मेरी पत्नीजी यह सुन देख कर कहती हैं – बेचारे प्रेमसागर! तुमने उस शरीफ आदमी को कुम्हार की बस्ती खोजने में लगा दिया! शंकर भगवान तुम पर किचकिचा रहे होंगे। तुम उनका शोषण कर रहे हो डिजिटल एक्स्प्लॉइटेशन! 🙂
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उठो; चलो भाई!
यह एक पुरानी पोस्ट है – बारह जनवरी 2013 की। मैं अस्पताल में भर्ती था। शरीर इण्ट्रावेनस इंजेक्शनों से एण्टीबायोटिक अनवरत भरने की प्रक्रिया से छलनी था। पर उस समय भी मन यात्रा की सोच रहा था।
गंगा किनारा और बालू लदान के मजदूर
काम मेहनत का है। सो 3-4सौ (गांव का रेट) न कम है न ज्यादा। जो गांव में रहना चाहते हैं, वे इसको पसंद करेंगे; वर्ना अवसर देख कर महानगर का रुख करेंगे। मजदूर गांव/महानगर के बीच फ्लिप-फ्लॉप करते रहते हैं।
संकल्पों की कसौटी पर जीवन कसते प्रेमसागर
प्रेम सागर बताते हैं कि जब यह 101 कांवर संकल्प लिया और देवघर के बैजनाथधाम में जल चढ़ाना प्रारम्भ किया तो आशातीत दैवीय परिवर्तन हुआ। बिटिया की शादी सहजता से हो गयी। संकल्प की कसौटी पर खरे उतरे प्रेम सागर!
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पुनरावलोकन – सुशासन आई बबुआ हाली-हाली आई। रेलिया से आई हो, पटरिया पर आई।
गोण्डा-बलरामपुर का क्षेत्र पूर्वांचल का देहाती-पिछड़ा-गरीब क्षेत्र है। पर मैने उन बच्चों को देखा तो पाया कि लगभग सब के सब के पैरों में चप्पल या जूता था। सर्दी से बचाव के लिये हर एक के बदन पर गर्म कपडे थे।
आत्मनिर्भरता का सिकुड़ता दायरा
अब हताशा ऐसी है कि लगता है आत्मनिर्भरता भारत के स्तर पर नहीं, राज्य या समाज के स्तर पर भी नहीं; विशुद्ध व्यक्तिगत स्तर पर होनी चाहिये। “सम्मानजनक रूप से जीना (या मरना)” के लिये अब व्यक्तिगत स्तर पर ही प्रयास करने चाहियें।