<<< मूंगफला के बहाने >>>
पड़ाव के नुक्कड़ पर मूंगफली वाला अपना ठेला लगाता है। सवेरे दस बजे हैं तो आ ही गया होगा। देवकली से आता है। आते आते भी समय लगता है। तीन चार तरह की मूंगफली रखता है। एक सिगड़ी पर भूनता भी है और हाथ के हाथ बेचता है। दो तीन दिन नहीं आया था। अशोक ने बताया कि संक्रांति के मेले पर दिखा था ईंटवा घाट पर। संक्रांति बीत गई। अपने अड्डे पर ही मिलना चाहिये अब। … उसके चक्कर में कार दो किलोमीटर एक्स्ट्रा चली।
वह पड़ाव पर मिल ही गया। दिखाई तीन तरह की मूंगफली। तीस रुपये, चालीस रुपये और पैंतालीस रुपये। “पैंतालीस वाली मूंगफला है। बड़े बड़े दाने हैं और एक भी मूंगफली कानी नहीं है। आपके लिये चालीस लगा दूंगा।”
हमारी रईसी को चुनौती जैसी थी उसकी मूंगफली की ग्रेडिंग और भाव का रोल आउट। जाहिर है मूंगफला ही लिया। मोबाइल एप्प से पैसा पेमेंट किया। घर आते आते दस एक मूंगफले फोड़ कर खा भी लिये। जैसा उसने कहा था, दाने अच्छे और पूरे थे।
सर्दी के मौसम में “मूंगफला” और साथ में नमक की पुड़िया लेना बचपन से चलता आ रहा है। तब वह अखबार या पुरानी कॉपियों के कागज के लिफाफों मे मिलते थे, अब प्लास्टिक की पन्नियों में। तब चार आने में मिलते थे अब चालीस रुपये में। यही फर्क है। यह फर्क सन 1963 और 2025 का भी है। … मुझे याद है कालकाजी की रीसेटलमेंट कॉलोनी की वह शाम जब मेरे पिताजी ठेले वाले से मूंगफली खरीद रहे थे। एक मूंगफली नीचे गिर गई थी और उसे उठा कर मैं चुपके से अपनी खाखी निक्कर की जेब में रख रहा था कि देखा पिताजी और ठेलेवाला दोनो देख रहे थे। मेरे हाथ जेब में जाने की बजाय ठेले पर रखने के लिये चले गये। यह याद है शायद इस लिये भी कि इसी तरह की छोटी छोटी बातों ने चरित्र गढ़ा मेरा।
चार आने से चालीस रुपये का दाम बढ़ जाना काफी अर्से तक कष्ट देता था। मंहगाई बहुत बढ़ गई है का जुमला मध्यवर्ग के साथ चिपका ही रहा। दिल्ली छावनी की उस राशन की दुकान का बोर्ड अब भी जेहन में है जिसमें लिखा था – गेंहू 55 पैसे किलो। तब पीएल 480 वाला गेंहू था। खाने में थर्ड क्लास। पर था पचपन पैसे किलो का। अब 55 पैसे में एक किलो पानी भी नहीं मिलता।
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मूंगफला नामकरण पर दिमाग चला। नाम को हाईलाइट कर बेचना कोई ब्रंडिंग की हारवर्ड में सिखाई जाने वाली विधा नहीं है। ट्रेनों में चाय बेचने वाले चंद्रमुखी या रामपियारी नामकरण कर अपनी मसाले वाली चाय थोड़ी मंहगी कर बेचते आये हैं। जब अफसरी मिल जाने पर रेलवे के सैलून में चलने लगा और सैलून अटेंडेंट घंटी देने पर ग्रीन टी बना कर दे जाने लगा तो उन रामपियारी बेचने वालों से वास्ता बंद हो गया। पर रिटायर होने पर यहां माधोसिंह में ट्रेन में चल चाय बेचने वाले हरिहर से मुलाकात हुई तो लगा कि कुछ बदला नहीं है। … मूंगफला उस यादों में ले जाने वाला एक प्रतीक ही है।
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तब एक पाव मूंगफली अकेले आसानी से आधा घंटे में निपटा सकने की क्षमता थी। कब फोड़ी, कब दाने निकाले और कब उदर में गई, इसका कोई ध्यान नहीं होता था। अब बदलाव यह है कि मूंगफलियां गिनी जाती हैं। उन्हे चबाते समय भी ध्यान जाता है कि बांये जबड़े से काम ले रहा हूं या दांये से। दांई ओर के दांत ज्यादा बींड़र हैं। उनमें छोटे टुकड़े फंस जाते हैं जिन्हे निकालने के लिये जीभ घंटों बार बार वहां जा कर ठेलती है। इसलिये मुंह उनसे काम कम लेता है और बांये जबड़े से मजदूरी ज्यादा कराता है। अनकॉन्शस माइण्ड यह बेगारी न कराये बांये जबड़े से इसलिये मैं जानबूझ कर दांई ओर ठेलता हूं मूंगफली को। और धीरे धीरे चालीस बार चबाता हूं जिससे दाने पूरी तरह पलवराइज हो कर पिसान बन जायें। यह अनुशासन हर बूढ़ा होता आदमी करता होगा। और जब मैं यह करता हूं तो एक तरह का आनंद मिलता है। उम्र के साथ हो रहे शारीरिक परिवर्तनों का आनंद! आखिर कहां तक रोयें कि यह दर्द कर रहा है, वह दुख रहा है…
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अनिरुद्ध ने जब मूंगफला बेचा होगा तो नहीं सोचा होगा कि ये दद्दा जी मूंगफला पर इतना लिख मारेंगे। वह तो यही देखता होगा कि अगली बार दद्दा कार से आते हैं या साइकिल से उसकी मूंगफली लेने के लिये!



बहुत ही सुंदर लेख। लिखते रहिये।
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धन्यवाद रूपा जी। आप पढ़ते रहिये! लेखन उसी से जुड़ा है! :-)
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मुझे यह लेख आपका अब तक का सर्वश्रेष्ठ लगा।
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जय हो! यह तो मन की गति है जो कभी कभी अच्छा लिखवा लेती है!
आपको धन्यवाद!
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