चील्ह से गोपीगंज जाती सड़क के किनारे ही उनका घर है। वैसा ही गांव जैसे और गांव हैं पूर्वांचल के। वैसा ही घर जैसे और घर हैं पूर्वांचल के। पर और सब से हट कर भी कुछ उनके पास है। उसने मुझे आकर्षित किया। उनकी शेल्फ पर उनके युग की किताबें एक के ऊपर एक रखी हुई हैं। लगभग पूरी दो शेल्फें भरी हैं।
गांवदेहात में कोई पढ़ता नहीं किताबें होना ही आकर्षित करता है। और इतनी मात्रा में किताबें और भी! किताबें पुरानी हैं। पीली पड़ चुकी हैं। मैं और रुकता तो उन्हें उलट पलट कर देखता। अभी, उनसे केवल उन किताबों के बारे में पूछा।
“यह तो थोड़ी सी रखी हैं। और बहुत हैं। रखने को जगह नहीं है तो संदूक में रखी हैं। उपन्यास नहीं हैं। ज्यादातर धार्मिक पुस्तकें हैं या फिर कानून की। मेरी रुचि उनमें ही रही है।” – राम मूर्ति जी ने बताया।
उनकी उम्र के बारे में वे पूछने पर वे उलटा मुझसे सवाल करते हैं। “आप ही अंदाज लगायें?”

जैसा उन्होने कहा; वे अस्वस्थ हैं। सिर पर टोपी लगाये स्वेटर पहने हैं। सर्दी का असर उनपर ज्यादा लगता है। मुझे लगा कि उनकी उम्र अस्सी के आसपास तो होगी ही। उनके छोटे भाई स्वर्गीय कृष्ण मूर्ति तिवारी जी की तेरहवीं में मैं वहां गया था। छोटे भाई पचहत्तर-छिहत्तर साल के थे। उस हिसाब से मैने अंदाज लगाया – “आप अस्सी-बयासी के होंगे।”
“बयानबे। वो (छोटे भाई) मुझसे काफी छोटे थे।” – उन्होने अपनी उम्र और अपने छोटे भाई के बारे में बताया।
नब्बे के ऊपर के व्यक्ति को देख कर उनकी दीर्घजीविता और उनकी दिनचर्या के बारे में प्रश्न करना लाजमी है। मैने वही किया।
“अभी तो अस्वस्थता है। इस कमरे और साथ सटे शौचालय से अलग ज्यादा चलना नहीं होता। घुटनो में दर्द है। वर्ना पहले चार बजे उठ कर पैदल गंगा किनारे तक हो आता था। जितना नियमित और सक्रिय मेरा जीवन था, उतना आप नहीं कर पायेंगे।” – उनकी आवाज में उनकी जीवन-चर्या के बारे में एक सेन्स ऑफ प्राइड था। वह आत्मविश्वास, वह सेन्स ऑफ प्राइड कहां से आया? शायद वे अपने समय के अपने आसपास के उत्कृष्टतम व्यक्तियों में से रहे हों। वे उत्तरप्रदेश की प्रांतीय सिविल सेवा के अधिकारी रहे हैं।
अनेक प्रांतीय अधिकारियों की बात उन्हें की। कुछ के नाम मैने सुने हैं। ज्यादा नहीं जानता उनके बारे में। मेरी रुचि उनके बारे में जानने सुनने की नहीं थी। मैं उनसे धर्म और कानून (जिनकी पुस्तकें उनके पास हैं) के बारे में भी जानने की इच्छा नहीं रखता था। मैं तो उनके अनुभवों, उनकी पिछले सत्तर अस्सी साल में सामाजिक-आर्थिक परिवेश के बदलाव के बारे में उनकी सोच जानना चाहता था।

राम मूर्ति जी मानसिक रूप से पूरी तरह स्वस्थ हैं। शारीरिक रूप से लगभग स्वस्थ हैं। नब्बे पार की उम्र वाला व्यक्ति और कितना स्वस्थ हो सकता है? उनकी वाणी भी स्पष्ट और धाराप्रवाह है। स्वतंत्रता के बाद आये इस अंचल के बदलाव को वे अच्छे से बता सकते हैं। और सिविल सेवा में रहने के कारण एक अलग कोण से भी होगा उनके बताने में। उनके पास बैठे बैठे मेरे मन में यह विचार बारबार आता रहा।
एक पुरनिया आदमी, जिसका पुस्तकों से साथ रहा हो; जो शब्दों को ओढ़ता बिछाता रहा हो वह अपने अनुभवों की अहमियत अच्छे से जान और उन्हे व्यक्त कर सकता है। बयानबे साल की उम्र के समग्र अनुभव कोई कम नहीं होते!
आसपास में ऐसा नहीं कि राममूर्ति जी ही अकेले व्यक्ति मुझे मिले हों। पर वे लोग जिनके पास अनुभव हो और उसे व्यक्त करने के लिये शब्द भी हों, कम ही मिले हैं। उनसे सम्पर्क महत्वपूर्ण होगा!
भविष्य में उनसे मिलना हुआ और ट्यूनिंग बनी तो बारम्बार मिलूंगा। इस इलाके के पिछले सत्तर साल में आये बदलाव जानने का बहुत मन है। राममूर्ति जी मेरी उस साध को साधने में शायद सहायक हों। मैं चाहूंगा कि वे दीर्घायु हों। शतायु। उनका गठिया और पैरों की सूजन उन्हें ज्यादा परेशान न करे। और उनसे मेरा सम्पर्क बना रहे।

Nice post.
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धन्यवाद वर्मा जी!
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