आठ साल पहले गांव में रहने आया था तो हवा ज्यादा साफ थी। नवम्बर के महीने में साइकिल से घूमना खूब भाता था। उसके बाद धीरे हवा में प्रदूषण बढ़ा। लोग अकर्मण्य होते गये और खेती करने की बजाय खेत की ऊपरी परत – टॉप सॉईल खोद खोद कर बेचने लगे। सभी ट्रेक्टर ट्रॉलियां खेत की मिट्टी ढो कर ईंट भट्ठा वालों के यहां ले जाने लगीं। पहले भी यह होता था पर अब यह संक्रामक हो गया।

अकर्मण्यता पेण्डेमिक होती है। और उसका कोई टीका भी नहीं।
इस मौसम में हवा में नमी कम हुई और धूल बढ़ी, साल दर साल। मेरा एक्यूआई से परिचय हुआ। गांव देहात की एक्यूआई भी 160-170 रहने लगी। कभी कभी तो दो सौ के पार भी। नरक हो गया वातावरण। साइकिल ले कर घूमने में गांव की सड़कों की बजाय हाईवे की सर्विस लेन में चलना बेहतर लगने लगा। गांव की पगडण्डियों पर चलते हुये मन होता है कि मास्क लगा कर निकला जाये। अगर चश्मे पर सांसों की भाप जमने के कारण असुविधा न हो रही होती तो वैसा ही करता।
धूलमय जीवन अब न्यू-नॉर्मल है।
नक्शे में देखने पर साफ होता है कि केवल मेरे आसपास ही नहीं पूरे उत्तर भारत में हवा की गुणवत्ता ऐसी ही है। पूर्वोत्तर के कुछ इलकों और इक्का-दुक्का दक्षिण के स्थानों को छोड़ कर बाकी भारत की हवा खराब ही है। उत्तराखण्ड-हिमांचल में भी हवा में बड़े कण व्याप्त हैं।

अगियाबीर के गड़रियान से गुजरते हुये नाले की चढ़ाई चढ़ कर सांस कुछ फूली हुई है। धूल ज्यादा होने पर भी मेहनत कुछ ज्यादा लगती है साइकिल धकेलने में। मैं रुक कर सुस्ताने लगता हूं। पौने आठ का समय है। भेड़ें और बकरियां अभी भी बाड़े में हैं। अलग अलग झुण्ड में बंधी गायों को लोग अभी दुह रहे है। मैं भेड़ों के बाड़े का एक चित्र खींचता हूं। दूर अगियाबीर का टीला है। पहले वह साफ दीखता था। अब धूल के कारण धुंध सी छायी है। यह भ्रम होता है कि मोबाइल का कैमरा खराब हो गया है। धूल आबोहवा मैं है और हम सब आईना चमकाने में लगे हैं।
फसल की कटाई की गतिविधि सब तरफ नजर आती है। एक आदमी सगड़ी (ठेले) पर जोन्हरी के लकठे का बहुत बड़ा बोझ लादे है। मेरे द्वारा चित्र खींचने पर लजा सा जाता है। अपने से ही बताता है कि सिर पर ले कर जाता तो जितना लकठा है वह ढोने में पचास चक्कर लगाने पड़ते। “अब इस सग्गड़ से आठ दस फेरे में काम पूरा हो जायेगा।”

उसका गांव, द्वारिकापुर आधा-एक किमी दूरी पर है। पचास फेरा मतलब पचास किमी चलना। कम से कम दो दिन लगते इस काम में। शारीरिक मेहनत अलग। अब सगड़ी से एक दिन भर का काम है।

जोन्हरी का लकठा बहुत लम्बा होता है। करीब तीन – चार मीटर तक होती है लम्बाई। जोन्हरी मोटा अन्न है – मिलेट। आजकल उसका ही जमाना है। पर प्रकृति थोड़ी सी जोन्हरी की बालों के लिये इतना ज्यादा डण्ठल बनाती है। उसे भी किफायती बनना चाहिये। कृषि वैज्ञानिकों को चाहिये कि जोन्हरी की कोई पिगमी पौध विकसित करें। वह जो कम लम्बाई की हो, जिसमें बालें ज्यादा लगें और डण्ठल कम बने।
डईनिया और कोलाहलपुर के बीच में सड़क किनारे सरपत फूल गया है। हल्के गुलाबी-बैंगनी रंग की आभा है सफेदी लिये सरपत के फूल में। सुंदर लगते हैं ऊंचे ऊचे सरपत। उनमें पहले बया के अनेक घोंसले होते थे। पर साल दर साल सरपत का ज्यादा से ज्यादा दोहन किया है लोगों ने। अब बया की संख्या कम होती गयी है। आज वहां से आते जाते मुझे एक भी बया नजर नहीं आई। उनका कोई घोंसला भी नहीं नजर आया।

डईनिया में बाबूलाल और उसकी पत्नी दीखते हैं। बाबूलाल बूढ़ा है। कान से सुनता भी बहुत कम है। पहले आते जाते उसे खाट पर लेटे-ऊंघते पाया करता था मैं। दूसरी खाट पर उसकी पत्नी लेटी रहती थी। मुंह पूरी तरह खोले सोती हुई। पर आज उन दोनो को आपस में बोलते बतियाते पाया। पहले मुझे लगता था कि ये दोनो ज्यादा जीने वाले नहीं हैं। पर आज उनकी चैतन्यता और एक दूसरे से चोंच में चोंच डाल बतियाते देख मुझे विश्वास हो गया कि वे चलेंगे। एक दशक भर तो चलेंगे ही। उससे ज्यादा भी।

चलने और जीने की बात से अपनी याद हो आई। अभी हाल ही मैं मैंने अढ़सठ साल पूरे किये हैं। रोज दस किमी साइकिल चलाना हो रहा है। यहां गांव में आने के बाद स्वास्थ पहले से बेहतर ही हुआ है। बावजूद इसके कि गांव की आबोहवा खराब हुई है; मन में खिन्नता जब तब घर कर लेती है; कोई बड़ा ध्येय समझ नहीं आता; तब भी लम्बा चलने का आशावाद बना हुआ है।
धूल से गुजरते हुये भी आशावाद!
