उन्नीस मई 2024। सवेरे आठ बजे वाणी का डलहौजी के होटल से पर्वत श्रेणियों का चित्र और सुप्रभात का संदेश था।

ऐसे दृश्य मैने देखे हैं। मेरे पिताजी कसौली में सरकारी सेवा में थे। वहां एक दो महीने मैने गुजारे हैं। अपनी नौकरी के दौरान यदा कदा पहाड़ों में गया हूं। पर वहां, पहाड़ों में, समय गुजारने की बजाय वहां के बारे में औरों का लिखा संस्मरण या ट्रेवलॉग मुझे ज्यादा भाता है। यह भी हो सकता है कि जितना अच्छा उन सब ने देखा-लिखा हो, वह मेरी अनुभूति के बूते के बाहर हो। या यह भी हो सकता है कि पहाड़ों में ऊंचाइयां-नीचाइयां चढ़ना उतरना मेरे स्टेमिना के परे हो। अथवा शायद मुझे भय लगता हो कि पता नहीं कब जुकाम हो जायेगा और छींक आने लगेगी। पहाड़ों में सौंदर्य तो है पर वे आप में एक न्यूनतम स्तर की शारीरिक-मानसिक फिटनेस की मांग भी करते हैं।
वाणी के भेजे चित्र को देख कर वैसे ही विचार आये। यह भी लगा कि ऐसी जगह पर एक कमरा अपना होना चाहिये जहां आप जब चाहे, जितना चाहे रह सकते हों। आप वहां किसी तरह पंहुच जायें और एक बायनाक्यूलर के साथ अपनी नोटबुक और लैपटॉप के साथ पड़े रहें।
कल रात विवा नौ बजे अमृतसर से डलहौजी पंहुचे थे। आज वे आसपास घूमने जाने वाले थे। विवेक ने अपनी फिटनेस के लिये सवेरे की वॉकिंग/जॉगिंग कर ली थी और वह करते हुये डलहौजी के दो-चार चित्र ले लिये थे।
“तुमने सवेरे की वॉकिंग नहीं की?” – मैने वाणी से पूछा।
“मेरी पांच दिन की वॉकिंग का कोटा कल ही पूरा हो गया है। स्वामी (वाणी के मोबाइल में विवेक के लिये नाम भरा है स्वामी) ने कल रांची एयर पोर्ट पर मुझे इतना चला दिया कि अब पांच दिन चलने की जरूरत नहीं है। पहाड़ों से वापस जाने पर जब जिम वाला चलायेगा, तभी वॉकिंग होगी!” – वाणी ने उत्तर दिया। वह सैर सपाटे के लिये आई है। व्यायाम कर स्वयम को ‘पेरने’ नहीं। मेरी बिटिया का फण्डा बहुत क्लियर है। वह अपने ‘स्वामी’ के काम और अपने स्वास्थ्य के प्रति प्रतिबद्धता पर गर्व कर सकती है पर उस गर्व के चक्कर में अपने आराम की बलि नहीं दे सकती। :lol:




डलहौजी एक आम कस्बाई बाजार जैसा दीखता है। इमारतों के छत की बनावट ढलवां है जो शायद बर्फ गिरने या बारिश होने के लिये ठीक रहती हो। पर यह जगह उतनी गहराई से अंगरेजी काल का नोस्टॉल्जिया नहीं जगाती। साफ सफाई भी उतनी नहीं है, जितनी अपेक्षा मैं करता था। सैलानियों का, और भारतीय सैलानियों का (जिनकी साफसफाई की आदतें बस यूं ही हैं) दबाव इमारतों और सड़कों पर नजर आता है। इमारतें बदरंग सी हो गई हैं। उनके रंगरोगन पर उपयुक्त खर्चा नहीं होता। इस कस्बे की बजाय पास के घुमावदार खेत, चीड़ देवदार के तपस्वी से पेड़ और घाटी-पर्वत कहीं ज्यादा आकर्षित करते हैं।
मैं अगर डलहौजी की नगरपालिका चलाता होता तो एक सीमा के अंदर कारों-स्कूटरों के प्रवेश पर रोक लगाता। उन जगहों पर तांगे चलते या ई-रिक्शा/ई-स्कूटर। इमारतों की पुताई का भी एक शिड्यूल तय होता। डलहौजी भारत की प्राइम पर्यटक साइट है। उसे उसी तरह होना चाहिये।
खैर, विवेक मेरी तरह डिस्टोपियन सोच वाले नहीं हैं। वे अच्छा देखने वाले आशावादी जीव हैं। मेरे जैसे दोषदर्शी (मिसएंथ्रॉप) नहीं। विवेक ने बताया कि उनके अनुसार डलहौजी छोटी और बढ़िया जगह है। पास में दो पब्लिक स्कूल देखे जो मंहगे लगते हैं पर अनुशासित वातावरण वाले। माल रोड़ छोटा है पर ठीक है। यह स्थान ऊंचाई पर है पर उतना ठण्डा नहीं। शायद यहां सर्दियों में आना चाहिये और बर्फ गिरने का आनंद लेना चाहिये। गर्मियों के लिये तो इससे कम ऊंचाई के स्थान भी इससे ज्यादा ठण्डे हैं। फिर भी यहां मौसम अच्छा है और दो दिन यहां आसपास देखने-घूमने के हिसाब से गुजारे जा सकते हैं। होटल फॉर्च्यून पार्क (आईटीसी ग्रुप का होटल) जिसमें विवा रह रहे हैं मंहगा है पर अच्छा है। हॉस्पिटालिटी स्तरीय है भोजन भी ठीक है पर उसमें गुणवत्ता सुधार की गुंजाइश है। “यहां से जाते समय हम यह फीडबैक उन्हें देंगे।” विवेक ने कहा।
विवा ने खज्जियार के भी चित्र भेजे। उसका विवरण अगली पोस्ट में।


विवा (विवेक-वाणी) अपने बालक को अकेले बोकारो में छोड़ कर आये हैं। पिछले तीन चार महीने से बालक विवस्वान भी अपने स्वास्थ्य के सुधार के लिये मेहनत कर रहा है। व्यायाम और भोजन पर बहुत ध्यान दे रहा है। विवा ने भी अपना अपना स्वास्थ्य बेहतर बनाया है। अपने और विवस्वान के यत्न को ले कर उनके मन में संतोष है। विवस्वान पर तो उनका स्नेह और प्राइड छलक रहा था। विवेक ने कहा – “वह इतना अपने से कर रहा है यह बड़ी बात है। आखिर अभी पंद्रह साल का हुआ है। है तो बच्चा ही!”
घर से बाहर निकल कर आपाधापी से मुक्त होने पर व्यक्ति यह सब सोचता-मनन करता है। विवा यह कर रहे हैं। मुझे यह देख अच्छा लगा। इसके अलावा वे सामान्य दिनों से अलग, मुझसे बात कर रहे हैं। वह भी सुखद है।
