*** ओमप्रकाश मुर्गीपालक ***
उस मुर्गी खाने में झिझकते हुये मैं प्रवेश कर गया। पूर्णत: शाकाहारी और लहसुन-प्याज को भी नापसंद करने वाला उस ब्रायलर पोल्ट्री फार्म को देखने इसलिये गया कि उस व्यवसाय का कुछ गणित समझ पाऊं। इस जिज्ञासु वृत्ति के कारण मैं कई अप्रिय स्थानों पर जा चुका हूं। एक बार तो कमहरिया के अघोरियों के जमावड़े में भी चला गया था। उसके मुकाबले मुर्गीखाना तो निरापद जगह थी।
इस इलाके में #गांवदेहात में पिछले चार साल में बहुत से ब्रायलर फार्म उभरे हैं। अब तो हर आधा एक किमी पर दिख जाता है। यह फार्म कोलाहलपुर अम्बेडकर गांव के उत्तरी छोर पर था। वहां फार्म सम्भालने वाला ओम प्रकाश मुझे पहचानता था, यद्यपि मैं उसे नहीं जानता था। जब उसने साइकिल से मेरे गुजरते हुये मुझे अभिवादन किया तो मैने अपनी साइकिल वहांवहां रोक ली।
ओमप्रकाश ने खुशी खुशी उसने वह मुर्गीखाना दिखाया। एक बड़े हॉल में मुर्गियां दाना खा रही थीं, पानी पी रही थीं और टहल रही थीं। ओमप्रकाश ने कहा – खाना, पानी पीना और टहलना; यही तो इनका काम है।
बनारस का कोई व्यवसायी इनका काम कराता है। वही इनके चूजे और दाना आदि सप्लाई करता है। उसके सुपरवाइजर लगभग रोज आ कर ब्रॉयलर्स की सेहत देखते हैं, दवा या डाक्टरी सहायता मुहैय्या कराते हैं। ओमप्रकाश को जरूरी निर्देश देते हैं। फीड की खपत के अनुसार ब्रॉयलर्स का वजन नापते हैं। इस पोल्ट्रीफार्म के शुरुआती दौर में शायद ज्यादा मॉनीटरिंग करते हों।
चूजे से ब्रॉयलर्स के परिपक्व होने तक में 35 दिन लगते हैं। ओमप्रकाश के इस फार्म से तीन बार ब्रायलर्स पूरी तरह तैयार हो कर यहां से जा चुके हैं। पैंतीस दिन बाद जब फार्म खाली होता है तो उसकी पूरी तराह सफाई होती है और डिसनइनफेक्ट किया जाता है पूरा कक्ष। फिर नये चूजे आते हैं।
ओमप्रकाश ने बताया कि इस समय 2010 ब्रॉयलर्स उसके फार्म में हैं। कुल 2080 सप्लाई हुये थे। सत्तर मर गये हैं। पैंतीस दिन के साइकल में 100 की मौत सामान्य मानी जाती है। ज्यादा होने पर बनारस वाला मालिक पैसे काटता है। हर ब्रॉयलर का मतलब पैसा है तो ओमप्रकाश उनकी पक्की गणना रखता है। दो हजार होने के कारण वे आंकड़े हैं; उनके व्यक्तिगत नामकरण की तो गुंजाइश नहीं है। वैसे भी इस फार्म में उनकी जिंदगी पैंतीस दिन भर की है। उनसे आत्मीय लगाव जैसी कोई चीज तो सम्भव नहीं होती होगी। इस पक्ष पर मैने ओमप्रकाश से कुछ पूछा भी नहीं।
ओमप्रकाश प्रसन्न है इस काम से। “बम्बई, दिल्ली जा कर खटने से यह ज्यादा अच्छा है। घर के पास रहने को मिलता है और महीने में पैंतीस से चालीस हजार की आमदनी हो जाती है।”
पोल्ट्री फार्म की हवा में मुर्गियों के यूरीन की तीखी गंध थी। उसे सहन करना मुश्किल हो रहा था। मैं जल्दी ही बाहर निकल आया। इस फार्म के संचालन को ले कर बहुत से सवाल अनुत्तरित थे। ओमप्रकाश को लागत पूंजी के लिये कितना खर्च करना पड़ा है? कितना लोन लेना पड़ा है? या सारा खर्च बनारस वाले मालिक का है? मुर्गियों की महामारी में ओमप्रकाश का क्या नुक्सान होगा? … इसी तरह के और भी सवाल। आर्थिक भी, रोजमर्रा के भी और यह काम शुरू करने के बाद ओमप्रकाश के परिवार के सामाजिक परिवर्तन के बारे में भी। पर पोल्ट्रीफार्म की तीखी गंध मुझे अपनी साइकिल ले कर रवाना होने को बाध्य कर रही थी।
मैने ओमप्रकाश का फोन नम्बर ले लिया। उसका यह सेंटर मेरे घर से ज्यादा दूर नहीं है। ओमप्रकाश से मिलने फिर कभी जाऊंगा।
इतना जरूर हुआ है कि ब्रॉयलर फार्म के माध्यम से खेती किसानी से अलग रोजगार का एक और साधन बन गया है #गांवदेहात में। दुनिया में भले ही लोग वेगन बन रहे हों; भारत की बहुत बड़ी आबादी शाकाहार से दूर जा रही है। चिकन की मांग बढ़ रही है। बहुत से लोग इस व्यवसाय में जुड़ गये हैं।
ज्यादातर जुड़े लोग तो दलित या ओबीसी वर्ग के हैं पर एक जगह मैने एक ब्राह्मण को भी इस काम में लगा पाया था। उसने बताया कि वह खुद चिकन नहीं खाता पर फार्म चलाता है। वैसे मुझे उसके कहे पर यकीन नहीं हुआ था। वह बताते हुये मुझसे सही तरीके से आंख मिला कर बात नहीं कर रहा था। पर इसमें लजाने की क्या बात है। बहुत से बाभन मांस, मछली और अण्डा सेवन कर रहे हैं। मारवाड़ी और जैन लोग भी अब आमिषभोजी मिल जाते हैं। बदलता समय है।
ओमप्रकाश का मैने फोटो लिया तो झिझकते हुये उसने कहा – गुरुजी, मेरा फोटो वायरल न कर दीजियेगा। इसलिये मैं ओमप्रकाश का फोटो टच-अप कर लगा रहा हूं। ओमप्रकाश का यह उद्यम मुझे अच्छा लगा, भले ही मुर्गी में मेरी कोई रुचि नहीं है! आखिर वह #गांवदेहात के परिदृष्य को रोजगार का नया आयाम तो दे रहा है।



मौतें सौ नहीं बल्कि २१०० हैं, हर चूजा जो पैदा किया जा रहा है सिर्फ मार कर खाने के लिए. और उसकी ये जिन्दगी भी मौत से कहीं ज्यादा दर्दनाक है.
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इस कोण से मेरे अंदर का घास पात खाने वाला जीव जब सोचता है तो व्यथित ही होता है। पर दुनियाँ में केवल मेरे और आप जैसे ही नहीं हैं। लोग यह मान कर चलते हैं – जीव जीवस्य भोजनम! :-(
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