मैं, ज्ञानदत्त पाण्डेय गाँव विक्रमपुर, जिला भदोही, उत्तरप्रदेश (भारत) में रह कर ग्रामीण जीवन जानने का प्रयास कर रहा हूँ। रेलवे के विभागाध्यक्ष के पद से रिटायर रेलवे अफसर।
Author: Gyan Dutt Pandey
Exploring village life.
Past - managed train operations of IRlys in various senior posts. Spent idle time at River Ganges.
Now reverse migrated to a village Vikrampur (Katka), Bhadohi, UP.
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गांव उतना जीवंत नहीं रहा, जितना कल्पना में था। पर फिर भी बेहतर है। बहरहाल कबाड़ बीनक बच्चे, कबाड़ी साइकिल वाले और कबाड़ कलेक्शन केंद्र भविष्य में बढ़ेंगे। अर्थव्यवस्था दहाई के अंक में आगे बढ़ेगी तो कबाड़ तो होगा ही!
साल भर में दो किलोमीटर की परिधि में मैंने दो नये कबाड़ कलेक्शन केंद्र खुलते पाया है। सवेरे सवेरे कबाड़ बीनक बच्चे दिख गये। पहले नहीं दिखते थे। उनके साथ दो कुकुर भी चल रहे थे। पैरों में चप्पल नहीं। मास्क जैसी चीज की अपेक्षा क्या की जाये?!
कबाड़ बीनने वाले बच्चे
कबाड़ी वाले सवेरे सवेरे ही चक्कर लगाने लगते हैं। जो कहावत है कि Early bird gets the worm, उसी की तर्ज पर कहा जा सकता है ‘अर्ली कबाड़ी गेट्स द कबाड़’।
मेरी ब्लॉगिंग के शुरुआती साल की एक पोस्ट है – चिंदियाँ बीनने वाला। तेरह साल हो गये उसे लिखे/पब्लिश किये। वह शहरी माहौल की पोस्ट थी। कृपया देखने का कष्ट करें।
अच्छा है कि गांवदेहात में भी कबाड़ बढ़ रहा है। समाज रूरल से रूरर्बन (rural-urban) बन रहा है। पर कहीं कहीं यह कचोटने भी लगता है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था में कुछ भी फालतू नहीं हुआ करता था। कपड़ा-साड़ी घिसे तो उनकी कथरी-लेवा बन जाते थे। ज्यादा ही तार तार हो गये तो उनसे झाड़न या पोछा बन जाता था। उसका चलन अब कम हो गया है। महिलायें कथरी-लेवा सिलते नहीं दिखतीं।
अब प्लास्टिक आने से यह इनहाउस रीसाइकलिंग खत्म हो गया है। अब बच्चे – कबाड़ बीनक बच्चे नहीं, घरों के सामान्य बच्चे – प्लास्टिक की बोतल बीन कर कबाड़ी वाले को देते हैं और बदले में वह उन्हे एक पुपुली (चावल का कुरकुरे नुमा खाद्य) पकड़ा देता है।
प्लास्टिक का कबाड़ बढ़ रहा है। सिंगल यूज प्लास्टिक गड़ही-तालाबों को बरबाद कर रहा है। पानी नहाने धोने और पीने लायक नहीं बचा। अब गांवों में भी बीस लीटर के पानी के जार ले कर आती पिकअप गाड़ियाँ सवेरे सवेरे चक्कर लगाती दिखती हैं। थर्मोकोल के दोना पत्तल इधर उधर बिखरे दिखते हैं और अंतत: उन्हे कोई आग लगाता है। धुंये का प्रदूषण गेंहू की कटाई और थ्रेसिंग की धूल में घुल मिल जाता है।
गांव उतना जीवंत नहीं रहा, जितना कल्पना में था। पर फिर भी बेहतर है। बहरहाल कबाड़ बीनक बच्चे, कबाड़ी साइकिल वाले और कबाड़ कलेक्शन केंद्र भविष्य में बढ़ेंगे। अर्थव्यवस्था दहाई के अंक में आगे बढ़ेगी तो कबाड़ तो होगा ही!
घाघ केवल गांव में रहने वाले अनाम से जन कवि नहीं थे। वे हुमायूं और अकबर से मिले थे। अकबर ने प्रसन्न हो कर उन्हे कई गांव और चौधरी की उपधि दी थी। उन्होने कन्नौज के पास “अकबराबाद सराय घाघ” नामक गांव बसाया।
घाघ और भड्डरी पर सन 1931 में रामनरेश त्रिपाठी जी ने संकलन प्रकाशित किया। उसके मुखपृष्ठ पर ही यह पद है – उत्तम खेती मध्यम बान; निखिद चाकरी भीख निदान।
इण्टर्नेट-आर्काइव-डॉट-ऑर्ग पर उपलब्ध 255 पेज की इस पुस्तक के प्रारम्भ में ही स्पष्ट हो जाता है कि घाघ हुमायूँ और अकबर के समकालीन थे। वे छपरा के रहने वाले थे – देवकली के दूबे। किसी कारण वश (कहा है कि अपनी पुत्रवधू से उनकी कवित्त रचनाओं पर नोकझोंक होते रहने के कारण) वे अपनी ससुराल कन्नौज आ कर रहने लगे।
घाघ और भड्डरी – रामनरेश त्रिपाठी
घाघ केवल गांव में रहने वाले अनाम से जन कवि नहीं थे। वे हुमायूं और अकबर से मिले थे। अकबर ने प्रसन्न हो कर उन्हे कई गांव और चौधरी की उपधि दी थी। उसके साथ ही घाघ ने कन्नौज के पास “अकबराबाद सराय घाघ” नामक गांव बसाया। जो कालांतर में “चौधरी सराय” कहलाया। सन 1931 की पुस्तक में त्रिपाठी जी ने लिखा है कि गांव का नाम सरकारी कागजात में “सराय घाघ” ही है।
घाघ का कहना बढ़िया था। घाघ का युग उनके “अकबराबाद सराय घाघ” बसाने से ले कर आज के जमाने में सन 1960 तक चला। अब घाघ2.0 या घाघ3.0 संस्करण की आवश्यकता है।
इस पुस्तक के प्रारम्भ में दी गयी घाघ की संक्षिप्त जीवनी से घाघ के विषय में कई जिज्ञासायें शांत हो जाती हैं। बहरहाल घाघ की उक्त कहावत के कारण ही मैने घाघ के बारे में यह जानने का उपक्रम किया। अन्यथा घाघ को मैं मिथक चरित्र ही मानता था।
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मेरे तरह वानप्रस्थाश्रम में जीवन यापन कर रहे दो गांवदेहात के मित्र – रवींद्रनाथ दुबे और गुन्नीलाल पाण्डेय पास बैठे थे रवींद्रनाथ जी के डेरा पर। वे दोनों अपने जमाने में किसानी (जमींदारी) के रुआब रुतबे की बातें बता रहे थे। उस समय नौकरी पाना आसान था। एक सादे कागज पर “चुटका” लिखवा कर प्राइमरी की मास्टरी मिल जाया करती थी। पर तब कहावत हुआ करती थी – “करें मास्टरी दुई जने खाईं लरिका होई ननियऊरे जाईं“। नौकरी आसानी से मिल जरूर जाती थी, पर नौकरी की इज्जत वह नहीं थी जो आज है।
रवींद्रनाथ जी के घर पर वे (बांये) और गुन्नीलाल
लिहाजा जमींदारी किसानी की ऐंठ में रहने वाले कई लोगों ने नौकरी करना अपमान की बात समझी। पर; बकौल गुन्नीलाल जी, पास के लक्षमणा और चौबेपुर के कई लोग मास्टरी पा गये। आज वे रिटायर हो कर अपनी पेंशन पर आनंद से रह रहे हैं और उनकी अगली पीढ़ियाँ भी उसी की बदौलत सम्पन्न हो गयी हैं। चौबेपुर गांव को तो लोग उसकी सम्पन्नता के आधार पर मिनी-अमेरिका कहते हैं; यद्यपि थोड़ी सी जमीन पर ही ढेरों घर बसे हैं। … उसके विपरीत, जमींदारों की अकड़ ढीली होती गयी है।
रवींद्रनाथ जी ने बताया कि उस समय घाघ की कहावत अनुसार खेती का सब से ज्यादा रुतबा था। लोग नौकरी को अपने आत्मसम्मान और अपनी ‘फ्रीडम’ में बाधक मानते थे। बहुत नौकरी पाने पर भी नौकरी करने गये नहीं या जा कर कुछ समय में उकता कर वापस चले आये। उस समय खेती के बाद वाणिज्य दूसरे नम्बर पर आता था। उसके बाद नौकरी और अंत में भिक्षा। अब जमाना बदल गया है। अब खेती रिम्यूनरेटिव नहीं रही। जमींदार जमीन बेच रहे हैं। खुद खेती करने की बजाय एब्सेण्टी लैण्डलॉर्डिज्म का सहारा ले रहे हैं। मुख्य उद्यम के रूप में या तो नौकरी तलाश रहे हैं या वाणिज्य में जोर अजमाईश कर रहे है। वह सब न होने पर नेतागिरी में घुसने का प्रयास कर रहे हैं – जो हाई रिस्क हाई गेन का फील्ड है। राजनीति में अब गांव पंचायत से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक सम्भावनायें हैं।
घाघ का कहना बढ़िया था। घाघ का युग उनके “अकबराबाद सराय घाघ” बसाने से ले कर आज के जमाने में सन 1960 तक चला। अब घाघ2.0 या घाघ3.0 संस्करण की आवश्यकता है।
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फिलहाल आप इण्टर्नेट आर्काइव के उक्त लिंक से रामनरेश त्रिपाठी जी की सन 1931 की पुस्तक को डाउनलोड कर घाघ और भड्डरी के कवित्त का आनंद ले सकते हैं। मैंने तो पुस्तक को किण्डल पर सहेज लिया है। और किंडल को लैंडस्केप मोड में पढ़ने पर किताब के अक्षर अधिक मोटे और सुपाठ्य दिखते हैं! 😆