सबसे पहले सात सुन्दर वड़ियां खोंटी जाती थीं। यह काम घर की बड़ी स्त्री करती थी। उन सात वड़ियों को सिन्दूर से सजाया जाता था।
अर्थ यह था कि जितनी सुन्दर कोंहड़ौरी है, वैसी ही सुन्दर सुशील बहू घर में आये।
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पारसिंग का बकरा
“मम्मी, एक बकरा था मेरा। बहुत अच्छा था। मम्मी, क्या बताऊं, आज वह मर गया। घर पर उसकी लाश पड़ी है। उसे दफनाने के पैसे नहीं हैं। आप मम्मी बस सौ रुपये दे दें तो उसे दफना दूं।” – पारसिंग बोला।
पारसिंग की याद
पारसिंग जब हमारे घर काम करने आता था तो मेरी पत्नीजी का पहला सवाल होता था – पारसिंग, दारू पीना बंद किया कि नहीं?
और पारसिंग का स्टॉक रिप्लाई होता था – अरे मम्मी मैं तो छूता भी नहीं। सामने हो तो उसमें आग लगा दूं।
कैस्टर और मस्टर्ड
मस्टर्ड (सरसों) उन छात्रों को कहा जाता था, जो हिंदी माध्यम से पढ़े, छोटे शहरों या कस्बों के होते थे। उनकी पृष्ठभूमि निम्न मध्यवर्ग की होती थी। अंग्रेजी में बोलना उन्हें नहीं आता था।…लड़कियों से बोलने बतियाने की कोई आदत नहीं थी। मैं मस्टर्ड था।
सपने में सिर काटई कोई
ऐसा नहीं कि चोरी-उचक्कई-जहरखुरानी आदि होती नहीं हैं। पर उनके प्रति मुझमें सेंसिटिविटी का अभाव जरूर था। मुझे याद है कि रेलवे में हो रही जहरखुरानी पर मीटिंगों में चर्चा के दौरान जब बाकी सभी अधिकारी तत्मयता से उसमें भाग लेते थे; मैं उबासी लिया करता था।
रेल के यार्डों में घूमते हुये
एकाकी जीवन, यार्ड में सीखने के लिये की गयी मेहनत और भोजन का कोई मुकम्मल इंतजाम न होना – यह सब खिन्नता देता था। आगरा मुझे अपनी भीड़ और गंदगी के कारण कभी पसंद नहीं आया। पर इन सब के बावजूद मैंने अपनी ट्रेनिग को बहुत गम्भीरता से लिया।