नेशनल हाईवे के उसपार गांव है लक्षमणा। कल उस ओर निकल गया शाम के समय। साथ में मेरा बेटा था ज्ञानेन्द्र। उसके लिये कुछ दिन पहले एक साइकिल खरीदी है। ध्येय यह है कि उसको साथ साथ ले चलूं और आसपास के गांव दिखा दूं। वह राजन भाई की तरह मेरे लिये एक साथी की तरह प्रमाणित होगा। फर्क यह है कि राजन भाई ने आसपास के गांव मुझे दिखाये/परिचित कराये थे; मैं ज्ञानेन्द्र को दिखाऊं/परिचित कराऊंगा।

लक्षमणा की सड़क पर पुन: डामरीकरण हुआ है। कोई रसूख वाले सज्जन इस सड़क पर रहते होंगे अन्यथा कोलाहलपुर को जाने वाली सड़क तो दस बारह साल से रिपेयर का इन्तजार कर रही है। कोलाहलपुर अम्बेडकर गांव है। मायावती जी के शासन में भी वह सड़क जर्जर थी, सपा शासन में भी रही और भाजपा के शासन में भी जस की तस है। शासन-निरपेक्ष है वह सड़क। उस सड़क का वोट अगर हो तो वह नोटा को ही जायेगा।
खैर, लक्षमणा की ओर एक जगह तीन पेड़ दिखे। सड़क के किनारे एक खेत में। अकारण से उगे लगते पेड़। आसपास कोई घर नहीं। मैने बटोही को किनारे खड़ा कर वहां देखा तो पता चला कि एक कुंआ है वहां। उसी के किनारे उग आये हैं पेड़। कुंये की कोई जगत नहीं। पेड न हों तो कोई भी चलता चलता कुंये में गिर पड़े। और कुंआ भी गहरा है। एक पेड़ का तना पकड़ कर झांका तो अंधेरा ही अंधेरा नजर आया।

पास गुजरते एक सज्जन ने बताया कि यह कुंआ उनके बचपन में खेत की सिंचाई के लिये इस्तेमाल होता था। पुरवट हांकते थे बैल। धान की खेती को पानी बहुत चाहिये। उसी के लिये खोदा गया था कुंआ।
ज्ञानेन्द्र पूछता है – पुरवट क्या होता है? मैने उसे बताया चमड़े के बड़े थैले – मोट – में बैलों द्वारा पानी कुंये से पानी निकालने के बारे में। लगा, कहीं से पुरवट का वीडियो बना लेना चाहिये अन्यथा लोगों को पता ही न चलेगा आगे के समय में।
[मुझे यू-ट्यूब पर मोट से पानी निकाल सिंचाई करने का यह वीडियो मिला। बहुत साफ़ नहीं है, पर उससे पुरवट की विधि तो पता चल् जाती है – ]
उन सज्जन ने अपना नाम बताया देवनन्दन। लक्षमणा गांव के ही हैं। उनके पास न खेत हैं और न ही अधिया पर खेती करते हैं। वे बुनकर हैं। महराजगंज जाते आते हैं पैदल। साइकिल नहीं चलाते। महराजगंज में कारपेट कताई के सेण्टर पर काम करते हैं। दो सौ रुपया रोज पाते हैं। काम रोज मिलता है पर महीने में चार पांच दिन नहीं भी जाते। कताई की जगह पर बैठे बैठे काम करना बहुत ऊब भरा काम है। “पसीने से आखें चुनचुनाने लगती हैं।“

चार-पांच हजार पाते हैं देवनन्दन घर के नून-तेल लकड़ी के लिये। दो लड़के हैं। बड़ा मकान पुताई का काम करता है। छोटा पढ़ने में अच्छा है। साइंस लिये है और इलाहाबाद में पढ़ रहा है। एक साल की पढ़ाई बाकी है।
छोटे लड़के की पढ़ाई को ले कर देवनन्दन के चेहरे पर संतोष का भाव था। यह भी झलक रहा था कि उसकी पढ़ाई पर अपने हैसियत से ज्यादा खर्च कर रहे हैं – उसमें पारिवारिक त्याग भी है। भला हो अगर वह लड़का कमाऊ निकले और परिवार को सपोर्ट करे। देवनन्दन के लड़के को आरक्षण का लाभ मिलेगा, अंत: उसकी पढ़ाई के आधार पर नौकरी लगने और उन्नति की सम्भावनायें ज्यादा हैं; अन्यथा सामान्य विश्वविद्यालयीय शिक्षा से मुझे बहुत भरोसा नहीं होता। बेहतर है कि नौजवान जॉब ओरियेण्टेड कोर्स करें।
देवनन्दन ने बताया कि उनके कुटुम्ब में बड़े भाइयों के तीन लड़के पढ़ाई कर डाक्टर बन गये हैं। सरकारी नौकरी में हैं – आजमगढ़ और बनारस में। कुटुम्ब में शादी/समारोह में आते हैं और खर्चे में हाथ बटाते हैं वे। बाकी, रोजाना की नून-तेल-लकड़ी का इन्तजाम तो उन्हें अपनी बुनकर की कमाई पर ही करना होता है।
देवनन्दन से मिल कर हम वापस लौटने लगे तो मेरे और ज्ञानेन्द्र के अपने परिवेश की जानकारी में इज़ाफ़ा हो गया था। यह महत्वपूर्ण है नित्य जीवन में। नहीं?