मैने बिंग एआई को कहा कि एक बादल का चित्र बनाये। बूढ़े के अंगों वाला। लाठी ले कर धीरे धीरे चलता हुआ। आखिर मानसून वैसा ही तो है। बूढ़ा आदमी समय पर पंहुचने के लिये घर से थोड़ा पहले ही निकलता है। उसे मालुम है कि उसकी चाल दुलकी नहीं है। वह कछुये की चाल से चलता हुआ रेस जीतने की सोच रखता है। मानसून वैसे ही चला। केरळ से समय से एक दो रोज पहले ही निकल लिया। उसके बाद ठिठक गया।
फिर थोड़ा चलता तो उसके घुटनों में दर्द होने लगता। कभी कभी तो मालिश करने कराने के लिये दो चार दिन एक ही जगह पर सुस्ताने लगता। बंगाल की खाड़ी में तो जमीन की रुक्षता नहीं थी। वह उसने दन्न से पार कर ली। पर बांगलादेश और पश्चिम बंगाल में तो डाक्टर ऑर्थो के तेल की बराबर मालिश काम नहीं आ रही थी। घुटनों की ग्रीस ज्यादा ही घिस चुकी है ग्रीन हाउस प्रभाव के कारण। बेचारे मौसम विज्ञान वाले जो मानसून के बूढ़े घोड़े पर हर साल दाव लगाते हैं और ज्यादातर फेल होते हैं; इस साल तो ज्यादा ही अकबकाये नजर आये। ये पढ़े लिखे लोग जब ज्यादा अकबकाते हैं तो ज्यादा अंगरेजी बोलते हैं। जिस टर्मिनॉलॉजी में वे लेट होने को समझाते हैं आम जनता को, वह कभी पल्ले नहीं पड़ती। अल नीनो बड़ा होता है या ला नीना। कौन मेहरारू है और कौन मरसेधू? आजतक मेरी अकल में स्थिर नहीं हुआ।
बहरहाल मानसून का कोई रिप्रजेंटेटिव चित्र मेरे पास नहीं था, पर बिंग वाले इमेज क्रियेटर ने बना ही दिया। और चित्र बनाने के साथ ही कल्पना हलचल करने लगी।

सन 1986-87 में अलेक्जेंडर फ्रेटर ने मानसून के साथ एक यात्रा की थी और उसकी ट्रेवलॉग पुस्तक को मैने चाव से पढ़ा। गुडरीड्स पर भी इस किताब को 4 के आसपास स्टार रेटिंग मिली है। मैं उस समय के मानसून और आज के मानसून की तुलना करता हूं तो आज का मानसून ज्यादा बूढ़ा, ज्यादा अशक्त और ‘थकेला’ लगता है। जोर ही नहीं बचा उसमें। पैंतीस चालीस साल में मानसून की प्रकृति और लोगों/सरकारी बाबुओं का मिजाज बहुत बदल गया है। किसी को एक नई यात्रा करनी चाहिये बूढ़े और गठियाग्रस्त मानसून के साथ।
उत्तरोत्तर मानसून का गठिया उसकी चाल को और ठस बना देगा। मेरी जिंदगी के दौरान ही उसकी हालत आईसीयू में भर्ती बूढे जैसी हो जायेगी। गठिया उसे इममोबाइल और अंतत: मल्टीपल ऑर्गन फेल्योर का मरीज बना देगी। यह दशा केवल मानसून की ही नहीं है। प्रकृति के अनेक घटकों के साथ ऐसा हो रहा है। मेरे बचपन की गंगा नदी और अब की में बहुत कुछ बदल गया है। अब गंगा जी की धोती तार तार हो गई है। कहीं कहीं तो (प्रयाग राज में संगम के पहले) लगता है कि उनकी धारा अब टूटी और तब टूटी। मौसम परिवर्तन तो अब मेरी पोती पद्मजा के सामाजिक अध्ययन और विज्ञान की पुस्तकों का महत्वपूर्ण हिस्सा है। मेरे बचपन में इन विषयों को मैने सुना ही नहीं था। जंगल और पहाड़ मेरे देखते देखते खंखड़ हुये हैं। गांवों मे सियार, लोमड़ी और यदा कदा लकड़बग्ग्घे नजर आते थे। मेरे बाबा ने अपने चौरासी टप्पा के बाहर कसौली तक की यात्रा एक पागल (?) सियार के काट लेने के बाद रेबीज से बचने के लिये की थी। अब तो गांवों में सियार का आबादी में आना-जाना अनहोनी घटना हो गयी है।
गठिया ग्रस्त मानसून की सोच कोई अतिशयोक्ति नहीं है। मानसून का चाल चलन बिल्कुल वैसा ही है। तीन दिन से पछुआ थमी है। लू का प्रकोप कम हुआ है। पर मानसून या प्री मानसून में एक कस कर बारिश करने का दम नहीं है। तीन दिन से आसमान में रूई के फाहे बन बिगड़ रहे हैं। कुछ ही साल पहले पछुआ थमते ही आंधी तूफान के साथ एक बारिश कस कर हो जाती थी और ओरी टपकने लगती थी। इस साल तो बगीचे को पाइप से पानी दे दे कर थक गये हैं हम। तब भी बहुत से पौधे, जो लगता था गर्मी सहने के लिये बने हैं, मसलन कोचिया, वे भी मर गये या मरणासन्न हो गये हैं। मानसून में तो जोर ही नहीं है। आगे वह अपनी चाल और चरित्र बदलेगा? मेरे निराश मन में एक कतरा भी आस नहीं बनती।
कालिदास आज होते तो इस बूढे, गठियाग्रस्त मानसून को देख क्या लिखते? यह गठिया पीड़ित क्या खा दूत बनता?


भारत में सबसे बड़ी समस्या बढ़ती क्या जियोमेट्रिक प्रोग्रेशन से फलती फूलती आबादी है. यही हाल रहा तो एक दिन आदमी आदमी को ही खा रहा होगा. जंगल काटे गये, खेत बनाये, खेत काटे गये, प्लाट बनाये गये. न जंगल रहे, न पेड़ और न बारिश होगी फिर उपज कहाँ से होगी. हर एक पैदा होने वाले बच्चे को खाने को चाहिए, पहनने ओढ़ने को चाहिए और रहने को चाहिये. और हर एक कृत्रिम उत्पाद बनाने के लिये एनर्जी चाहिये, जब एनर्जी बनेगी तो ऊष्मा पैदा होगी ही. किसी भी सड़क पर दो चार किमी भी ऐसे नहीं बचे जहाँ दोनों तरफ मकान न बन चुके हों, या बनने जा रहे हों. दो वाहनों के मध्य अब सौ मीटर भी जगह खाली नहीं मिलती. एक्सप्रेस वे को छोड़ कर. भविष्य अन्धकारमय है.
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कभी लगता है कि सब का उत्तर समय में है। करोड़ोंं,अरबों सालों के इतिहार में हमारा समय बिंदु भर है। प्रकृति सब तहस नहस कर फिर निर्माण करेगी। … कयास ही लगाया जा सकता है।
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