यात्रा बनाम यात्राविरक्ति

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आज सवेरे शैलेश पाण्डेय ने प्रयाग से फोन किया। उनका कहना था कि यूं ही उठूं, अपनी गाड़ी में तेल भराऊं और प्रयाग के दारागंज वाले परेड ग्राऊण्ड में पंहुच जाऊं। वहां वे मिल जायेंगे और पूरा मेला साथ रह कर घुमवा देंगे। घूम कर वापस लौटा जा सकता है। “भईया, आप खुद का देखा, अनुभव किया लिखें और प्रेमसागर की आंखों से देखा लिखें; दोनो में काफी अंतर है। आपका चालीस साल का रेल प्रशासन का अनुभव जो सोच सकेगा वह प्रेमसागर के विवरण से तो नहीं ट्रिगर होगा!”

शैलेश यात्रावादी हैं। वे अपनी मोटरसाइकिल – खानाबदोश ले कर सोलो भारत भ्रमण कर चुके हैं। कालांतर में उन्होने सुदूर पूर्व के प्रांत की तेम्सुतुला इमसॉन्ग से शादी कर ली तो जब तब वे दिल्ली से नागालैंड की यात्रा में नजर आते हैं। उनकी प्यारी सी, नन्ही सी बिटिया प्रांग्शी हिंदी अंगरेजी और नगा भाषा (अंगामी या आओ?) भी जानती है। उनका बहुआयामी परिवार और चरित्र बहुत कुछ प्रखर यात्रावाद की देन है। वैसे तो यूं कहूं तो शैलेश मेरे भी अपने ही हैं!

शैलेश से उलट मैं प्रखर यात्राविरक्त या अचलवादी हूंं। जितनी यात्रा करनी थी, रेल की पटरी के सहारे सहारे कर ली। रेल की नौकरी में यात्रा की अनिवार्यता थी। उसका निर्वहन मैने पूरी ईमानदारी से किया। पर जब रेल के जूते उतार कर टांगे तो यात्रावाद से भी नमस्कार कर लिया। अब गांव से निकलने का मन ही नहीं होता।

मुझे अपनी पिछले कुम्भ के दौरान की पोस्ट स्मरण हो आई – लोग यात्रा क्यों करते हैं? यह फरवरी 2013 में लिखी गई थी और मैं उस समय भी यात्राओं हे उचट कर यात्राविरक्त बन चुका था। मैं यह मानता था कि रेल परिचालान का प्रयोग माल ढुलाई के लिये होना चाहिये और लोगों को संचार के बेहतर साधनों पर निर्भर रहना चाहिये बनिस्पत यात्रा करने के। कुम्भ में होने वाली विद्वत-सभा भी संगम तीरे न हो कर ऑनलाइन होनी चाहिये।

तब से अब तक 12 साल गुजर गये हैं। तब तीन करोड़ तीर्थ यात्रियों के आने का आंकड़ा बनता था अब छ करोड़ का है और हर रोज उस आंकड़े को ध्वस्त करने वाली खबरें सामने आ रही हैं। सारा मीड़िया यह बताने में लगा है कि महाकुम्भ इसके बाद 144 साल बाद ही आयेगा। सब के लिये यह जिंदगी में आखिरी नायाब मौका है संगम पर होने का। आने वाली पीढ़ियों को दिखाने के लिये उनकी एक सेल्फी संगम पर तो खिंचनी ही चाहिये। हारी हूँसा में हर कोई 2, 5, 10, 20 डुबकी संगम के जल में लगाना ही चाहता है। हर तरफ यात्रावाद हिलोरें मार रहा है लोगों को महाकुम्भ में ले जाने के लिये।

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शैलेश के कहने पर मेरा अचलवाद होल्ड पर जाने वाला है। वाहन चालक अशोक को कहा गया है कि सवेरे सात बजे आ जाये। एक दिन के लिये प्रयागराज हो आया जाये। यहां से दो घंटा जाने का और दो घंटा वापस आने का। दो तीन घंटा वहां लगेंगे। शैलेश के अनुसार “भईया, आपको कोई समारोह में थोड़े जाना है कि तैयार होना पड़े। जो कुरता पायजामा पहने हैं, वही पहने निकल लीजिये। अपनी जरूरी दवायें ले लीजिये और कार में तेल भरवा लीजिये; बस। यहां आने पर जगहें दिखाने-बताने की जिम्मेदारी मेरी। भोजन के लिये भी भण्डारे की लाइन में लगना भी विलक्षण अनुभव है। आप भले ही जरा सा खायें, पर लाइन में लगना आपका बहुत कुछ गला देता है। हल्का महसूस करेंगे आप।”

फ्री में वह शैलेश जैसा वीवीआईपी गाइड मिलने जा रहा है। मेला में जिन जगहों पर मैं जाने के बाद भी देखने की कोशिश नहीं करता, वहां भी शैलेश की अप्रोच ले जायेगी।

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यात्रा बनाम यात्राविरक्ति पर मैं लौटता हूं। यात्राविरक्त ( या Stationophilia से संक्रमित) मुझ जैसे लोग एक मिनीस्क्यूल माइनॉरिटी में हैं, पर हैं वे बहुत सार्थक लोग। द न्यूयॉर्कर में एगनेस कैलॉर्ड का एक महत्वपूर्ण लेख है – The case against Travel. यह महत्वपूर्ण लेख एक बीस पेज की पुस्तक के रूप में भी छपा है। उसमें अनयात्रावादियों का जिक्र है – जीके चेस्टरटन, राल्फ वाल्डो इमर्सन, सुकरात, एमेन्युयेल कांट और पुर्तगाली लेखक फर्नांदो पेसोआ। यहां भारत में अपने क्रियेटिव जीवन में एकांत में रहने वाले दो नाम मुझे याद आते हैं – शांतिनिकेतन में रहने वाले रवींद्रनाथ टैगोर और पॉण्डिच्चेरी में समय बिताने वाले महर्षि अरविंद घोष।

फर्नांदो पेसोआ का कहना है कि यात्रा वे लोग करते हैं जो कल्पनाशीलता और क्रियेटिविटी के मामले में हद दर्जे के गरीब हैं। उन्हें अनुभव करने के लिये कहीं जाने की जरूरत पड़ती है।

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चैट जीपीटी मुझे उकसाता है – “पाण्डेय जी आपका वर्चुअल ट्रेवल का आईडिया अनूठा है। आपको सामग्री जुटाने में मैं भरसक मदद करूंगा, बाकी तो आपका अनुभव है जो उसमें सारे रंग भरेगा।” उसने अपनी मेमोरी में मेरे वर्चुअल यात्रा का कॉन्सेप्ट फीड कर लिया है और जब तब पूछता भी रहता है वर्चुअल ट्रेवलॉग के बारे में। लगता है वह मुझे गांव में बैठा कर किसी नदी, किसी प्रांत या किसी रेल यात्रा का ट्रेवलॉग लिखवा ही लेगा! अच्छा लगता है कि वह मेरे अचलवाद को खराब नहीं मानता। वह किसी बात को खराब नहीं मानता। वह तैयार है मेरी कल्पना, मेरी सोच में अपना टेका लगाने को। वह यकीन दिलाता है कि मेरे पास अनुभव खूब है। बाकी सब घर बैठे पाया जा सकता है। … एक सही दोस्त वैसा ही होता है।

पर, फिलहाल लगता है शैलेश की बात मान कर कुछ घंटे के लिये ही सही, प्रयाग-संगम हो ही आऊं।

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ऊपर वर्णित संदर्भों के लिंक निम्न हैं –

शैलेश पाण्डेय – https://x.com/shaileshkpandey

तेम्सुतुला इमसॉन्ग – https://x.com/temsutulaimsong

लोग यात्रा क्यों करते हैं? ब्लॉग पोस्ट – https://gyandutt.com/2013/02/26/why-do-people-travel-2/

[ चित्र चैट जीपीटी का।]

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

2 thoughts on “यात्रा बनाम यात्राविरक्ति

  1. आपके इस ब्लॉग ने उन दोस्तों की याद दिला दी जो घर के द्वार पर आकर चिल्लाते थे कहीं जाने या क्रिकेट खेलने के लिए। वैसे आत्मीय संबंध पता नहीं अब लोगों में होते हैं या नहीं। पर शैलेश जी का आपको यूँ बुलाना बताता है की कुछ लोग अब भी उतने आत्मीय हैं की दूसरों के लिए न ही केवल वक़्त निकाल पाते हैं बल्कि खुद पहल करने में भी हिचकिचाते नहीं हैं। इसी बहाने आपको कुम्भ के दर्शन हुए और हमें पढ़ने को मिला।
    सारा दिन अंग्रेजी पढ़ने-लिखने में बीत जाता है, ऐसे में आपके ब्लॉग पर हिंदी में टिप्पणी लिखने में आनंद आता है।

    R

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    1. शैलेश को मालुम है कि अन्यथा मैं अपने खोल में ही दुबका रहूंगा। पहले भी वे मुझे यूं निकाल चुके हैं बाहर। और मेरे यहां आते भी हैं तो अचानक!
      आपको हिंदी पढ़ने और टिप्पणी करने में आनंद आता है – इसपर मैं आपकी जय हो ही कह सकता हूं। धन्यवाद!

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