भी होगा और इस्लाम को जानने का एक अनूठा तरीका भी होगा। एक कट्टर दक्षिणपंथी बाभन और हाजी मुसलमान की सोच का फ्यूजन।
यूँ वह डिजिटल हज यात्रा आसान नहीं होगी। उसमें शिव जी या कृष्ण भगवान की तरह प्रेम-सख्य-उपालम्भ आदि अल्लाह या नबी के साथ तो कत्तई नहीं हो सकता। उस लेखन के अपने नियम होंगे, अपने नये फर्ज़ और नई सुन्नत। और, इस्लाम को समझने जानने के लिये इस उम्र में मुझे खासी मेहनत करनी होगी।
… मैं कभी महताब अहमद से इस बारे में बात करूंगा। क्या पता कोई ढंग का हज यात्रा पर जाने वाला सुलझा हुआ मुसलमान मेरे साथ डिजिटल जुगलबंदी को तैयार हो जाये।
क्या पता?! 🙂
सर प्रणाम । आपकी ये लाईन महत्वपूर्ण है- “इस्लाम को समझने जानने के लिये इस उम्र में मुझे खासी मेहनत करनी होगी”. वास्तव में आपको अधिक मेहनत करनी होगी क्योकि इस्लाम में जानने/ जिज्ञासा /प्रश्न आदि के लिए कोई व्यवस्था नहीं है । यह केवल मानने पर जोर देता है । प्रश्न करना उस धर्म पर सवाल करने के बराबर है । चूंकि आप सनातन धर्म से हैं जिसमें प्रत्येक शास्त्र , उपनिषद, गीता आदि का आरंभ ही प्रश्न से होता है । इस प्रकार की कोई व्यवस्था इस्लाम में न होने से आपकी जिज्ञासा का सही समाधान होना कठिन होगा ।
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यूँ यह मेहनत बहुत से लोगों ने कर रखी है. उनकी समझ का लाभ लिया जा सकता है.
पर मजे की बात यह है कि अधिकांश लोग कह रहे हैं कि यह मेहनत करने की क्या जरूरत है. एक अंतर्मुखी धर्म के बारे में सोचना लिखना सही नहीं – लोगों के अनुसार. 😔
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लिखना आपका व्यक्तिगत विचार है, सभी धर्मों से अच्छाइयाँ निकालकर ले लेनी चाहिये।
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मेरे ख्याल से ट्रैवेलॉग लेखन धर्म निरपेक्ष भी हो सकता है. कल से मैं इस जुगत में लगा हूँ कि कोई मुस्लिम जगत का यात्रा विवरण मिले जिसमें कोई सामान्य सा आदमी लिख रहा हो…
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एक जरूरी सलाह दे रहा हू पांडे जी आपको ,इसे कही गांठ बांध कर रख लीजिएगा?इस देश के अधिकांश कुछ अच्छे मुसलमान जिनकी संख्या बहुत और बेहद कम है और शिया मुसलमान के ऊपर आप भरोसा करिए लेकिन लीगी और किसी जमात से जुड़े मुसलामान से कोई व्योहार न बनाए/ मै तो पाकिस्तान के ढाका से 240 किलोमीटर दूर सिलचर/मैमन सिंह जिले मे पैदा हुआ था जहा बापदादों की 150 बीघा जमीदारी और 4 पुश्तैनी मकान थे/ बटवारे के बाद सब छोड़कर वापस आना पड़ा/मेरे वहा रह गए रिश्तेदारों का पिछले 40+ सालों से अता पता नहीं है/या तो वे मार डाले गए या वे मुसलमान बन गए/ जब मुसलमान कट्टरता पर आ जाते है तो सारे व्योहार और अहसान सब भूल जाते है/कानपुर मे मै जहा रहता हू ,मेरे मकान की दीवाल से सटी मस्जिद है वहा मै रोजाना देखता हू की ये क्या करते है?,हर मुसलमान की यह शिक्षा दी जाती है की “”जब तक गजबा-ए-हिन्द” नहीं होगा तब तक कयामत नहीं आएगी यानी इसका मतलब साफ साफ यह है की जब तक इस दुनिया से एक एक भी हिन्दु और उसके धर्मस्थलों को नेस्तनाबूद और जमींदोज नहीं कर दिया जाएगा और इस दुनिया से हिन्दुओ का सफाया और नामोनिशान मिटा दिया जाएगा तब गजवा-ए- हिन्द की शर्त पूरी होगी /जब हिन्दुओ का नामोनिशान और मंदिर पूजास्थल मिटा नहीं दिए जाएंगे तब तक गजवा-ए-हिन्द नहीं पूरा होगा/कयामत का दिन तभी आएगा जब गजवा-ए-हिन्द पूरा होगा/ इसीलिए हर मुसलमान अपने को गाजी बताता है और गाजी बनना चाहता है/ताकि इस्लाम मे बताए गए इस धार्मिक और पवित्र काम को अंजाम दिया जा सके/आप मुसलमानों के बारे मे बहुत कम जानते है या आपको कोई खास जानकारी नहीं है/मेरी ससुराल और मेरी बड़ी बहन की ससुराल मुसलमानों के इलाके के बीचों बीच मे थी /वहा से सभी सैकड़ों हिन्दु परिवार औनेपौने मे जमीन बेचकर सुरक्षित स्थानों पर बस गए/ये जहा बड़ी संख्या मे होते है तब इनका असली चेहरा और चाल ढाल और मजहबी करतूते सामने आती है और तभी इनकी मन की बात सामने आती है की ये क्या कार्बा चाहते है /जिसको देखो वही सर तन से जुदा करने की धमकी देता है/हर मुसलमान गाजी बना चाहता है/यह धार्मिक और पवित्र कार्य माना जाता है /हम सभी हिन्दु इनके लिए चारा है/ इनके बारे मे समझिए अभी मुसलमानों के असली क्रिया कलापों को जाने और समझने मे आप बहुत कच्चे है/बाकी फिर कभी लिखूँगा/
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धन्यवाद आगाह करने के लिए बाजपेयी जी. ऐसा बहुत से लोगों ने कहा है और लिखा है.
आपके अपने पारिवारिक अनुभव हैं सो उनकी अहमियत कहीं ज्यादा है.
आपको टिप्पणी के लिए बहुत धन्यवाद 🙏🏼
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कुछ साल पहले हमें इनके एक फ़र्ज़ के बारे में पता चला था, जिसका नाम है ज़कात। इसके अन्तर्गत इन लोगों को अपनी कमाई का एक तय हिस्सा दान-पुण्य में खर्च करना होता है। आइडिया हमें बहुत अच्छा लगा था। तब से हम भी अपने सैलरी का एक नियत परसेंटेज हर साल section 80G वाले कई संस्थाओं में दे देते हैं। घर बैठे ज़कात भी हो जाता है, और जो टैक्स में छूट मिलती है वो ऊपरी 🙂
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जकात वास्तव में एक पुण्य कृत्य है. उसमें अगर सधर्मी को ही देने की बंदिश न हो और मानव या जीव को शामिल कर लिया जाए तो वह आदर्श जीवन शैली बन जाए.
आपका साधुवाद! जय हो 🙏🏼
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