मैं, ज्ञानदत्त पाण्डेय गाँव विक्रमपुर, जिला भदोही, उत्तरप्रदेश (भारत) में रह कर ग्रामीण जीवन जानने का प्रयास कर रहा हूँ। रेलवे के विभागाध्यक्ष के पद से रिटायर रेलवे अफसर।
नन्हकी संतोषी जीव नहीं है। जो उसे मिलता है, उसे हमेशा कम बताती है। कुछ और या किसी और चीज की मांग करती है। जल्दी हिलती नहीं। हार कर उसे “कुछ और” दिया जाता है।
सवेरे घूम कर घर लौटा तो देखा वह बैठी थी। बुढ़िया है। लाठी टेकती आती है। पास के गांव पठखौली की है। उसे दिखता भी कम है और सुनाई तो लगभग पड़ता ही नहीं। इन दोनो कमियों की भरपाई वह अनवरत बोल कर करती है।
होली के बिहान से नन्हकी आयी थी
दो-तीन महीने में एक बार चली आती है। कुछ अनाज और पैसे की मांग करती है। उससे पूछना कठिन है – सुनती नहीं।
वह हर बार मेरी पत्नीजी को यह बताती है कि बचपन में उन्हें गोद में खिला रखा है। वह अपना हाथ उठा कर बताती है – “तूं हेतना बड़ क रहू, तब से खेलाये हई (तुम इतनी बड़ी थी, तब से खिलाया है)।”
“तूं हेतना बड़ क रहू, तब से खेलाये हई (तुम इतनी बड़ी थी, तब से खिलाया है)।”
पत्नीजी को उसकी कोई पुरानी स्मृति नहीं है। पर उसके कहे को वे सच मान लेती हैं। उसे कुछ न कुछ देती हैं। पर नन्हकी संतोषी जीव नहीं है। जो उसे मिलता है, उसे हमेशा कम बताती है। कुछ और या किसी और चीज की मांग करती है। जल्दी हिलती नहीं। हार कर उसे “कुछ और” दिया जाता है। कई बार फिर भी वह नहीं जाती तो उसकी उपेक्षा की जाती है। अंतत: चली जाती है। मांगने में जिस धैर्य और जिस पर्सिस्टेंस (persistence) की जरूरत होती है, वह उसमें है। नन्हकी एक कुशल मंन्गन (भीख मांगने वाली) है।
नोट खतम हो गये थे तो उसे चिल्लर में दिये। वे पैसे उसने ध्यान से गिने।
आज उसे होली की गुझिया दी। साथ में पच्चीस रुपये। घर में छोटे नोट खतम हो गये थे तो उसे चिल्लर में दिये। वे पैसे उसने ध्यान से गिने। एक रुपये और दो रुपये के सिक्के एक जैसे होते हैं। उन्हे ध्यान से देखना होता है। नन्हकी ने वह भी किया। यह स्पष्ट हुआ कि पैसे गिनना और जोड़ना उसे बखूबी आता है।
पैसे गिनने पर उसने असंतोष व्यक्त किया। अंतत: उसे दस रुपये और दिये गये। फिर उसने दाल की मांग की। उस मांग को अनसुना किया गया। बताया गया कि अभी दाल नहीं है। फिर कभी आना। यह उसने सुना नहीं। पर समझ आ गया कि आज जितना मिला है, उससे ज्यादा मिलने वाला नहीं।
नन्हकी
उसके बारे में पता किया। घर बार है उसका। वह “राधे की माई” है। बच्चे हैं। कमाते हैं, वैसे ही जैसे गांवदेहात के और दलित कमाते हैं। घर की आर्थिक दशा खराब नहीं है। कमजोर है – पर उतनी जितनी औरों की है। पेंशन आदि पाती होगी। अभी उसका प्रधानमंत्री आवास योजना में आवास स्वीकृत हुआ है और मकान बन भी रहा है।
नन्हकी दबंग है। अपनी और औरों की समस्या ले कर तहसील, बैंक आदि जगह चली जाती है। किसी अधिकारी या पुलीस वाले से बात करने में उसे कोई हिचक नहीं। “दरोगा हमार का कई ले (पुलीस मेरा क्या कर लेगी?!)।” – ऐसा कहती है (लोगों ने बताया)।
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राजकुमार (मेरे घर में काम करने वाली कुसुम का पति) बताता है कि ‘नन्हकी मावा’ को मांगने की जरूरत नहीं है। वह मांगती इसलिये है कि मांगना उसकी आदत बन गयी है।
नन्हकी जैसे चरित्र गांवदेहात में (और शहरों में भी) बहुत हैं। भारत भिक्षा प्रधान देश है। मांगने और देने वाले अभी तो प्रचुर संख्या में हैं, बावजूद इसके कि सामाजिकता की कसौटियां बड़ी तेजी से बदल रही हैं।
जो धर्म कर्म शेष है, उससे नन्हकी जैसों की जिंदगी तो कट ही जायेगी।
बहुत दिनों बाद समय मिला ब्लॉग पढ़ने को। नन्हकी जैसी महिलाएं हर गांव में मिल ही जाती हैं जिनका गुजारा भिक्षा यापन से चलता है।मैं लगभग बीस साल से यहां हूँ। सिर्फ 2 महिलाएं आती थी भिक्षा मांगने,वो भी सिर्फ सोमवार को।उनकी मृत्यु के बाद यहां कोई नही आता भिक्षा के लिए।
Look at little amount she is asking .. this is her way of socializing . If no excuse of asking, why go around other ppl home – I think you should feel indebted that you have a chance to help out someone , kids in big cities spend 200-500/- in one shop in one hour.
बंसी कलकत्ता में सम्भवत: ड्राइवर थे। बंगाल में कहीं वे शांति के सम्पर्क में आये होंगे और उनसे विवाह कर अपने गांव वापस लौटे। गांव में उन्हे स्वीकार नहीं किया गया। तब बंसी के मामा, बद्री साधू ने उन्हें अपने यहां आश्रय दिया।
तीन दिन वे नहीं दिखी थीं। और मेरे मन में कुछ होने लगा था। बुढ़िया, अशक्त और कोई पुख्ता सोशल सिक्यूरिटी नहीं। कहीं कुछ हो न गया हो।
परसों सड़क के दूसरी ओर के किराना दुकानदार से उनके बारे में रुक कर पूछा भी था।
शांति देवी (ब्लॉग – https://t.co/iLlIbZEZbK) दो दिन से अपने स्थान पर बैठे नहीं दिख रहीं। वर्ना रोज सवेरे उन्हे देखता था दूध लेते आते जाते। पड़ोस की दुकान वाले ने बताया, घर में ही हैं, अंदर। फिर जोड़ा – अब पौरुख(क्षमता) नहीं है उनमें। बुढ़ापा व्यक्ति को फेड-आउट कर देता है! 😒 pic.twitter.com/k98DgQLTw4
— Gyandutt Pandey ज्ञानदत्त पाण्डेय (@GYANDUTT) March 13, 2021
शांति को बंगाल से बंसी साथ ले कर आये थे। विवाह कर ही लाये थे। पर उनके गांव के ब्राह्मण समाज ने (शायद) विजातीय या विप्रांतीय महिला/किशोरी को ले कर आना स्वीकार नहीं किया। तब बंसी के मामा, बद्री साधू ने उन्हे अपने घर यहां इस गांव में आश्रय दिया। यहां भी शायद कुछ सामाजिक अनिच्छा रही हो; पर वे यहीं रम गयीं।
बद्री साधू
बद्री साधू के बारे में रवींद्रनाथ जी ने बताया कि वे बहुत आकर्षक व्यक्तित्व वाले व्यक्ति थे। शुरुआत में वे साधू हो कर अयोध्या चले गये थे। शायद वैराग्य में कुछ मन नहीं रमा, या शायद उन्हे पता चला कि चकबंदी के बाद उन्हें जमीन मिलने वाली है, वे वापस गांव लौट आये। उनका लौटना कुछ लोगों को पसंद नहीं आया। विशेषकर उन लोगों को, जिन्हे उनके न रहने से जमीन मिल जाती। उन्होने बद्री को बद्री मानने से इनकार कर दिया। पर बद्री अपनी पहचान, और लोगों की गवाही से, स्थापित करने में सफल रहे। इस पूरे प्रकरण के बाद वे आजीवन अविवाहित रहे।
बद्री साधू – इसी नाम से वे जाने जाने लगे। वे रामचरित मानस के अच्छे पाठक थे। अन्य ग्रंथों पर भी उनकी अच्छी पकड़ थी। नौजवान लोग, जिनमेंं रवींद्रनाथ भी थे, उनके पास समय व्यतीत करने में रस पाते थे। बद्री साधू अपना भोजन एक ही बार बनाते थे। सादा भोजन – भात, दाल, चोखा। भोजन बनाते जाते थे और नौजवान मण्डली का मानस उच्चारण भी सुनते जाते थे। बीच बीच में, गलत उच्चारण होने पर हस्तक्षेप भी करते थे।
बद्री साधू की धार्मिकता का उनकी वेश-भूषा से भी लेना देना था। चौड़ा ललाट था। शरीर भी स्वस्थ। साफ कपड़े पहनते थे और मेक-अप में भी उन्हे घण्टा भर लगता था। उनके आकर्षक व्यक्तित्व और वजनदार आवाज का लोगों पर बहुत प्रभाव पड़ता था।
मेरी पत्नीजी की भी बद्री साधू के बारे में यादें हैं। उनके बचपन में बद्री के घर की ओर जाने की मनाही थी, पर वे बच्चे किसी प्रकार निकल कर पंहुच ही जाते थे। साफ सुथरा कमरा हुआ करता था बद्री साधू का। वहां गुड़-पानी और अन्य कुछ भी खाने को मिल जाता था। बद्री ने कुछ बाग-बगीचा भी लगाया था। कुल मिला कर बद्री साधू के घर जाना अच्छा लगता था उनको।
और, सब जगह से बहरियाये गये बंसी तथा उनकी पत्नी शांति को बद्री साधू ने ही शरण दी थी।
बंसी और शांति
बंसी कलकत्ता में सम्भवत: ड्राइवर थे। बंगाल में कहीं वे शांति के सम्पर्क में आये होंगे और उनसे विवाह कर अपने गांव वापस लौटे। गांव में उन्हे स्वीकार नहीं किया गया। तब बंसी के मामा, बद्री साधू ने उन्हें अपने यहां आश्रय दिया। पर्सनालिटी बंसी की भी आकर्षक थी और शांति भी सुंदर थीं। बंगला किशोरी पूर्वी उत्तर प्रदेश के वातावरण को समझती नहीं थी।
मेरी पत्नी जी अपने बचपन की शान्ति के बारे में उस समय के अपने एक हम उम्र बालक का कहा याद करती हैं। उसने बताया था – “अरे वह कछाड़ मार कर (अपनी साड़ी कमर तक लपेट कर) पोखरा (तालाब) में झम्म से छलांग लगाती है और हम लोगों से कहती है – आओ, तुम भी आओ, तैरो!” निश्चय ही, गांव के बच्चों के लिये किसी विवाहित महिला का ताल में यूं नहाने के लिये कूदना और तैरना एक अजूबा था।
शांति गांव की सामाजिक व्यवस्था के लिये एक बड़ा विघटक तत्व थीं! और शायद अब भी हैं।
कालांतर और वर्तमान
शांति बैठी थीं आज अपनी जगह पर
रवींद्रनाथ जी बताते हैं कि उसके बाद वे गांव में नहीं रहे। अपनी आजीविका के सम्बंध में बम्बई शिफ्ट हो गये। गांव में उनका आना जाना कम होता गया। उसके बाद बद्री साधू भी चल बसे। अब रवींद्रनाथ मेरी तरह रिटायर हो कर गांव में रमने – रहने आये हैं। उनके पास बहुत यादें हैं #गांवदेहात की। मीठी-खट्टी सब प्रकार की!
अपने बगीचे में सवेरे श्रम करते रवींद्रनाथ दुबे और उनकी पत्नी जी।
जितना आकर्षक उनका यौवन और अधेड़ावस्था थी, उतना ही दारुण उनका बुढ़ापा था। मैले कुचैले वस्त्रों में बैठे रहते थे। शांतिं जबान की तेज थीं। बंगला-हिंदी-भोजपुरी के बीच अच्छा तालमेल भी नहीं था। बद्री साधू को सधुय्या – सधुय्या कह कर सम्बोधित करती थीं, जो शायद उनका आशय नहीं था, पर वृद्ध बद्री के प्रति हिकारत दर्शाता सा प्रतीत होता था। फिर बंसी भी नहीं रहे। शांति के लड़के विरासत सम्भालने के बारे में कच्चे साबित हुये। … कुल मिला कर शांति का वर्तमान जो है, वह सामने दीखता है।
चार दिन पहले शांति देवी बैठी थीं उसी स्थान पर। उनकी गोद में एक जलेबी का प्लास्टिक का थैला था। कोई दे गया होगा। वह जलेबी खा रही थीं। उसके बाद तीन दिन वे दिखी नहीं। पड़ोस के दुकानदार ने बताया था कि घर में ही हैं। अब पौरुख नहीं है उनमें। बहत्तर-पचहत्तर की उम्र होगी। सुन लेती हैं पर आवाज बहुत कम निकलती है। अंग लकवा मारने के कारण शिथिल हैं। बुढापा दबोच रहा है। बुढापे के समय आर्थिक पुख्तापन कुछ सहायता करता है। शांति के पास वह भी नहीं है। रवींद्रनाथ बताते हैं कि उनका बेटा शांति की दशकों तक मदद करता रहा है। अब भी करता ही होगा। रवींद्रनाथ स्वयम उनके लिये हृदय में कोमलता रखते हैं।
पर अपनी जरावस्था तो शांति देवी को स्वयम ही काटनी है। … स्वर्गारोहण में तो अंतत: श्वान (स्वधर्म) ही साथ बचता है।
खैर, आज शांति देवी अपने स्थान पर बैठे दिखीं और उन्होने धीरे धीरे हाथ उठा कर मुझे नमस्कार किया। उनका उत्तर देते समय मुझे सुकून हुआ। … शांति का जीवन शांतिमय हो और हम उनके लिये, जो यथायोग्य सम्भव हो, कर सकें; यही सोचता हूं!
जाने कितनी योजनायें आयीं। आवास की योजना, शौचालय की योजना, सोलर लाइट की योजना। उन सब योजनाओं ने भी इस महिला को नहीं छुआ। … मेरी पत्नीजी इस को गरीब सवर्ण की सामान्य उपेक्षा का उदाहरण मानती हैं।
अशोक (मेरा वाहन चालक) बताता है कि उनका नाम शांति है। वे रोज सवेरे मुझे सड़क के किनारे यूं एक कुर्सी पर बैठे नजर आती हैं। मेरी पत्नीजी का कहना है कि उन्हें शायद लकवा का अटैक हुआ था। अब बेहतर हैं पर बोल नहीं पातीं। सुन लेती हैं। इशारों से बात करती हैं। गली की सड़क के किनारे बैठने पर आते जाते लोगों को देखना शायद अच्छा लगता हो।
गांव की ब्राह्मण बस्ती में शायद अगर किसी को मदद की सख्त जरूरत है तो उन्हें है। गांव मदद करता है, या नहीं, मैं नहीं कह सकता। इस प्रकार के वृद्ध लोगों की सहायता के लिये एक सामुहिक फण्ड होना चाहिये। सभी परिवार उसमें मासिक योगदान दें और उससे एक समिति तय करे कि किन व्यक्तियों को मासिक सहायता दी जाये। लोग भोज और समारोह में अनाप शनाप खर्च कर देते हैं, पर इस तरह के काम के लिए नहीं।
ब्राह्मणों में वृद्धों और उनमें विशेषत: महिलाओं की दशा दयनीय है। वृद्ध अशक्त होते ही उपेक्षित होने लगते हैं। महिलायें तो और भी। शांति, या जो भी नाम है उनका, और भी अशक्त, और भी उपेक्षित नजर आती हैं मुझे।
शांति
मैं उन्हे रोज सवेरे साढ़े सात बजे इस तरह बैठे देखता हूं। आजकल मेरी नित्य की क्रिया में पण्डित देवेंद्रनाथ जी के अहाता में गाय का दूध लेने जाना होता है। और हर दिन वे मुझे इसी मुद्रा में बैठी दिखती हैं। पूर्व की ओर से मुंह पर आती रोशनी से उनके मुंह का दांया भाग चमकता है। मुंह पूरी तरह सममित है – well proportioned. यौवनावस्था में सुंदर रही होंगी। अब तो देख कर करुणा का भाव ही आता है।
वे अपने हाथ जोड़ कर मुझे नमस्कार करती हैं। मैं उसका उत्तर देता हूं। और उत्तर देते समय हमेशा मेरे मन में आता है कि उनकी सहायता करनी चाहिये। मेरी पत्नी जी कहती हैं कि उनके घर में मुख्य कमरा – बद्री साधू का कमरा – तो खण्डहर हो गया है। इनके पति बंसी के मामा थे बद्री। बंसी अपने मामा के यहां आ कर रहे। अब बद्री नहीं हैं, बंसी भी नहीं हैं। बंसी के दो बेटे विरासत ठीक से संभाल-संवर्धन नहीं कर पाये।
इस गांव में पंचायती प्रधानी कम से कम पच्चीस साल से सवर्णों के पास रही। जाने कितनी योजनायें आयीं। आवास की योजना, शौचालय की योजना, सोलर लाइट की योजना। उन सब योजनाओं ने भी इस महिला को नहीं छुआ। … मेरी पत्नीजी उस सब को सवर्ण वर्ग की सामान्य उपेक्षा का उदाहरण मानती हैं। सवर्ण अपनी गरीबी और बदहाली को भुनाने में संकोच करता है तो उसे योजनाओं का लाभ कम ही मिलता है।
मेरे पास उनके बारे में बहुत जानकारी नहीं है। हमारी ओर से कोई विशेष पहल भी नहीं है। मैं अपनी पेंशन में अपने परिवार को पालते हुये थोड़ी बहुत सहायता, जो कर सकता हूं, उससे आगे नहीं सोचता। या सोचता भी हूं तो वह मात्र मानसिक मंथन भर है। मैं पूरी तरह अपने को सामाजिक ताने बाने में उलझाने से या गांव की जिंदगी में परिवर्तन की कोई कोशिश नहीं करता। मुझे लगता है रिटायरमेंट मेरे व्यक्तिगत सुकून से जीने और अपनी जिंदगी को अपनी सीमित रचनात्मकता में रमाने का अवसर है। और मुझे पुन: राजसिक वृत्तियों में नहीं उलझाना चाहिये।
पर तब, रोज सवेरे यह महिला दिखती है। उनकी धीरे से हाथ उठा कर नमस्कार करने की मुद्रा सामने आ ही जाती है। मैं उसका उत्तर देते हुये चलता चला जाता हूं। सोचने जरूर लगता हूं मैं।
रघुनाथ पांड़े कहते हैं – मर जाने पर पूरा इत्मीनान कर लेना। डाक्टर से भी पूछ लेना। कहीं ऐसा न हो कि जान बची रहे। एक चिनगारी छू जाने पर कितना दर्द होता है। पूरी देह आग में जाने पर तो बहुत दर्द होगा। … न हो तो बिजली वाले फ़ूंकने की जगह ले जाना।
ऐसा नहीं है कि रघुनाथ पांड़े जी अभी मृत्यु की सोचने लगे हैं। पिछ्ले साढ़े तीन साल से तो मैं देखता/सुनता ही रहा हूं उनका यह मृत्यु-पुराण। एक पोस्ट और फेसबुक नोट्स पर है इस विषय में। देर सबेर उसे भी ब्लॉग पर सहेजूंगा। फेसबुक की “कांइया” नीति ने फेसबुक नोट्स गायब जो कर दिये हैं!
वह अक्तूबर 2018 की पोस्ट फेसबुक नोट्स आर्काइव्स से खींचतान कर निकाली है और नीचे प्रस्तुत है। यह पोस्ट आपको उम्र मेें नब्बे पार के एक व्यक्ति से परिचय कराती है; जो वैसे स्वस्थ है, पर देर सबेर होने वाली मृत्यु के बारे में सोचता रहता है।
मेरे मित्र गुन्नीलाल पांडे के पिता श्री रघुनाथ पाण्डेय। नब्बे प्लस की अवस्था। सब ठीकठाक है, पर मृत्यु से भय की बात हमेशा करते रहते हैं।
उन्होने बेटे से कहा – मुझे जरा लोरी जैसा सुनाया करो, जिससे नींद ठीक से आ जाये। “कौनों भूत जईसा बा सरवा, जेसे डर लागथअ। देखात नाहीं, पर बा। (कोई भूत जैसा है। दिखता नहीं पर भय लगता है उससे। लगता है कि है।)”
श्री रघुनाथ पाण्डेय।
मृत्यु की सोच बड़ी कारुणिक है उनकी….
कहते हैं – मर जाने पर पूरा इत्मीनान कर लेना। डाक्टर से भी पूछ लेना। कहीं ऐसा न हो कि जान बची रहे। एक चिनगारी छू जाने पर कितना दर्द होता है। पूरी देह आग में जाने पर तो बहुत दर्द होगा। … न हो तो बिजली वाले फ़ूंकने की जगह ले जाना।
यह कहने पर कि बिजली वाला शवदाह तो बनारस में है, वे बोले – “तब यहीं ठीक रहेगा। आखिर मरने पर शव यात्रा में काफ़ी संख्या में लोग तो होने चाहियें। इतने लोग बनारस तो जा नहीं सकेंगे।”
हर आये दिन घर और पट्टीदार लोगों को बुलाते हैं – अब हम जात हई (अब मैं जा रहा हूं। कल शायद नहीं रहूंगा)। सब को हाथ जोड़ते हैं। अगले दिन फिर चैतन्य हो कर गांव में घूमते नजर आते हैं।
रघुनाथ पांड़े जी
कुछ दिन पहले जिऊतिया के समय उन्होने कहा कि उनकी तबियत ठीक नहीं है। बुखार है। डाक्टर के पास ले चला जाये उन्हें। संजय (उनके पोते) ने देखा तो बुखार नहीं था। उन्हें बताया गया कि आज दवा ले लें। घर में स्त्रियां जिऊतिया का निर्जल व्रत हैं। ऐसे में उन्हें ले कर अस्पताल जाना असुविधाजनक होगा। उन्हें दवा दी। दो घण्टे बाद अपने को ठीक महसूस करने लगे| उस प्लेसबो के मुरीद हो गये वे। बार बार वही दवा मांगने लगे। पेरासेटमॉल की गोली बहुत काम की निकली।
मुझे लगता है कि स्वास्थ्य के आधार पर अभी वे 4-5 साल तो चलेंगे ही। वैसे यह मृत्यु-पुराण पिछले दो साल से तो मैं सुन रह हूं। उसके पहले भी अपने परिवार में कहते रहे होंगे।
(गुन्नीलाल पाण्डेय बताते हैं कि सन 2014-15 से मृत्यु के बारे में सोचने-बोलने, अपना स्वास्थ्य खराब होने, दिल घबराने आदि की बातें करने लगे हैं। कुटुम्ब में उनसे उम्र में किसी छोटे की मृत्यु हो गयी थी। उसके सदमे में उन्हे लगा कि उनकी भी तबियत बिगड़ गयी है। वे भी जाने वाले हैं। लोग उस समय शवदाह के लिये गंगा घाट पर थे। गुन्नीलाल पिता की तबियत बिगड़ने की खबर पा कर घर वापस लौटे। सिवाय सदमे के बाकी सब ठीक था उनके साथ। दो घण्टे बाद सामान्य हो गये। पर उसके बाद से अपनी मृत्यु के बारे में बातें करने लगे हैं।
वैसे, गुन्नीलाल कहते हैं कि उनके पिताजी “मरना कत्तई नहीं चाहते”!)
सरल व्यक्ति हैं रघुनाथ पांडे और पिता/बाबा की पूरे मना से सेवा करने वाले हैं गुन्नी/संजय और उनका परिवार।
भगवान करे, रघुनाथ पांड़े शतायु हों!
यह पं. रघुनाथ पाण्डेय का ताजा चित्र है। वे धूप में बैठने के लिये अपनी खाट खुद घसीट कर ला रहे हैं। उन्हे देख कर नहीं लगता कि वे अस्वस्थ हैं।
रघुनाथ पांंड़े मुझसे बताते हैं – “ई जरूर बा कि ऊ धर्मराज क दूत रहा।” उनके अनुसार स्वर्ग के दूत सफेद कपड़े में गौर वर्ण के होते हैं। यमराज के दूत काले, मोटे और बदसूरत होते हैं।
जिस तरह से बताते हैं अपने बचपन की बातें; उसके अनुसार रघुनाथ पांड़े जी सन 1927 के आसपास की पैदाइश होंगे। अब नब्बे पार की उम्र। उस उम्र के हिसाब से पूरी तरह टनमन हैं। घर में, आसपास और सौ दो सौ मीटर के दायरे में खूब घूमते मिलते हैं। बोलते हैं कि आंख से कम दिखता है। पर उनके पुत्र गुन्नीलाल जी आंख टेस्ट करवा कर डेढ़ हजार का चश्मा ले आये तो वह इस्तेमाल नहीं करते। चश्मा से उलझन होती है। धुँधला ही सही, सब देख लेते हैं।
कहते हैं कि कान से सुनाई कम देता है; पर बकौल गुन्नी पांड़े; अपने काम की हर बात सुन लेते हैं।
रघुनाथ पाण्डेय जी
हर बार मिलने पर चहुचक मिलते हैं, इधर उधर की सब बातेँ प्रेम से करते हैं। पर उनका हालचाल पूछने पर लटक जाते हैं। “हाल त ठीक नाहीं बा। हमार जियई घबरात रहथअ। अब न जियब। (हाल ठीक नहीं है, मेरा जी घबराता है। अब नहीं जियूंगा)” उन्हे ऐसा कहते तीन चार साल से देख रहा हूं। एक आध बार उनकी तबियत उन्नीस बीस हुई है, पर बाउंस बैक कर गये हैं।
“मोट क रहा। माने हृष्टपुष्ट। उज्जर कपड़ा पहिरे रहा। गोर रहा। करिया भुजंग नाहीं। हम त जचकि गये। गोहरावा – के आ हो! बोले पर पराइ गवा। दूर से ताकत रहा। ”।
पं. रघुनाथ पांड़े
अभी चलेंगे पण्डित रघुनाथ पाण्डेय!
तीन दिन पहले उनके घर गया तो सवेरे के नौ बज चुके थे। वे सवेरे का भोजन कर धूप सेंक रहे थे घर के सामने नीम के नीचे खटिया पर बैठे हुये। आज का नया आख्यान यह था कि धर्म राज का दूत आया था। “मोट क रहा। माने हृष्टपुष्ट। उज्जर कपड़ा पहिरे रहा। गोर रहा। करिया भुजंग नाहीं। हम त जचकि गये। गोहरावा – के आ हो! बोले पर पराइ गवा। दूर से ताकत रहा। (मोटा था, माने तंदुरुस्त्। सफेद कपड़े पहने था और गौरवर्ण था। मैंने अचकचा कर पूछा तो दूर चला गया और दूर से मुझे देखता रहा।)”।
पता नहीं, वैसे धुँधला दिखता है पर उस दूत की तंदुरूस्ती और उजले कपड़े पहनना और दूर से इनको निहारना – यह सब स्पष्ट देख पाए पंडित रघुनाथ पांड़े!
उम्र बढ़ने के साथ साथ उन्हे मृत्यु के हेल्यूसिनेशन होने लगे हैं। गुन्नीलाल जी का कहना है कि उनका और सब ठीक है, पर सोचने में नकारात्मकता बहुत हो गयी है। घर से कोई भी बाहर जाता है तो परेशान होने लगते हैं। कल्पना करते हैं कि उसके साथ कोई दुर्घटना न हो गयी हो। उसका किसी ने अपहरण न कर लिया हो। उससे किसी ने छिनैती न कर ली हो।
मेरे मुंह के पास अपना चेहरा ला कर वे मुझसे बताते हैं – “ई जरूर रहा कि ऊ धर्मराज क दूत रहा।”
मेरे मुंह के पास अपना चेहरा ला कर वे मुझसे बताते हैं – “ई जरूर बा कि ऊ धर्मराज क दूत रहा।” उनके अनुसार जब स्वर्ग ले जाने वाले दूत आते हैं तो वे सफेद कपड़े में और गौर वर्ण के होते हैं। यमराज के दूत काले, मोटे और बदसूरत होते हैं। ऐसा उन्होने (अपने भाई की स्मृति में पण्डित द्वारा कहे) गरुड़ पुराण में सुना था। उन्हे लेने आया दूत धर्मराज का ही था।
याददाश्त ठीक है रघुनाथ पांड़े जी की। यह उन्हे याद है कि मैं उनके घर बहुत दिनों बाद आया हूं। मेरे साथ आने वाले (राजन भाई) नहीं आये? वे पूछते हैं। राजन और राजन के छोटे भाई बच्चा दूबे की भी याद करते हैं। उनका सब कुछ चहुचक है; बस उम्र बढ़ने का भय और नकारात्मकता घर कर गयी है। उनका हम उम्र कोई बोलने बतियाने को होता तो शायद ठीक रहता।
ऐसा नहीं है कि रघुनाथ पांड़े जी अभी मृत्यु की सोचने लगे हैं। पिछ्ले साढ़े तीन साल से तो मैं देखता/सुनता ही रहा हूं उनका यह मृत्यु-पुराण। एक पोस्ट और फेसबुक नोट्स पर है इस विषय में। देर सबेर उसे भी ब्लॉग पर सहेजूंगा। फेसबुक की “कांइया” नीति ने फेसबुक नोट्स गायब जो कर दिये हैं! 😀
गुन्नी पांड़े मेरा और मेरे साथ गये मेरे बेटे का अतिथि (अतिथि ही था मैं – बिना किसी प्रयोजन के, बटोही का हेण्डल उनके घर की ओर घूम जाने के कारण ही उनके यहां पंहुचा था) सत्कार किया। मटर की पूड़ी-तरकारी; जो सर्दियों का इस इलाके में प्रिय नाश्ता है; कराया और चलते चलते अपनी दालान की दीवार पर लटकी एक लौकी भी मुझे साथ ले जाने को दी। इसके समतुल्य आवाभगत की शहर में कोई कल्पना नहीं कर सकता।
गुन्नीलाल पाण्डेय जी मेरे लिये लौकी तोड़ते हुये। पास का पूरा खेत नीलगाय का झुण्ड चर गया है।
गुन्नीलाल जी ने लौकी तोड़ते हुये मुझे पास के अपने खेत को दिखाया। रात में घणरोज (नीलगाय, जो अगियाबीर के टीले पर बड़े झुण्ड में रहते हैं) पूरी तरह चर गये हैं। उनकी लौकी की बेल भी जितनी जमीन पर थी उसे या तो चर गये या पैरों से रौंद गये हैं। इस नुक्सान को वे बहुत स्थितप्रज्ञ भाव से मुझे बताये। “अब ठण्ड की रात में जाग जाग कर उन्हें भगाना मेरे बस में नहीं है। उफरि परईं सरये (भाड़ में जायें वे)।”
गुन्नी पांड़े के घर से लौटते समय मैं पण्डित रघुनाथ पाण्डे और धर्मराज के दूत की सोचता रहा। दूर दूर तक मुझे कोई हृष्टपुष्ट और सफेद कपड़े पहने नजर नहीं आया। कहां गया होगा वह दूत। ऐसे दूतों के ट्रेवलॉग पर कोई क्लासिक पुस्तक है क्या?
अस्सी पार का व्यक्ति, बारह किलोमीटर सामान्य चाल चलने का स्टेमिना और उम्रदराज होने पर भी अपने नाते रिश्तों से मेल मिलाप हेतु यात्रा करने का ज़ज्बा – अपने ननिहाल तक से रिश्ता जीवंत रखना – यह सामान्य बात नहीं है।
नेशनल हाईवे 19। अब सर्विस लेन करीब अस्सी प्रतिशत बन गई है। सवेरे खाली भी मिलती है। साइकिल चलाने या रुक कर किसी से बात करने में वह हाईवे वाला जोखिम नहीं है।
मैं सवेरे अपने साइकिल व्यायाम अनुष्ठान का पालन कर रहा था। तभी वह व्यक्ति जाता दिखा। कमर थोड़ी झुकी हुई। पर चाल तेज। पैर में जूते और कपड़े भी साफ। एक थैला लपेट कर बांये हाथ में पकड़े था और दाएं में लाठी।
सवेरे सूरज की रोशनी में अच्छा चित्र लगा खींचने के लिए।
दसमा दोमंजिले मकान में साफसफाई के लिये नीचे-ऊपर सतत दौड़ती रहती थी। मेरी बड़ी मां को वह एक अच्छी सहायिका मिल गयी थी। लीक से हट कर काम कराने के लिये बड़ी मां उसे दो रुपया और ज्यादा गुड़ देती थीं।
लॉकडाउन को लेकर शुरू के फेज में प्रधानमंत्री जी के सम्बोधन के बाद बड़ी अफरातफरी मची। आखिर, रोजमर्रा की चीजें कैसे मिलेंगी? इनमें सबसे महत्वपूर्ण था दूध। दूध मेरे चचेरे भाई सत्येंद्र (मन्ना) दुबे के घर से आता है। घर 500 मीटर दूरी पर है। मेरा बेटा रोज उनके घर जा कर लाया करता था। उसकी इस बहाने सवेरे की सैर और अपनी मामियों से चुहुलबाजी हो जाया करती थी। अब उसका जाना उचित रहेगा?
मन्ना ने ही समाधान किया। बोला – “दीदी, प्रसून को मत भेजा करें। दसमा मेरे घर में काम करती है। साफसफाई रखती है। उसे एक मास्क भी दे दिया है। मास्क लगा कर साफ बर्तन में वह दूध आपके यहां पंहुचा दिया करेगी। (पंहुचाने का) जो उचित समझियेगा, दे दीजियेगा।”
दशकों बाद दसमा से दूध लाने के बहाने जब मुलाकात हुई तो देखा, उसके चेहरे पर समय के निशान बहुत गहरे हो गये हैं।