1000 शब्द प्रति दिन

एक छोटी सफलता मिली है। दशकों से मैं नींद की गोलियाँ लिया करता था। पहले यदा कदा। उसके बाद रेलवे यातायात के तनाव से उनका प्रयोग लगभग नित्य हो गया। मैं खुद महसूस करता था कि वे कोई अच्छा उपाय नहीं हैं; पर जीवन-चर्या बदलने के प्रयास करने के संकल्प कभी न ले पाया।

नौकरी से निवृत्त होने के बाद लगा कि उनपर निर्भरता समाप्त की जा सकती है। निर्भरता कम जरूर हुई, लेकिन पूरी तरह खत्म नहीं हुई। ट्रेन परिचालन की मानसिक परेशानियों की बजाय दूसरे प्रकार की परेशानियों ने अपना अधिकार जमाना प्रारम्भ कर दिया। मेरे ऊपर एक बड़े परिवार को लम्बे समय तक चलाने का दायित्व था और मुझे लगता था कि मेरे पास, मेरी नियमित पेंशन के बावजूद, इतना पैसा नहीं है कि भविष्य की जरूरतों को अच्छे से निबाह पाऊंगा। बहुत सोचने से मैं कोई निर्णय नहीं ले सकता था, केवल परेशान हो सकता था। वह परेशान होने की प्रवृत्ति बढ़ती गयी और नींद की गोलियां जीवन में फिर नियमित हो गयीं।

इसके अलावा गांव में रहने के अपने फायदे भी थे और नुक्सान भी। छोटी छोटी असुविधाओं को ले कर कभी झल्लाहट होती थी। चूंकि निर्णय मेरा अपना था, इसलिये किसी और पर अपनी खीझ या झल्लाहट उतार नहीं सकता था। मेरे ऊपर ग्रामीण रीवर्स-माइग्रेशन को सफल बनाने का दबाव भी था। शायद वह भी अनिद्रा में योगदान करता हो।

अंतत:, एक दिन, पिछले महीने 16 अगस्त को, मैंने निर्णय किया कि चाहे जो हो, मैं नींद की गोलियां नहीं लूंगा। इग्यारह-बारह बजे नींद आई और तीन बजे खुल गयी। ऐसा अनियमित जीवन कई दिन चला। पर मैं नींद की गोलियों पर नहीं लौटा।

आज 16 सितम्बर हो गया। इकतीस रातें बिना नींद की गोलियों के गुजारी हैं। औसत नींद साढ़े चार और पांच घण्टे के बीच मिली है। पर सप्ताह में 4-5 दिन बिस्तर पर जाने पर आधे घण्टे में नींद आ जा रही है। बहुत देर तक करवटें बदलना और फिर मोबाइल, लैपटॉप, किण्डल खोल कर बैठना नहीं हो रहा। यह छोटी मोटी सफलता ही तो है!

आज रात दस बजे सोया और सवेरे चार बजे नींद खुली है। बढ़िया! अब सोचता हूं जीवन के कई अन्य पक्षों में इसी तरह की छोटी-मोटी सफलता की जद्दोजहद की जा सकती है। अपने पठन, पाठन, लेखन, सामाजिकता, व्यायाम/एक्टिव रहना, अपने पैसे का प्रबंधन … कई इलाके हैं जिंदगी के जो उपेक्षित से हैं। उनपर एक एक कर ध्यान दिया जाना चाहिये।

नित्य एक हजार शब्द लिखना एक मानसिक व्यायाम है, जिससे शुरुआत की जा सकती है। मैं नित्य अपनी डायरी में लांग-हैण्ड में 500 शब्द के आसपास लिखता हूं; पर वह तो खुद के लिये है, सम्प्रेषण के लिये नहीं। यह लेखन उसके इतर होना चाहिये। यह लेखन शायद ब्लॉगिंग नियमित कर सके।


इस साल मानसून के महीनों में मौसम पलट पलट कर नाच रहा है। लोगों ने धान की नर्सरी लगाई थी पर बारिश देर से आई। उसकी कमी ने किसान को बहुत छकाया। बारिश आई तो धान की बुआई हुई। उसके बाद फिर बारिश की किल्लत रही। धान की फसल सूख रही थी, फिर अचानक “धरती के प्यासे अधरों पर” बारिश झरी। इससे धान बच गया। इतना भर बचा कि फसल बम्पर न हो पर सूखा भी न पड़े।

उसके बाद फिर लम्बे समय तक बारिश नहीं हुई। उड़द में फूल आने का समय आया तो बारिश फिर चालू हो गयी है। अभी तक तो ठीक है पर इससे ज्यादा हुई तो सड़ जायेगी उड़द। किसान इसी कम ज्यादा बारिश के फेर में झूल रहा है। … आज मैंने पढ़ा कि दालों के दाम में तेजी थम गयी है। तेजी आने का कारण था महाराष्ट्र में अरहर-उड़द की फसल कम बरसात के कारण नष्ट होने की आशंका हो गयी थी। अब वहां पछेती बारिश के कारण आशा बन गयी है कि फसल सामान्य हो जायेगी।

कृषि और उपज से मेरा कुछ खास लेनादेना नहीं था। पर गांव में रहते हुये आसपास यही सब दिखता है। मैं खेती किसानी की इण्ट्रीकेसी नहीं समझता, पर आसपास खुली आंखों के साथ घूमते हुये किसानी की मोटी समझ तो आ ही जाती है। इतने साल में मैं जलवायु परिवर्तन के मुद्दे और खेती किसानी पर अपनी सोच बना सकता हूं। ह्वाट्सएप्प विश्वविद्यालय के स्तर का विशेषज्ञ भी बना जा सकता है। :lol:


पिछले महीनो अपनी पोती को वीडियो कॉन्फेंसिग से पढ़ाने के प्रयोग कर रहा हूं। दीवार पर एक ह्वाइट शीट चिपकाई गयी है, जिसपर मार्कर से लिखा जा सकता है। मोबाइल कैमरा उस बोर्ड के सामने करने के लिये एक सीजर्स आर्म खरीदी गयी है। लैपटॉप पर वीडियो हाई डेफिनीशन का बने, उसके लिये एक वेब-कैमरा भी अमेजन से मंगाया गया है। अढ़सठ की उम्र में देहात में रहते हुये, इस तरह के नये प्रयोग कम ही करते होंगे लोग। या यूं कहें कि कोई नहीं करता होगा। पर यह सब करने का परिणाम है कि दिन में दो घण्टे मैं चिन्ना पांड़े को पढ़ा पा रहा हूं। अगले कई साल – शायद उसकी पूरी स्कूली शिक्षा तक – मुझे अगर उसे पढ़ाना पड़ा तो मेरा खुद का भी अच्छा खासा व्यक्तित्व विकास होगा। अभी भी, उसके सम्भावित प्रश्नों के उत्तर देने के लिये मुझे उसके विषयों से अलग बहुत कुछ पढ़ना पड़ता है।

एक बच्चे को पढ़ाने से अच्छा कोई मानसिक व्यायाम नहीं हो सकता। उसमें आपके ज्ञान, धैर्य, बच्चे के कहे, अनकहे को समझना और उसके लिये एक रोल मॉडल के पैमाने पर खरा उतरना – यह सब करना होता है। मुझे तो अपने हिंदी-संस्कृत-अंग्रेजी के उच्चारण पर भी ध्यान देना होता है। उसे एक घण्टा पढ़ाने के लिये लगभग उतनी ही तैयारी करनी पड़ती है। इसके अलावा कम्यूनिकेशन के गैजेट्स का प्रयोग अलग से सीखना पड़ रहा है।

पढ़ाने से उसके स्तर में सुधार आये या न आये, मेरे स्तर में सुधार आयेगा ही।

जिंदगी एक मुसलसल सफर है।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

2 thoughts on “1000 शब्द प्रति दिन

  1. der lagi aane me tumko, shukra hai fir bhi aaye to.. ye ek sher hai aapki vapsi ke liye.. neend ke liye shaam ko halka sa vyayam aur meditation karke dekhiye.. achchhi neend aane lagegi.. main to abhi hi VRS ke liye soch raha tha… jabki bachchon ne intermediate hi kiya hai.. lagta hai ki dubara sochna padega.. travellogue ki nirantarta badhit rahi… khair aap swasth rahen… pandey ji ki yatra kabhi na kabhi to milegi hi padhne ko.. wo abhi chalte rahenge.. aur aap ka lekhan jaari rahe..

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