मेरी पत्नीजी और मैं सवेरे एक थर्मस चाय ले कर अपने पोर्टिको में बैठते हैं। सामने एक नीम के पेड़ के नीचे चिड़ियों को दो रोटियाँ तोड़ कर एक ट्रे में डाल कर उनका कलेवा चुगना निहारते हुये अपनी चाय पीते हैं। यह रुटीन सालों से चल रहा है। आधा पौना घण्टा अच्छा बीतता है।
कलेवा करने वाली चरखियाँ हैं। करीब दो दर्जन। दो मैना आया करती थीं। उनमें से एक की टांग कटी हुई है। वह दम्पति करीब तीन साल से है। तीन साल से शायद ज्यादा ही। अब उन मैनाओं की संख्या बढ़ कर दस के आसपास हो गयी है। उनके अलावा गिलहरियाँ हैं। बुलबुल, रॉबिन और पण्डुक भी आते हैं। कुछ समय से कौव्वे भी आने लगे हैं। इन सब के लिये भोजन कम पड़ने लगा है।

नीम का पेड़ पोर्टिको से पांच सात कदम पर है। मोबाइल से वहां की चिड़ियों की गतिविधि के चित्र लेना काम का नहीं होता। पर कुछ दिन पहले एक चरखी (वार्ब्लर – Warbler) ने साहसी काम किया। वह हमारी चाय की मेज पर आ गयी। उसने प्लेट से नमकीन चुग लिया। जब यह स्पष्ट हो गया कि हम निरीह जीव हैं तो चरखियों का साहस बढ़ गया। तीन चार चरखियां हमारे सेण्टर टेबल पर धावा बोलने लगीं। एक दिन तो एक ने मेरी पत्नीजी की मैक्सी पर बैठ कर गिरा हुआ नमकीन का टुकड़ा चुग गयी। उनका भय खत्म हो गया।
अब सवेरे मैं दरवाजा खोल चाय की ट्रे ले कर बाहर निकलता हूं तो दूर पेड़ों पर बैठी चरखियां पास आ जाती हैं। ठीक से बैठने भी नहीं देतीं। कलेवा की मांग करने लगती हैं। चरखियों की देखा देखी मैंना और गिलहरी भी हमारे पास आने लगे हैं। रोटी अब उन्हें प्रिय नहीं लगती। रतलामी सेव उनका सबसे प्रिय हो गया है। पर मंहगी रतलामी सेव तो प्रचुर मात्रा में दी नहीं जा सकती। रसोई से पुरानी नमकीन निकाल कर उनके लिये अलग से रखी जाने लगी है। नमकीन पास में बिखेरने पर दो चार मिनट में साफ कर देती हैं वे। जब कुछ नहीं बचता तो रोटी पर नम्बर लगता है।
हमेशा झगड़ने वाली, कर्कश आवाज में बोलती चरखियां हमें अच्छी नहीं लगती थी। पर अब जब उन्हें पास से देखा तो उनकी हर मुद्रा प्रिय लगने लगी है। चरखियों की स्टॉक वैल्यू हमारी नजर में बढ़ गयी है।

दो दिन से कव्वे भी पास आने लगे हैं। पहले वे नीम के पेड़ के नीचे अपनी चोंच में खूब सारे रोटी के टुकड़े समेट भाग जाया करते थे और पेड़ों पर खाते थे। अब वे हमारी कुर्सी के पास नमकीन चुगने लगे हैं। चरखी और मैना की अपेक्षा वे ज्यादा सतर्क रहते हैं। हल्का सा हिलने पर भाग जाते हैं। पर आते जरूर हैं।
चरखियां मैनाओं को पास में आने नहीं देना चाहतीं। उनमें मार हो जाती है। सामान्यत: मैना संख्याबल में कम होने के कारण हार जाती हैं पर फिर अपनी बिरादरी की और मैनाओं को बुला कर मुकाबला भी करती हैं।
बुलबुल और रॉबिन पास नहीं आते। उनके लिये एक दो टुकड़ा रोटी ही काफी है नीम के पेड़ के नीचे। पण्डुक तो कभी कभी आती है – गर्विली नारी की तरह मटक कर कैट-वॉक करती हुई। वह रोटी में ज्यादा रुचि नहीं रखती। उसका ध्येय पास में तसले में रखे पानी में नहाना होता है। बारिश के मौसम में जब हर ओर पानी होता है तो उसका आना कम हो जाता है। आजकल नहीं दिख रही।

कलेवा करती चिड़ियों के चित्र लेना कठिन है। उनके झुड़ के चित्र पूरे यत्न के बावजूद हम केप्चर नहीं कर पाये। पर उनकी गतिविधियों के बारे में लिखा जरूर जा सकता है। अब मैं सोचता हूं कि सवेरे उनके कलेवा-अनुष्ठान के नोट्स लेने के लिये एक नोटबुक पास में रख कर बैठा करूंगा। अन्यथा सवेरे का वह समय, बड़ा तरल होता है। बह जाता है। कलेवा-काल को संजोने का यत्न करना होगा। यह महत्वपूर्ण काम लगने लगा है मुझे। 🙂
बहुत सुंदर संस्मरण |
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कई आत्मायें आपके साथ सुबह कलेवा करती है, इससे अधिक संतुष्टि और भला क्या होगा। आपको इनके भी युद्ध और परस्पर प्रेम और सहयोग भी कभी कभी दिखेगा।
इन्होंने आपके कलेवे को और भी आकर्षक बना दिया है, सुबह आपको अपने कलेवे के साथ इनके बारे में भी सोचना पड़ता है।🙏🙏
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आप के यहां भी बहुत से जीव आसरा पाते हैं. आपके यहां की कथायें और भी रोचक हैं. उन्हें भी लिखा जाना चाहिए! 😊
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🙏🙏🙏
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Sundar varnan.
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पांडे जी, आपका फोटोग्राफीक एंगल और सेंस पहले से बेहतर है/आप फोटोग्राफी फ्रेम के सिलेक्शन मे निपुण हो गए है/चित्रों का फ्रेम और एंगल बेहतर और आकर्षक लगा/
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धन्यवाद बाजपेयी जी 🙏🏼
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