<<< मचान के देखुआर अनूप सुकुल >>>
कल अनूप शुक्ल जी, सपत्नीक मिलने आये। हम लोग हिंदी ब्लॉगिंग के स्वर्णकाल (?) से मित्र हैं। मेरी उनसे मुलाकात सतरह साल पहले कानपुर रेलवे स्टेशन के एक रेस्ट हाउस में हुई थी। मैं उनके लेखन का मुरीद हूं। पता नहीं वे यह भाव रेसीप्रोकेट करते हैं या नहीं। पर इतनी जहमत उठा कर #गांवदेहात की सड़क में हिचकोले खाते अपना रथ (कार) खुद हाँकते हुये वे हमारे यहां तक आये, उससे तो लगता है कि वे हमें भी अहमियत देते हैं।
हम लोगों ने बहुत बातें कीं। सुकुल मुझे बार बार ठेलते रहे कि मैने जो ब्लॉग पर ठेल रखा है और जो पुस्तकाकार आने को कुलबुला रहा है; उसे मैं सेल्फ-पब्लिश करूं। वे मुझसे पहले साइकिल से नर्मदा यात्रा की बात करते थे, अब वे कार से भारत यात्रा की बात कर रहे थे। उन्होने कहा कि कार वे खुद चलायेंगे। प्रस्ताव तो बढ़िया लगा मुझे, पर त्वरित हां नहीं कर पाया।
सुकुलाइन ने मेरी पत्नीजी से हिल मिल जाने में तनिक भी देर न लगाई। एकबारगी मुझे आशंका हुई कि कहीं ये स्कूल कॉलेज की मित्र तो नहीं रह चुकी हैं। मेरी पत्नीजी किचन में जो भी चाय-वाय बना रही थीं, उसमें पूरा सहयोग किया सुकुलाइन जी ने। किसी ताजा ताजा रिटायर हुये बड़े अफसर की पत्नी से इस तरह के घरेलू और आत्मीय व्यवहार की अपेक्षा ले कर हम नहीं चल रहे थे। उनसे मिलना – पहली बार मिलना – बहुत सुखद था। सुकुलाइन जी की जय हो!
हमारे मचान का भी इंस्पेक्शन किया शुक्ल दम्पति ने। शुक्ल जी ने मेरे मचान के बगल से पोज दिया। उसपर चढ़ने में वे पहल न करें, इसलिये मैं खुद मचान पर चढ़ कर बैठ गया फोटो खिंचाने। हम चारों लोगों का एक ग्रुप फोटो भी हमारी नौकरानी अरुणा ने खींचा।
श्रीमती शुक्ल ने चलते समय अरुणा को बक्शीस भी दी। शहराती मॉडर्न लोग इस तरह के “देसी दकियानूसी रिवाज” का पालन तो नहीं ही करते। उनका ऐसा करना हम गांवदेहात में बसे लोगों को गहरे में छू गया। अरुणा को भी अपेक्षा नहीं रही होगी। उसे भी बहुत अच्छा लगा होगा। यह पक्का हो गया कि श्रीमती शुक्ल हम लोगों जैसी ही हैं।
शुक्ल जी हमारे लिये ढेर सारे फल ले कर आये थे। हम लोगों ने उन्हें कड़े प्रसाद के गुड़हवा लेड़ुआ का एक डिब्बा भेंट किया। साथ में उनके थैले में बगीचे से निकले आधा दर्जन नीबू भी रख दिये। इस तरह गिफ्ट का आदान प्रदान सम्पन्न हुआ।
रात में हम दिन भर का रीकैप करते हैं – मेरी पत्नी और मैं साथ साथ घूमते हुये। उसमें शुक्ल जी की आत्मीयता और श्रीमती शुक्ल का पूरी तरह घरेलू व्यवहार ही मुख्य रहे।
देखें, फिर कब मिलना होता है सुकुल दम्पति से। उनकी जय हो।


शुकुल सर की लेखनी पढ़ कर ऐसा लगता है कि कलम और शब्द ही सड़क पर चल रहे हैं। आपका लेखन पढ़ कर हम खुद को सुबह सुबह कटका रेल क्रोससिंग पर खड़े पाते हैं (जबकि हम रायबरेली) में ही रहते हैं।
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अनूप बहुत ही अच्छा लिखते हैं।
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वाह
प्रणाम आप सभी को।
संजीत त्रिपाठी
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आपकि जय हो. संजीत।
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