मैं उस समय अपनी रेलवे की पहली पोस्टिंग पर गया था। मेरा पद था, सहायक ऑपरेटिंग सुपरिण्टेण्डेण्ट, रतलाम। पश्चिम रेलवे पर यातायात सेवा ज्वाइन करने वाले के लिये यह बहुत प्रॉमिजिंग पोस्ट थी। मुझसे अपेक्षा की जाती थी कि मैं न केवल मेहनत करूंगा, वरन अपने काम में आउटस्टैंडिंग प्रमाणित होऊंगा। सन 1986 का प्रारम्भ था वह। रतलाम रेल मण्डल पर गोधरा-रतलाम खण्ड का विद्युतीकरण का काम हो रहा था। सिगनलिंग व्यवस्था भी बदली जा रही थी। मैं अपने पर अपने को प्रूव करने का काफी दबाव महसूस करता था।
रतलाम – गोधरा खण्ड पर पठारी इलाका होने के कारण बहुत से घुमाव और ऊंचाइयों से गुजरता है ट्रैक। यद्यपि दोहरी लाइन थी उस खण्ड में, तीन स्थानों पर भौगोलिक स्थितियां विषम होने के कारण इकहरी लाइन के छोटे टुकड़े थे। ये टुकड़े भैरोंगढ़ के पास माही नदी, पंचपिपलिया के पास सुरंग और अनास के पास अनास नदी के कारण थे। जब इन टुकड़ों पर सिगनलिंग व्यवस्था बदलने का काम होने जा रहा था तब गाड़ियों के संचालन का व्यवधान निपटने के लिये मुझे इन स्थानों पर एक एक हफ्ते से ज्यादा कैम्प करना पड़ा।
सबसे पहले अनास के पास मेघनगर में कैम्प करना पड़ा। अनास नदी पतली सी पर बहुत गहराई में बहती थी। इलाका भी आदिवासी था और गुजरात-राजस्थान के बार्डर पर था। मैं एक चार पहिये के सैलून में रहता था। यद्यपि काम में व्यस्त रहता था, पर विषमता के कारण जल्दी थक गया। मुझे याद है कि वहां से वापस आने पर मुझे एक दो दिन बुखार भी आया था।
मुझे वहां एक ही घटना याद है – अनास केबिन से रात में अकेले ही निकल गया था एक टार्च ले कर और मेरे पीछे दो सिपाही एक निरीक्षक महोदय के साथ भेजे गये थे। बताया गया कि यह भील आदिवासियों का क्षेत्र है और रात में अकेले निकलना निरापद नहीं है। सकुशल लौटने पर निरीक्षक महोदय ने मुझसे वचन लिया कि ऐसा एडवेंचर आगे नहीं करूंगा मैं!
पंचपिपलिया सुरंग के पास का प्रवास भी बहुत रोचक रहा; पर ज्यादा आनन्द आया भैरोंगढ़ में! भैरोंगढ़ माही नदी के किनारे स्टेशन है। माही नदी पर पुल से गुजरती है रेल पटरी। लगभग दस दिन वहां रहा था मैं। शाम के समय अकेले घूमने के लिये आस पास के पठारी क्षेत्र में निकल जाता था। नदी के पास तो बहुत ही आनन्द आता था। एक ओर माही में एक छोटी सी नदी – लाड़की – आकर मिलती थी। उस नदी के संगम पर बहुधा पंहुच कर मैं माही और लाड़की (छोटी सी लड़की जैसी नदी थी वह!) को निहारता था।
माही का पाट बहुत चौड़ा नहीं था। तल भी बालू वाला नहीं, पथरीला था। पुल के दूसरी ओर एक बांध/चेक डैम सा बना था, जिसे तोड़ कर माही नदी आगे बहती थी। वहां पानी पर्याप्त रुका था और लोग नहाते, मछली पकड़ते दीख जाते थे। नदी के किनारे बरगद और पीपल के पेंड़ थे। उनके झुरमुट में एक मन्दिर भी था। जमीन ऊबड़ खाबड़ थी। मृदा की बजाय कंकर-पत्थर ज्यादा थे उसमें। खेत के नाम पर आदिवासी पठार में मक्का बोते थे। आदिवासियों के घर छिटके हुये थे – दो घर कभी साथ साथ नहीं दिखे।
माही ने मुझे नदी का सौन्दय दिखाया। यद्यपि बड़ी नदियों के मुकाबले माही कोई उल्लेखनीय नदी नहीं है, पर महू/माण्डू के पास पश्चिम विन्ध्य के पठार से निकलने वाली यह नदी पूरब से पश्चिम को बहती है। बहुत कुछ ताप्ती और नर्मदा की तरह। अनास नदी भी आगे जा कर उसमें मिल जाती है। रतलाम के बाद बांसवाड़ा, राजस्थान से घुमावदार तरीके से गुजरने के बाद यह नदी लगभग 500-600 किलोमीटर की यात्रा तय कर गुजरात में खम्भात की खाड़ी में मिलती है समुद्र से। वडोदरा से अहमदाबाद जाते वासद के पास माही पर पुल मिलता है। वहां माही में बहुत विस्तार हो चुका होता है!
माही के सौन्दर्य के बाद रतलाम रेल मण्डल में रहते हुये मैने चोरल, नर्मदा, शिप्रा और कालीसिंध नदी के दर्शन किये। रतलाम महू खण्ड पर रेल की पटरी को चम्बल नदी काटती हैं तो उस समय उनका स्वरूप नाले से बड़ा नहीं है। पर नागदा के पास आते आते वे काफी विस्तार ले लेती हैं, यद्यपि उनमें पानी बरसात में ही देखने को मिलता है। यही चम्बल मैने बाद में कोटा के पास देखीं तो वृहदाकार हो गयी थीं।
नदियों से स्नेह मुझे रेल पटरियों के इर्दगिर्द ही हुआ। एक तरह से नदियाँ मुझे रेल लाइन सी दीखती हैं। इस देश में इधर उधर गुजरती हुईं और देश की लाइफलाइन सी – बहुत कुछ वैसे जैसे रेल है।
बट, इट ऑल स्टार्टेड विथ माही (लेकिन यह सब शुरू हुआ माही नदी से।)! अफसोस यह है कि उस समय मेरे पास कैमरा नहीं था। मात्र यादें हैं उस समय की, चित्र नहीं!

[माही नदी का यह चित्र विकीपेड़िया पर है। सम्भवत गुजरात का है।]
यह पोस्ट करने के पहले पत्नीजी ने पढ़ा। पहले तो कहा कि गंगा पर लिखते लिखते यह कहां पंहुच गये! फिर वे भी पुरानी यादों में खो गयीं। … समय कितनी जल्दी गुजरता है। कितनी जल्दी यादों की तहें जमा हो जाती हैं!


@ अफसोस यह है कि उस समय मेरे पास कैमरा नहीं था।
उस समय यह भी थोड़े मालूम था कि ब्लॉगिंग के ज़रिए अपने मन की बातें लिखा करेंगे। ऐसे बहुत से याद भरे अहसासों को जीने के लिए किसी तस्वीर की ज़रूरत भी नहीं है। यह विवरण ही चित्रमयी है। आपके साथ हम भी (और अन्य पाठक भी) कितनी यादों को जी आए हैं।
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माही से माँ गंगा तक एक अविरल अविराम यात्रा
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पोस्ट के मध्य तक पहुँचाने पर मैंने सोचा था की आपसे उन दिनों के फोटो पोस्ट करने के लिए कहूँगा, अंत में पता चल ही गया कि आपके पास उन दिनों कैमरा नहीं था.
नदियों और पुलों से गुज़रती रेल का अजब रोमांच है. उसकी गड़गड़ाहट बेमिसाल है. नीचे उथले पानी में चलते लोग मुझे जीवट से भरपूर लगते हैं. कभी लगता है उनका जीवन शानदार है, कभी कष्टप्रद लगता है.
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गंगा नहीं तो माही सही :) क्या वहाँ रवि रतलामी से मुलाकात हुई थी?
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रतलाम में रवि रतलामी का बिजली का दफ्तर मेरे घर से सट कर था। उनसे कभी मुलाकात नहीं हुई। ब्लॉग जो नहीं था तब!
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जब रेल कहीं जंगल पहाड़ वाले इलाके में खड़ी होती है, रात में सांय सांय की ध्वनि आती है तो घुप्प अंधेरे के बीच बरबस ही यह मन में आ जाता है कि इतने बियाबान में रेल की पटरी कैसे बिछाई गई होगी, वो लोग कैसे आते होंगे।
पटरी बिछाने को लेकर डिस्कवरी में एक बार कोई कार्यक्रम देख रहा था जिसमें बताया गया था कि भारतीय मजदूर जब अफ्रीका में पटरीयां बिछा रहे थे तब कइयों को शेर ने अपना शिकार बना लिया, कइयों को स्लीप सिंड्रोंम हो गया था….(अचानक नींद और बुखार) और कई विक्षिप्त हो गये थे। वो सब याद करके सचमुच उन कर्मचारियों के प्रति आदर भाव बढ़ जाता है।
आपका यह संस्मरण कुछ कुछ उसी तरह के रोमांचक हिस्से की तरह लगा।
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मेरी याददाश्त बहुत अच्छी नहीं है, अन्यथा थोड़ा जोड़ घटा कर एक अर्थर हेली छाप थ्रिलर बन जाये! :-)
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याददास्त अच्छी न होना तो और सहायक होगा ज्ञानदत्त पाण्डेय छाप थिलर लिखने में। यादों का धुंधलापन कल्पना शक्ति को और मौके देगा। लिखना शुरू कीजिये। जो होगा देखा जायेगा। :)
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बहुत सुन्दर संस्मरण!
हजार पोस्ट होने की बधाइयां।
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इस हजार ने बहुत समय खाया है। और पहले यह ऑफशूट सा लगता था, अब यह वैल्यूयेबल लगने लगा है कुछ कुछ!
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सड़क और रेल मानव निर्मित तो नदियां प्रकृति का मार्ग है.
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…मुझ जैसे यात्री को बस रेल की कमियां दिखाई देती हैं यह दिखाई नहीं देता कि महल के कंगूरों से नीचे कहीं नींव में आज भी इंटे लगी हुई होंगी. सुंदर.
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Great writing! Dhyanwad.
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रेलवे ने प्रकृति से प्रेम करना सिखा दिया। जंगलों और नदियों को अंगीकार करती हुयी ट्रेन इंजन में यात्रायें एक रोमांच जगा लाती हैं स्मृतियों का। माही से गंगा तक का एक संस्मरण अवश्य लिखें।
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